Rasiya [part 101]

श्रीमती दत्ता की जब आंख खुली तो उसने देखा ,चतुर वहीं पास पड़े तख्त पर सो रहा है। वह अब अपने को बेहतर महसूस कर रही थी ,बुखार उतर चुका था , जब तक वह बुखार में तप रही थी ,उसे नींद नहीं आ रही थी। शरीर में बेचैनी थी। चतुर भी तब तक उसके संग ही जागता रहा और उसके माथे पर ठंडे पानी की पट्टियाँ रखता रहा। तब श्रीमती दत्ता की नजर सामने दीवार पर टंगी घड़ी पर गयी ,उसमें लगभग 12 बज चुके थे।  उसके पश्चात , मिसेज दत्ता को कब नींद आई , उन्हें नहीं मालूम और कब चतुर सोया यह भी नहीं जानती ? अब सुबह आँख खुली तो ,घड़ी में आठ बज रहे थे। चतुर को पास ही तख्त पर सोया देखकर बिना आवाज किये चुपचाप उठी और बेटी को भी उठाया ,उसे तैयार करके स्कूल भेजा। तब चतुर और अपने लिए चाय बनाई और चतुर को उठाया। 

चाय देते हुए बोली -रात में ,तुम्हें बड़ा परेशान किया। 


इसमें परेशानी की क्या बात है ?कोई भी बिमार होगा तो उसके साथ रहना ,देखभाल करना दूसरे आदमी का फर्ज़ बन जाता है। क्या मैं बिमार होता तो, क्या आप मेरे लिए ऐसा नहीं करतीं ?

चतुर के प्रश्न पर ,मिसेज दत्ता चुप हो गयीं ,चाही का घूंट भरते हुए बोलीं - तुमने, ऐसे समय में बहुत साथ दिया वरना जितना तुमने किया इतना तो कोई अपना भी नहीं करता। ऐसे समय में किसी रिश्तेदार को भी नहीं बुला सकते। 

क्यों ?

भई ,पहले तो उसे खबर ही देनी पड़ेगी ,जो इतने तेज़ बुखार में सम्भव नहीं ,उन्हें किसी ने सूचित कर भी दिया तब वो समय निकालकर आएगा ,आएगा भी या नहीं ,आकर इतना काम भी करे ,कह नहीं सकते ,किन्तु तुम पास थे ,साथ थे ,बात बदलते हुए बोली -अच्छा ये बताओ !तुम कब सोये ?

चतुर  यह सुनकर बोला -मैं जब भी सोया हूँ ,इससे कोई मतलब नहीं है किन्तु यह आप क्या कह रहीं हैं ?ये कहकर आपने मेरा दिल दुखाया है। क्या, आपने मुझे अभी तक अपना नहीं माना ,मैंने तो अपना ही समझ कर यह सब कार्य किया था वरना आप ऐसी बातें  न करतीं 

मिसेज दत्ता को लगा ,कि मेरी बातों से चतुर का दिल दुखा है ,तब वह बोलीं -नहीं ,ऐसी कोई बात नहीं है।  जब मैंने  तुम्हें अपना माना, तभी तो अपना घर किराए पर दिया था वरना इतने वर्षों से खाली पड़ा था किसी को भी मैंने  किराए पर मकान नहीं दिया। मैंने ये थोड़ी औपचारिकता ही की है किंतु तुम्हें कभी किराएदार नहीं समझा। किन्तु तुमने भी, किसी किरायेदार की तरह नहीं , किसी अपने की तरह ही मेरी सेवा की और मेरी बच्ची की देखभाल भी की,जब वो जिन्दा थे ,मेरा इसी तरह ही ख्याल रखते थे। 

वह तो इंसानियत के नाते मेरा फर्ज था। इतना तो मैं आपके लिए कर ही सकता हूं ,कहते हुए चतुर ने चाय की प्याली मेज पर रखी और फ्रेश होने के लिए चला गया। जब वह तैयार होकर बाहर आया ,तब मिसेज दत्ता से बोला - आज आपके कारण मुझे देरी हो गई है, मुझे भी आज दफ्तर में डांट पड़ेगी। जैसे ही ये शब्द कहते हुए अंदर आया उसने देखा ,वो भी तैयार हो रहीं हैं। ये आप क्या कर रहीं हैं ?आश्चर्य से पूछा। 

मिसेज दत्ता बोली -मुझे भी दफ्तर जाना है। 

यह क्या कह रही हैं ?आप ऐसी हालत में ,कौन दफ्तर जाता है ? रात भर बुखार रहा ,इतनी भी मजबूरी नहीं है। मैं दफ्तर चला जाता हूं और आपकी छुट्टी के लिए निवेदन भेज दूंगा।  

तुम भी तो रात भर मेरे साथ ही जग रहे थे। हो सकता है, हो क्या सकता है ?तुम्हारी नींद भी तो पूरी नहीं हुई होगी। 

कोई बात नहीं ,मैं सब सहन कर लूंगा ,तब उसने दत्ता का हाथ पकड़ा और अधिकार से उसे खींचकर बिस्तर पर बिठा दिया और बोला -आप कहीं नहीं जाएँगी ,आप आज आराम करेंगी। कोई कार्य हो तो ,मुझे बताना या फोन कर देना।

मैं आज नाश्ता भी नहीं बना पाई। 

कोई बात नहीं ,मैं दफ्तर में ही खा लूंगा ,कहते हुए बाहर निकल गया। चतुर का इस तरह अधिकार से उसे काम न करने देना और दफ्तर के लिए मना करना ,इस सब घटना में ,दत्ता को एक अपनत्व नजर आया। इक ख़ुशी का एहसास हुआ।  

चतुर तैयार होकर ,पीछे गली में चला गया और कस्तूरी से बोला -बड़े जोरों की भूख लगी है ,क्या बनाया है ?

कस्तूरी ने चुपचाप थाली में भोजन परोसकर ले आई ,जब चतुर खाने लगा ,तब बोली -रातभर कहाँ रहे ?आये नहीं। 

कैसे आता ?वो जो बॉस रहती हैं  ,बेचारी ! विधवा है , उसका और कोई नहीं ,उसे रातभर बुखार रहा ,बस उसी के लिए डॉक्टर बुलाया दवाई दी ,उसकी बेटी के लिए बाहर से भोजन लाया। इसी काम में ,मैं बहुत थक गया था ,सो वहीँ सो गया। भोजन करके शीघ्र ही ,दफ्तर के लिए निकल गया।

 मिसेज दत्ता को लग रहा था ,कि बेचारा !भूखा -प्यासा रात भर उसने मेरी सेवा की और अब दफ्तर चला गया। 

अग्रवाल साहब की, पत्नी ने आज सिर धोया है और वह छत पर खड़ी होकर अपने गीले बालों को सुखा रही थी। वह तो जैसे भूल ही गई था कि कोई 10 दिन पहले उसे बाजार में मिला था लेकिन चतुर किसी को भूलने दे, तब न.......  उसके दरवाजे की घंटी बजी उसने छत से ही नीचे की तरफ झांक कर देखा, कोई व्यक्ति खड़ा था ,ऊपर से ही चिल्लाकर बोली -जी कहिए ! किससे मिलना है ?

चतुर ने अपना मुंह ऊपर किया और मुस्कुराते हुए बोला -आप ही से मिलने आया हूं। 

चतुर को देखकर वह  प्रसन्न हो गई और बोली -क्या तुम्हें याद रहा ,मैं तो लगभग भूल ही चुकी थी ,वह तेजी से सीढ़ियों से नीचे आ गई और दरवाजा खोला।चतुर ने जैसे ही अंदर प्रवेश किया ,तब वो बोली -अग्रवाल साहब ,तो अभी बाहर निकले हैं, थोड़ी देर पहले आते तो शायद ,उनसे भी मिलना हो जाता। 

कोई बात नहीं, उनसे बाद में मिल लेंगे। 

आप तो हमें भूल चुकी हैं ,लेकिन हम आपको नहीं भूले ! हम जिसे भी एक बार मिलते हैं, उसे कभी नहीं भूलते और आप तो भूलने वाली चीज हो ही नहीं कहते हुए ,चतुर उनके आलीशान सोफे पर बैठ गया। वह देख रहा था ,घर बहुत करीने से सजा हुआ था ,साफ सुथरा था ,इन्होंने मकान बताया था ,यह  तो आलीशान कोठी है यानी कि अग्रवाल साहब ,के पास बहुत पैसा है बहुत कमा रहे हैं यह सोचते हुए चतुर की आंखों में चमक आ गई ,इनके पास सुंदर बीवी भी है और आलीशान मकान भी ,यह कैसे हो सकता है ? तभी वह पानी लेकर आ गई पानी का गिलास हाथ में लेते हुए चतुर बोला -भाभी जी !आपका घर तो बड़ा ही आलीशान है। 

laxmi

मेरठ ज़िले में जन्मी ,मैं 'लक्ष्मी त्यागी ' [हिंदी साहित्य ]से स्नातकोत्तर 'करने के पश्चात ,'बी.एड 'की डिग्री प्राप्त करने के पश्चात 'गैर सरकारी संस्था 'में शिक्षण प्रारम्भ किया। गायन ,नृत्य ,चित्रकारी और लेखन में प्रारम्भ से ही रूचि रही। विवाह के एक वर्ष पश्चात नौकरी त्यागकर ,परिवार की ज़िम्मेदारियाँ संभाली। घर में ही नृत्य ,चित्रकारी ,क्राफ्ट इत्यादि कोर्सों के लिए'' शिक्षण संस्थान ''खोलकर शिक्षण प्रारम्भ किया। समय -समय पर लेखन कार्य भी चलता रहा।अट्ठारह वर्ष सिखाने के पश्चात ,लेखन कार्य में जुट गयी। समाज के प्रति ,रिश्तों के प्रति जब भी मन उद्वेलित हो उठता ,तब -तब कोई कहानी ,किसी लेख अथवा कविता का जन्म हुआ इन कहानियों में जीवन के ,रिश्तों के अनेक रंग देखने को मिलेंगे। आधुनिकता की दौड़ में किस तरह का बदलाव आ रहा है ?सही /गलत सोचने पर मजबूर करता है। सरल और स्पष्ट शब्दों में कुछ कहती हैं ,ये कहानियाँ।

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