कहते !सब ,मैं लालची नहीं,
यहां,लालच सभी को रहता है।
किसी को कम तो किसी को ज्यादा!
लाभ देखते सभी, झूठ से नहीं कोई फायदा !
लालच ! इक रबर सा ,खिंचता जाता।
किसी सर्प सा ,आगे,और बढ़ता जाता।
जोड़ो ,इसे धर्म ,आस्था और सच्चाई से,
सच्ची सोच का करो, लालच !लडो उसकी बुराई से।
बढ़ जाए , ग़र यह अजगर सा मुंह फाड़ता है।
खा ले यह है कुछ भी ग़र ,पेट नहीं भरता है।
भ्रष्टाचार ,रिश्वतखोरी , सभी इसके भाई हैं।
सही औ सच्चे इंसान की तो शामत आई है।
सर्प सा कुंडली मार सीने पर बैठ जाता है।
अच्छे खासे मानव को खूब नाच नाचता है।
लगता जैसे, इसने अभिनय की शिक्षा पाई है।
मोह और ईर्ष्या ने इसे जमकर घुट्टी पिलाई है।
कहने को तो ''लालच ''अकेला है ,
किन्तु परिवार इसका बड़ा हरजाई है।
मेरी रचना को पढ़ें , यही लालच मुझे सुहाता है ,
उसके सिवा मुझे ,कोई विचार नहीं आता है।
