करुणा की सहेली ,दिव्या उसे अपने विषय में बताती है, कि वह किस तरह से परिस्थितियों के कारण और लोगों के बदले जाने के कारण, उसने अपनी सोच में ,अपने रहन-सहन में ,बदलाव किया है। तब वह बताती है कि मैंने अपने ही परिवार के विरुद्ध ,कोर्ट में मुकदमा कर दिया है। ऐसे रिश्तों से क्या लाभ ?जो समय पर काम न आयें । कहते हैं -''माता-पिता ही, बेटी का भला सोचते हैं , विवाह होने के पश्चात भी, उसके सुख की कामना करते हैं ''किंतु अब यह, कलयुग के माता-पिता हैं। मैं भी तो उनकी बेटी हूं किंतु जैसे वह भाई के लिए सोचते हैं ,कभी मेरे लिए नहीं सोचा। उनकी सारी कमाई उनकी पेंशन ,उनकी संपत्ति का अधिकारी भाई हो जाता है। जो उनके बुढ़ापे में सेवा भी नहीं करता और बेटी बिना दहेज के ब्याहने के पश्चात, वह 'पराया धन 'हो जाती है, उससे कोई मतलब नहीं रह जाता है इसीलिए तो ये कानून बना है। अब कानून के माध्यम से मैं ,अपना अधिकार लूंगी।
अब यही देख लो !कैसा जमाना आ गया है ? अपने अधिकार के लिए ,अपने ही लोगों से लड़ना पड़ रहा है क्योंकि इन्हें तो, अपनी बेटी से कोई मतलब नहीं रह गया है। तो मैं ही क्यों ? त्यागी बनूँ। वो जमाने गए, जब बेटियां अपने अधिकार नहीं लेती थीं , तो उनके परिवार वाले भी ,उनके विषय में सोचते थे। सुख-दुख में उनके साथ खड़े होते थे। जब मेरे परिवार वालों को और मुझे परेशानी हुई,तब मेरे सुख-दुख से, उन्हें कोई मतलब नहीं रह गया था। समय ने मुझे मजबूत बनाया ,इंसानों के मुखौटे उतार उनके असली चेहरे दिखलाये । तब मैं भी, समय के साथ बदल गई और अब अपने लोगों से ही ,अपनी संपत्ति के अधिकार के लिए लड़ना पड़ रहा है।
इन चीजों से कोई लाभ नहीं है , दुश्मनी ही बन जाती है प्यार और अपनापन समाप्त हो जाता है करुणा ने उसे समझाना चाहा।
क्या प्यार और अपनेपन के हम ही भूखे हैं ,उन्हें नहीं चाहिए। ''ताली दोनों हाथों से बजती है ''एक हाथ से तो तू थप्पड़ ही मार सकती है या फिर किसी को सहारा देने के लिए हाथ बढ़ा सकती है। सहारा उसे दिया जाता है ,जिसे आवश्यकता हो। जबरदस्ती भी तू सहायता नहीं कर सकती। तू ,कौन सी दुनिया में जी रही है ? उसने मुस्कुराकर करुणा की तरफ देखा।
एक गहरी साँस लेते हुए ,दिव्या ,एक बेंच पर बैठ जाती है और करुणा से कहती है -प्यार और अपनापन रहा ही कहां है ? अगर यह दोनों चीजें होतीं तो जिस तरह से मैं परेशानी में जी रही थी। मेरे पिता, मेरे साथ खड़े होते मेरी माँ मेरे पास होती। अपने पति की तरफ देखते हुए बोली -इन्होंने तो दहेज भी नहीं माँगा था पापा की नियत भी देने की नहीं थी। हमें तो संपत्ति चाहिए ही नहीं थी किंतु ऐसे समय में तो हमारे साथ खड़े हो सकते थे ,हमारा साथ दे सकते थे। मैंने चार-पांच साल बड़ी परेशानियों में बिताए , जैसे अपने भूतकाल को देख रही हो , उसके पश्चात इनकी नौकरी लगी और हम फिर से ,अपनी जिंदगी की नई शुरुआत करने लगे। तभी मैंने अपनी उस पुरानी जिंदगी को त्याग दिया। ऐसी यादों को और ऐसी जिंदगी को रखने से क्या लाभ? जिसमें खुशियां ही ना हो ? यादें भी हों तो अच्छी ना हो. जिनसे दुख का एहसास होता हो।
तू ही सोच ! जैसा उन्होंने अजीत को पैदा किया, वैसे ही मैं पैदा हुई बल्कि मैं तो उससे बड़ी थी फिर मेरा अधिकार क्यों नहीं है ? संपत्ति का अधिकारी बेटा है, बेटियों को जैसा भी लड़का मिले , उसे धक्का दे दो ! क्या माता-पिता की बेटियों के प्रति यही जिम्मेदारी है ? अरे जब सरकार ने भी हमारा अधिकार पिता की संपत्ति में , कहा है। तब हम क्यों ना लें ? अपने घर जाती हूं ,तो मेरा घर मुझे मेरा नहीं लगता। मुझे इस तरह देखते हैं ,जैसे कोई दुश्मन आ गई है। वही भाई जिसको मैं बचपन में राखी बांधती थी , बड़े प्रेम से उसके लिए दुआएं करती थी। आज मैं चली जाऊं तो मुझे घूरता है। अरे ,मैंने उसका क्या लेकर खा लिया ? मैं भी अपना अधिकार नहीं लेती , यदि उन लोगों का व्यवहार अच्छा होता तो....... किंतु ऐसे रिश्तों से क्या लाभ ? जो मुसीबत और परेशानी में भी साथ न दें , साथ खड़े दिखलाई न दें।
तब मैंने सोच लिया ,भाड़ में जाए सब ,और ऐसे रिश्ते !अब मेरे मन में जो आएगा वही करूंगी। अपने तरीके से अपनी जिंदगी जिऊंगी और उन स्वार्थी घरवालों से अपना हिस्सा भी लेकर रहूंगी । तू जानती है ,जब अजीत का विवाह हुआ था,मैं कितनी प्रसन्न थी ?भूखी -प्यासी रह ,अपने बच्चों को घर में छोड़कर ,उसके और उसकी बहु के लिए खरीददारी करती थी। मेरे इकलौते भाई की शादी है ,खुश होना स्वाभाविक था किन्तु उन लोगों के मन में मैल था। अजीत के घर से जो भी सामान आया ,मुझसे छुपा लिया ,मुझे दिखाया तक नहीं ,बहनों के कितने नेग बनते हैं ?मेरी मां जलेबी की तरह सीधी हो गयी ,मुझसे कहा -मैं ये सब नेग नहीं जानती किन्तु मैंने अपनी ससुराल में सब देखा और सीखा भी क्योंकि मेरी तो चार ननदें थीं ,वहीं सब देखा ,लड़कियों को कैसे दिया जाता है ?
मैं तुझसे झूठ नहीं बोलूंगी, मेरे मन में भी आकांक्षाएं जाग उठी थीं। मेरा तो एकलौता भाई है , कैसे उससे अपने नेग़ लेने हैं अपनी मान - मनोबल करवानी है। मन ही मन सोच कर गुदगुदा जाती थी। आखिर बड़ी ननद हूं। मैंने सोच लिया था - बुकचा खुलाई [एक रस्म ] में अच्छी सी साड़ी लूंगी किंतु उन लोगों ने, मुझसे साड़ियां तक छुपा लीं ,कहते हुए उसकी आंखें नम हो आईं। बात साड़ी की नहीं है ,मेरे पास साड़ियों की कोई कमी नहीं ,बात है ,उस भावना की क़द्र करना उस रिश्ते को मान देना !अब जींस पहननी आरम्भ कर दी। अब साड़ियों की सिरदर्दी ही समाप्त !
'' सच में ही जिस पर बीतती है , वही अपनी उस परेशानी को महसूस कर सकता है।''करुणा उसके दर्द को महसूस कर पा रही थी। दिव्या ने कहना जारी रखा -भाभी ,के घर से बहुत कुछ आया। मेरे घर वालों ने तो मुझे, उसका आधा भी नहीं दिया था इसीलिए उनके मन में चोर था और मुझसे छुपाते थे, ताकि इसको पता चलेगा तो यह भी कुछ न कुछ मांग ही लेगी, या यह भी कह सकती है -तुमने मेरे विवाह में, ऐसा कुछ भी नहीं किया। करुणा ! तू उस दर्द को नहीं समझ सकती , मैं अपने ही घर में परायी हो गई थी। अपरिचितों की तरह घूम रही थी , कहते हुए उसने रुमाल से अपनी आंखें पोंछीं ।
दिव्या सच ही तो कह रही थी -वह कहानी की कहानी के रूप में, करुणा को अपनी व्यथा सुना तो रही थी, किंतु दिव्या पर जो बीती है, वह तो दिव्या ही महसूस कर सकती है। समझाने तो सब चले आते हैं, लेकिन यह दर्द क्यों उठ रहा है ? जो मन धुआं -धुआं हो गया है। आइये ! आगे बढ़ते हैं -काँच का रिश्ता !