'' मां की ममता '',का नहीं कोई मोल !
माँ चाहे,कैकेयी हो ,या फिर कौशल्या !
उचित -अनुचित कुछ समझ न आता ,
ममता को लाभ -हानि के पलड़े में न तोल।
एक ''प्रेम ''और ''भावों की प्रतिमूर्ति !
दूजी बेटे के मोह में ही ,कठोर बन बैठी ।
सहज ,सरल उसका मन ! बहती जाह्नवी सी ,
आंच आये यदि पुत्र पर, न देखे स्वयं का तन भी।
जितना कोमल उसका नाजुक तन ओ मन !
बात आये 'मातृभूमि' पर कठोर किया मन !
शिवाजी की माँ ने ''देश- प्रेम ''सिखलाया,
जिसके आगे अन्य कोई प्रेम काम न आया।
उसके आँचल में ही ,मुझे दीखता था जहाँ !
आँचल से बाहर आ, संसार नजर तब आया।
यदि ममता बहती निर्मल ,निश्छल गंगा सी है।
बन जाती कठोर ,सीने पर रख लेती प्रस्तर है।
''माँ की ममता'' बनाती नहीं है ,कमजोर !
ढ़ाल देती ,फौलाद में ,बना देती है, कटार !
सीने में बहता ,''ममता का श्रोत ''है।
कर्त्तव्यों के लिए ,बन जाती शिला सी कठोर है।
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