Rasiya [part 76]

आज न जाने क्यों ?अचानक ही रूपाली ने, चतुर से पूछा -क्या तुम्हारे पास कुछ पैसे हैं ?

क्यों ,तुम ऐसा क्यों पूछ रही हो ?

तुम मेरे साथ चलो ! 

कहाँ जाना है ?

चलो ,तो सही ,कहते हुए ,बस को बीच रास्ते में ही ,रुकवा देती है। इस तरह बीच राह में ही ,बस रुक जाने के कारण ,मजबूरी में चतुर को भी उतरना पड़ा।


 चतुर, लाचार सा उसके पीछे हो लिया, मन ही मन प्रसन्न भी होता कि कोई लड़की उसमें इतनी दिलचस्पी दिखला रही है।हम कहाँ जा रहे हैं ? उसने आस -पास देखते हुए पूछा। 

रास्ते में चलते हुए ,रुपाली ने उसे बताया -मैं सोच रही थी, आज कहीं शॉपिंग करते हैं।  

क्यों, किस चीज की शॉपिंग करनी है ?

आज तुम्हारे लिए ,कुछ कपड़े लेने है ,रुपाली ने मुस्कुराते हुए ,उसकी तरफ देखा। 

मुझे आवश्यकता नहीं है,मेरे पास बहुत कपड़े हैं।  इन कपड़ों में क्या खराबी है ?अभी सिलवाए हैं ,नाराज होते हुए चतुर ने कहा। 

ये कपड़े हैं , तुम इनकी चेक देखो, इनका कलर देखो ! जैसी तुम्हारी बॉडी है , उसके आधार पर,तुम पर कुछ अच्छा सा होना चाहिए, मैं सोच रही थी -अबकी बार , कॉलेज के हैंडसम लड़कों की प्रतियोगिता में तुम भी शामिल हो जाओ !

नहीं ,मैं यह नहीं कर पाऊंगा ,मुझे नहीं पता है ,क्या करना है और क्या नहीं ?

 वह सब मैं तुम्हें सिखाऊंगी,पूरे अधिकार और विश्वास से वो बोली। 

मुझे अंग्रेजी बोलने में भी थोड़ी हिचकिचाहट होती है। 

वह तो मैं जानती हूं ,मैंने तुमसे बात करके देख लिया था , किंतु जब सीखना चाहोगे तो अंग्रेजी भी सीख जाओगे।क्या यह गांव का लबादा ओढ़े ही बैठे रहोगे। कुछ आगे बढ़ना है या नहीं ,मन ही मन चतुर सोच रहा था, इसमें कोई बुराई भी नहीं है, मेरे मन की जो हिचकिचाहट है अपने को छुपा लेने की, शायद वह थोड़ी कम हो जाए। अब जब यहां आ ही गया हूं ,तो यहां के तौर -तरीके और रहन-सहन के विषय में जानना ही होगा  बल्कि उनके जैसा ही रहना भी होगा। हालांकि थोड़ा खर्चा बढ़ जाएगा किंतु मैं प्रयास करूंगा। कम से कम में काम हो जाए।

 शहर में आकर रह रहे हो तो, शहर के कुछ तौर तरीके भी सीख लो ! कहते हुए आगे बढ़ चली। 

पता नहीं, क्यों ?यह मुझ पर, इतना अधिकार जतला रही है। रूपाली चतुर को एक बड़े शोरूम में ले गई, और वहां कुछ ढूंढने लगी। तभी उसने, कुछ कपड़े निकाले और बोली -इन्हें पहन कर देखो !

मैं यहां कहां पहनूँगा ?

क्यों? यहां क्या बुराई है ? तुम्हारी बॉडी भी अच्छी है ,लोग भी देख लेंगे कहते हुए हंसने लगी। 

चतुर उन कपड़ों को वापस रखने लगा, उसे रोकते हुए बोली -जाओ ! उधर' ट्रायल रूम 'है , वहां 'ट्राई 'करो ! बहुत न नुकूर करते हुए , चतुर ने कभी जींस भी नहीं पहनी थी,रुपाली ने उसके लिए दो जींस भी लीं। जब भी वह अपने को आईने में देखने का प्रयास करता ,वह आईने के आगे खड़ी हो जाती और कहती -बाद में देखना ! उस समय के हिसाब से, रूपाली ने,तीन हज़ार के कपड़े उसके लिए ले लिए और एक जोड़ी ,अपने लिए भी । एक जोड़ी कपड़े उसने  ऐसे ही पहने रहने दिया और बोली -अब देखो ! आईने में अपने को देखकर, चतुर को बहुत आश्चर्य हुआ और सोचने लगा ,कपड़ों से कितना फर्क पड़ता है ? वह बिल्कुल अलग लग रहा था जैसे उसके कॉलेज में लड़के घूमते हैं। शर्ट की जगह टी शर्ट भी ली थी। कुल मिलाकर वह बहुत हैंडसम लग रहा था किन्तु जब बिल उसके सामने आया तो उसके पसीने छूट गए, उसके बजट से बहुत बाहर था। जहां 400या 500 में बहुत अच्छे कपड़े आ जाते थे। उसे रूपाली पर क्रोध आ रहा था कि  व्यर्थ में ही ,इसने कपड़ों का इतना बड़ा बिल बनवा दिया। 

अपने कपड़ों के वह पैसे देना चाहती थी ,किंतु जब तक चतुर ने बिल नहीं देखा था , तब बोला -कोई नहीं, यह मेरी तरफ से रख लेना। अब बिल देखकर उसके उसे लग रहा था, बाकी का महीना वह कैसे बिताएगा ? माता-पिता पर भी अधिक बोझ नहीं डालना चाहता था। वह चिट्ठी भेजेगा, तो शायद पिता उसके लिए, पैसों का इंतजाम करके ''मनीऑर्डर'' कर सकते हैं , अपने बटुए में, उसने पैसे देखें, सिर्फ ढाई सौ रुपए थे। वह कभी दुकानदार की तरफ देख रहा था तो कभी रूपाली की तरफ , वह कैसे कहे ? कि इस समय उसके पास पैसे नहीं हैं , अपने को आईने में देखकर उसकी इच्छा तो हो रही थी कि इन कपड़ों को ले ले। किंतु अभी तो पैसे की दिक्कत आ रही थी। 

रूपाली ने उसके चेहरे की तरफ देखा और बोली -क्या तुम्हारे पास पैसे नहीं है ?

ख़्वामहखा !तुमने मेरा इतना बड़ा बिल बनवा दिया , मुझसे पूछ तो लेतीं , ₹3000 इतने पैसे लेकर कौन चलता है ?

किंतु उसकी बात सुनकर जैसे रूपाली पर कोई फर्क ही नहीं पड़ा और वह दुकानदार से बोली - अंकल ! मुझे मालूम नहीं था कि इसके पास, पैसे नहीं हैं। मेरा मतलब है ,पैसे तो हैं ,किंतु पर्स में नहीं हैं । हमने जो सामान लिया है ,हम उसके कुछ पैसे देकर जाते हैं , कल आकर अपना सामान ले लेंगे और बाकी के बचे  पैसे दे देंगे। तब तक हमारा यह पैकेट संभाल कर रखिएगा। 

चलो !इस समस्या का हल तो इसने  निकाल लिया, हो सकता है ,यह अक्सर इनसे सामान खरीदने आती हो , दुकान से बाहर निकलकर चतुर बोला -तुमने ,मेरा बजट खराब कर दिया। 

क्यों, बात-बात में परेशान होते हो ? अपने बाप की इकलौती संतान हो, उनसे और पैसे मंगा लेना जो कुछ उनका है ,वह तुम्हारा भी तो है। इतनी सारे पैसे एक साथ, कभी उसने खर्च किये  ही नहीं थे । मां और पिताजी जो भी ,जैसे भी कपड़े उसके लिए लाते , उन्हें चुपचाप पहन लेता, किंतु जब उसने अपने को आईने में देखा था तो उसे अच्छा लगा। तभी सोच रहा था -शहर में, रहने के खर्च भी बहुत हैं। हम लोग तो सीधे-साधे से हैं, जितना बजट है उसी में, समय बिता लेते हैं।  यहाँ बाहरी दिखावा बहुत है, यहाँ लड़कियां और लड़के इतने महंगे -महंगे कपड़े पहनकर घूमते हैं ? उनके माता-पिता तो बहुत ही पैसा कमाते होंगे। 

आज चतुर को एहसास हो रहा था, कि हमारी आवश्यकता है कितनी छोटी हैं? इसीलिए ही हम कम आमदनी में ही, सुकून से जिंदगी जी लेते हैं। शहर वाले , देखने में क्यों अच्छे लगते हैं? क्योंकि उनके खर्च भी अधिक हैं। इतनी आमदनी होगी या नहीं यह तो मैं नहीं जानता, यदि आमदनी भी है, तो उतना ही यह लोग व्यय  भी करते हैं। पहली बार 3000 की खरीदारी की थी वह भी बिना माता-पिता के, अभी उसके विवाह में भी बहुत व्यय  हो गया था इसलिए उसे, इस खरीदारी का अनुभव सुखद नहीं लगा। चलिए !  आगे बढ़ते हैं -रसिया यानि चतुर भार्गव के साथ ........ 

laxmi

मेरठ ज़िले में जन्मी ,मैं 'लक्ष्मी त्यागी ' [हिंदी साहित्य ]से स्नातकोत्तर 'करने के पश्चात ,'बी.एड 'की डिग्री प्राप्त करने के पश्चात 'गैर सरकारी संस्था 'में शिक्षण प्रारम्भ किया। गायन ,नृत्य ,चित्रकारी और लेखन में प्रारम्भ से ही रूचि रही। विवाह के एक वर्ष पश्चात नौकरी त्यागकर ,परिवार की ज़िम्मेदारियाँ संभाली। घर में ही नृत्य ,चित्रकारी ,क्राफ्ट इत्यादि कोर्सों के लिए'' शिक्षण संस्थान ''खोलकर शिक्षण प्रारम्भ किया। समय -समय पर लेखन कार्य भी चलता रहा।अट्ठारह वर्ष सिखाने के पश्चात ,लेखन कार्य में जुट गयी। समाज के प्रति ,रिश्तों के प्रति जब भी मन उद्वेलित हो उठता ,तब -तब कोई कहानी ,किसी लेख अथवा कविता का जन्म हुआ इन कहानियों में जीवन के ,रिश्तों के अनेक रंग देखने को मिलेंगे। आधुनिकता की दौड़ में किस तरह का बदलाव आ रहा है ?सही /गलत सोचने पर मजबूर करता है। सरल और स्पष्ट शब्दों में कुछ कहती हैं ,ये कहानियाँ।

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