करुणा और निधि दोनों ही फोन पर बातें कर रही हैं, एक दूसरे से अपना दर्द बांट रहीं हैं। इसके साथ ही वह, इस बात पर भी ध्यान दे रही हैं, इस तरह रिश्ते टूटने में गलती किसकी है ? क्या हमारी परिस्थितियों की गलती है ? या फिर हमसे जो नए लोग जुड़े हैं, उनकी गलती है। उस परिवार में एक नई सदस्या ,भाभी और बहू के रूप में ही आती है, उसके आते ही, न जाने रिश्ते क्यों और कैसे बदल जाते हैं ? तब गहरी स्वांस लेते हुए निधि कहती है -गलती उनकी भी नहीं है, गलती हमारे अपने परिवार वालों की है , अपने भाई की है , जो उसकी बहन को तो सम्मान दे रहा है, और अपनी बहन का सम्मान भूल गया है।अपने रिश्तों का मान स्वयं ही नहीं करेगा, तो उसकी पत्नी ही क्यों करेगी ? जब उसके सामने बहन को उल्टा- सीधा बोलेगा , तो उसकी पत्नी के मन में, वह आदर का भाव कहां रहेगा ?
शायद ,आप ठीक कह रही हैं। उसकी बहन का अपमान करें तो भाई को पता चल जाए ,कि मान -सम्मान क्या होता है ?दो दिनों में उसे ठीक कर देगी , यह गलती तो अपने ही भाई की है। अब भाभी यदि रिश्तों को संभालने का प्रयास किया भी जाता है ,तो आप उसका हश्र देख ही चुकी हैं , जो थोड़ी बहुत बोलचाल थी, या कुछ शिकायतें थीं , वह भी समाप्त हो गईं। कम से कम एक उम्मीद तो थी, कि कभी तो रिश्ते सम्भलेंगे ,कभी तो उन्हें अपनी गलतियों का एहसास होगा। किंतु अब वह संभावना भी समाप्त हो गई इसीलिए जैसा चल रहा है ,चलने दो ! जिन्हें अपनी गलतियों का एहसास नहीं होता है, उन्हें होता ही नहीं है, समझाने पर भी कोई लाभ नहीं है। हम कम से कम गलतफहमी में तो जी लेते हैं, कि हमारा भी 'मायका' है।
''ताली दोनों हाथों से बजती है.'' रिश्ते तभी सुलझाये जा सकते हैं ,जब दूसरा सुलझाना चाहे ! यदि आप रिश्तों को सुलझाना चाहती हैं, तो अकेले उस डोर को नहीं सुलझा पाएंगीं। मैं तो बरसों से उस डोर को,, कभी प्यार से ,कभी अपनेपन से, समेटती आ रही हूं। बस समेट ही रही हूं , कभी उसे सुलझा नहीं पाई क्योंकि दूसरी तरफ भी तो साथ देने वाला होना चाहिए। जिनके कारण उलझन पैदा हुई है, वह कारण भी तो समाप्त होना चाहिए। ऐसी अनेक बातें हैं, जिन्हें मैंने अपने हृदय में छुपा कर रखा है। उनसे कभी-कभी दर्द रिसता है किंतु इतने वर्षों के पश्चात भी, मैं उस नाजुक सी डोर को, सहेज ही रही हूं, यह डोर नाजुक होने के साथ-साथ, इसमें न जाने ,कितने ''कांच के टुकड़े ''धंसे हुए हैं। हर बार लहू -लुहान हो जाती हूं। अब तो जैसे मैंने सोच ही लिया है , जैसे उन लोगों से कोई नाता ही नहीं रहा है, मेरा कोई है ही नहीं , यही सोचकर, जीवनकाट रही हूं। जितना मैं उन लोगों के विषय में सोचूंगी, उनके व्यवहार के विषय में सोचूंगी , उतना ही दर्द पाल लूंगी। वह दर्द मुझे ही, दर्द नहीं देता, परिवार पर भी उसका असर होता है। जब कभी भी उस दर्द का एहसास होता है ,अकेले में उससे मिलकर रोकर बाहर आ जाती हूँ।
मैं यह भी तो नहीं चाहती कि मुझे रोते हुए या परेशानी में मेरे बच्चे देखें , और जब उन्हें इस बात का एहसास हो कि हमारी मां की परेशानी क्या है या उनका दर्द क्या है ? तो उन्हें मेरे परिवार वालों से नफरत हो , मैं अपने बच्चों को धरोहर में, प्यार नहीं दे सकती तो नफरत भी नहीं देना चाहती। नफरत वाली बातें जिंदगी को खोखला करके रख देती हैं। यही रिश्ते तो हैं, जिनसे बच्चों में भी आत्मविश्वास जगता है। एक सुरक्षा की भावना का एहसास होता है। माता-पिता के अलावा भी ,उनके अनेक अन्य रिश्ते हैं इसलिए बच्चों को तो एहसास ही नहीं है, कि हमारे बीच ऐसा कुछ है। हां ,यह बात अवश्य है यदि मैं वहां जाती, और बच्चों को उनके व्यवहार का, अंदाजा भी होता , तो शायद वे रिश्ते, इस तरह से न दिखलाई देते। आजकल के बच्चे !बड़े ही तेज हैं ,शीघ्र ही बातों और व्यवहार को पकड़ते हैं। चलो ,भाभी !बहुत देर हो गई है ,अपने मन में धैर्य बनाकर रखिये ! जिनके परिवार वाले नहीं होते ,क्या वे जीते नहीं है ? बस अब यही मान लीजिये ! मैं तो सिर्फ समझा ही सकती हूं , समझना तो आपको है। मैं जानती हूं, इस सब में थोड़ा समय लगेगा, किंतु अपने परिवार में पुनः लौट कर आ जाइए ! और अपने बच्चों के साथ अपने पति के साथ प्रसन्नता पूर्वक समय बिताइए! यही हम लोगों के लिए सही रहेगा, जब वह लोग हमारे बगैर रह सकते हैं, तब हम ही क्यों परेशान हो रहे हैं ? हमें ही क्यों वे रिश्ते जोड़ने पड़ रहे हैं ?
मैं तुम्हारी बातों को समझ रही हूं, किंतु जहां तक मेरा विचार है -उन पर इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ेगा। वह तो शायद चाहते भी यही हैं।
भाभी वक्त की मार का पता नहीं चलता, कब, क्या ? समय दिखला दे! जब वह समय नहीं रहा तो यह भी नहीं रहेगा। मैं यह नहीं कह रही कि हम अपने भाइयों को बद्दुआ दें ! किंतु अपने बच्चों और अपने परिवार को भी तो परेशान नहीं कर सकते।
शायद ,तुम ठीक कह रही हो, अब मुझे अपने मायके से अलग, अपने परिवार के विषय में सोचना होगा , कहते हुए निधि फोन रख देती है।
फोन रखते ही ,करुणा अपनी सास के पास गयी और बोली -मम्मी जी !आज खाने में क्या खाएंगी ?
मतलब ,मैं कुछ समझी नहीं ,आश्चर्यचकित होते हुए वे बोलीं -अभी तो भोजन किये हुए ,दो घंटे ही हुए हैं।
उनकी बात सुनकर करुणा भी हंस दी और बोली - मैं रात्रि के खाने में पूछ रही हूँ। क्या खायेंगी ?
जो तुम लोग खाओगे ,वही खा लूंगी ,तब आप कुछ अच्छा सा सोच लीजिये ,करुणा के इस व्यवहार को देखकर ,वो सोच रहीं थीं ,आज इसे क्या हुआ ?
