Rasiya [part 81]

माँ के कहे शब्द सुनकर ,चतुर आश्चर्य से उछल गया किन्तु तुरंत ही अपनी भावनाओं पर नियंत्रण कर, शांत बैठने का अभिनय करने लगा। वो अपनी बात कहकर हँसते हुए बोलीं - अच्छा !अब तू आराम कर ,सफ़र की थकावट होगी। कस्तूरी !तुम अब नीचे आकर काम में मेरा हाथ बटाना ,तेरे ससुर भी अब आते होंगे। दोनों बाप -बेटा साथ ही भोजन कर लेंगे। 

कस्तूरी ने ,हाँ में गर्दन हिलाई और सास चाय की प्याली लेकर चली गयी। 

माँ के जाते ही ,चतुर कस्तूरी की तरफ देखते हुए बोला -शैतान ! कस्तूरी मुस्कुरा दी ,अपनी दोनों भुजाएं फैलाकर खड़े होते हुए बोला -आ ,मेरे बच्चों की अम्मा ! मेरे सीने से लग जा ! कस्तूरी तुरंत ही उससे लिपट  गयी ,उसने उसके बिना ये दिन ,न जाने कैसे -कैसे बिताये हैं ?कभी -कभी चतुर की याद सताती तो,उसके तकिये को ही अपना सहारा समझ, उससे लिपट जाती थी। कस्तूरी को अपनी बाँहों में भरते हुए बोला - ''क्या मुझे चिट्ठी भेजकर बता नहीं सकती थी ?''


बता देती तो ,जो आनन्द आज आया ,वह कैसे आता ?शरारत भरी मुस्कुराहट के साथ बोली -मुझे यहाँ अकेली छोड़कर ,चले गए ,उसका दंड तो मिलेगा ही। 

अच्छा जी !कहते हुए चतुर ने कस्तूरी के चेहरे को अपनी हथेलियों में भर उसे ऊपर उठाया और बोला -अब तुम्हें भी ,इसका दंड़ मिलेगा ,कहते हुए ,उसके अधरों को चूमने लगा।

 कस्तूरी कसमसाई और बोली -छोड़िये ! मुझे खाना बनाने जाना है ,चतुर ने देखा ,वह अब और पहले से अधिक गुलाबी हो गयी है ,उसे जाते देख बोला -रुको !

क्या हुआ ?कस्तूरी ने पूछा। 

देखो ! तुम मम्मी के पास जा रही हो ,इस तरह जाओगी !देखो !तुम्हारे गाल पर कुछ लगा है। 

कहाँ , क्या लगा है ? वह  उसके करीब आई ,चतुर ने उसके गालों को चूम लिया ,कस्तूरी शर्माते हुए सीढ़ियों से नीचे उतर गयी और चतुर प्रसन्न होते हुए ,बिस्तर पर लेट गया।उसका दिल कर रहा था ,आज न जाने वह क्या कर दे ? मन ही मन सोच रहा था ,यह बात उसके दिमाग में क्यों नहीं आई ? ऐसा भी हो सकता है ,अब तो कई दिनों तक यहीं रहूंगा ,सोचते -सोचते न जाने उसे कब नींद आई ?मां की आवाज से उसकी आँख खुली। भोजन के लिए नीचे गया ,उसने देखा ,अब कस्तूरी की चाल भी बदल गयी है। माता -पिता के चेहरे पर प्रसन्नता की झलक उसे नजर आ रही थी। उनकी प्रसन्नता का कारण उनकी लाड़ली बहु ही थी ,अब उससे ज्यादा उनका ध्यान कस्तूरी पर था। 

शाम को कस्तूरी चतुर से बोली -बहुत दिन हो गए ,अपने घर नहीं गयी ,अब तुम आ ही गए हो तो मुझे मेरे घर मिला लाओ !फिर न जाने कब मिलना हो ?

हाँ ,कल चलेंगे ,चतुर ने कस्तूरी को विश्वास दिलाया ,चतुर को आये हुए चार दिन हो गए कस्तूरी को उसके मैके भी मिलवा आया किन्तु उसने अभी अपने कॉलिज जाने का नाम ही नहीं लिया। रोज अपनी कस्तूरी के साथ कमरे में घुस जाता। अब मेरा तुम्हारे बग़ैर एक पल भी मन लगता ,अकेले में कभी -कभी दिल घबराने लगता है। ऐसी हालत में ,उसे कस्तूरी के साथ रहना चाहिए किन्तु उसे कॉलिज भी जाना है। दो दिनों से यही प्रयास कर रहा है ,कल चला जाऊंगा ,किन्तु कल आ ही नहीं रहा। कोई न कोई बहाना ढूंढ़ ही लेता। यदि मुझे कोई सहायता चाहिए भी होगी तो रुपाली मेरी सहायता कर देगी। कभी सोचता ,अब मैं कॉलिज में हूँ ,छोटे बच्चों की तरह आवश्यक नहीं कि प्रतिदिन कॉलिज जाया जाये। 

रात्रि में ,अपनी कस्तूरी को अपने सीने से लगाकर  सो जाता ,अब तो उसके अंदर उसका अंश पल रहा है। उनके ख़ानदान का वारिस ! एक दिन तो वह सोते -सोते ड़र गयी थी इसलिए अब चतुर कॉलिज जाने के लिए तैयार नहीं था। जब चतुर को घर में रहते हुए ,एक सप्ताह हो गया ,तब श्रीधर जी ने पूछा -क्या अब तेरा कॉलिज नहीं है ,कितने दिनों की छुट्टी आया है ?

आया तो दो दिनों के लिए ही था किन्तु इसकी हालत देखकर जाने का मन नहीं करता। 

क्यों ,इसे क्या हुआ है ?ठीक तो है ,कोई दिक्क्त होगी तो तू ही क्या कर लेगा ?तब भी डॉक्टर ही देखेगा ,तू जा ,अपनी पढ़ाई का हर्ज़ा मत कर ,इसके पास मैं और तेरे पिता हैं ,रामप्यारी  दृढ़ता से बोली -बहु ,की हालत क्या देखी ?कमजोर पड़ गया, इसीलिए तुझे नहीं बताया था ,ये ही बच्चा नहीं जन रही है ,हमने भी बच्चे पैदा किये हैं। कोई दिक्क्त नहीं होगी ,तो हम सब संभालेंगे। 

चतुर ने कस्तूरी की तरफ देखा, उसने अपनी नजरों से ही ,उसे जाने की इजाजत दे दी हालांकि वह चाहती थी कि जब तक बच्चा हो तब तक चतुर उसके पास रहे, किंतु जब रामप्यारी ने कहा -''हम इसका ख्याल रखने के लिए हैं , तू अपनी पढ़ाई का हरजा मत कर....... '' तब रामप्यारी को भी लगा, मैं व्यर्थ में ही परेशान हो रही हूं और बोली -यहां मेरा ख्याल रखने के लिए मम्मी और पापा हैं, आप अपने कॉलेज चले जाइए। 

चतुर का मन तो नहीं मान रहा था, किंतु जब परिवार वाले उसे समझाने लगे, तब वह जाने के लिए तैयार हो गया। 

जब चतुर अपने कमरे में पहुंचा, तो उसके मकान मालिक ने बताया, कि कई दिनों से एक लड़की तुम्हें पूछ रही थी। चतुर परेशान हो गया ,न जाने कौन ?लड़की है मैंने तो, किसी को यहां का पता भी नहीं दिया है आखिर वह कौन हो सकती है ? जब वह कॉलेज जाने के लिए अपनी बस में बैठा उसे रूपाली दिखलाइ दी।  रूपाली उसे देखते ही अत्यंत प्रसन्न हुई और बोली - तुम कहां चले गए थे ?

तुम्हें बताया तो था, अपने घर जा रहा हूं। 

हां बताया तो था किंतु आने में कितने दिन लगा दिए ?


हां ,कुछ बात ही ऐसी थी, वह अपनी खुशी को मैं बांट लेना चाहता था किंतु उसने तो, कॉलेज में किसी को यह भी नहीं बताया कि उसका विवाह हुआ है तो वह यह कैसे कह सकता है कि वह अब एक बच्चे का पिता बनने वाला है। तब उसे मकान मालिक की बात स्मरण हो आई और बोला -न जाने कौन मेरे घर चक्कर लगा रही थी ? क्या तुम ही तो नहीं थीं ?

हां ,मैं ही तुम्हें ढूंढते हुए गई थी, रूपाली ने कहा। 

किंतु मैंने तो तुम्हें अपने घर का पता कभी बतलाया ही नहीं था। 

तुम्हें ध्यान नहीं है ,एक दिन बातों ही बातों में तुमने बताया था कि तुम कहां रह रहे हो ?इसलिए पूछते हुए  चली गई। 

मेरे बिना तुम इतनी परेशान हो गई थीं ,चतुर ने उसकी आंखों में झांकते हुए पूछा। 

हां, तुम्हारी आदत सी जो हो गई है. दोनों बस से उतर जाते हैं। तभी रूपाली ने चतुर, के हाथ पकड़कर एक और इशारा किया वह उसे कुछ दिखलाना चाहती थी। चतुर अपनी ही धुन में आगे बढ़ता जा रहा था। आखिर वह क्या दिखलाना चाहती थी ?

laxmi

मेरठ ज़िले में जन्मी ,मैं 'लक्ष्मी त्यागी ' [हिंदी साहित्य ]से स्नातकोत्तर 'करने के पश्चात ,'बी.एड 'की डिग्री प्राप्त करने के पश्चात 'गैर सरकारी संस्था 'में शिक्षण प्रारम्भ किया। गायन ,नृत्य ,चित्रकारी और लेखन में प्रारम्भ से ही रूचि रही। विवाह के एक वर्ष पश्चात नौकरी त्यागकर ,परिवार की ज़िम्मेदारियाँ संभाली। घर में ही नृत्य ,चित्रकारी ,क्राफ्ट इत्यादि कोर्सों के लिए'' शिक्षण संस्थान ''खोलकर शिक्षण प्रारम्भ किया। समय -समय पर लेखन कार्य भी चलता रहा।अट्ठारह वर्ष सिखाने के पश्चात ,लेखन कार्य में जुट गयी। समाज के प्रति ,रिश्तों के प्रति जब भी मन उद्वेलित हो उठता ,तब -तब कोई कहानी ,किसी लेख अथवा कविता का जन्म हुआ इन कहानियों में जीवन के ,रिश्तों के अनेक रंग देखने को मिलेंगे। आधुनिकता की दौड़ में किस तरह का बदलाव आ रहा है ?सही /गलत सोचने पर मजबूर करता है। सरल और स्पष्ट शब्दों में कुछ कहती हैं ,ये कहानियाँ।

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