करुणा अपनी ही ,परेशानियों में उलझी रहती थी। उसने अपनी सहेली प्रभा की कहानी सुनी। उसे बहुत दुख हुआ। उसे अनुभूति हुई ,जीवन में कुछ नहीं रखा। निधि भाभी की कहानी सुनकर ,उसे एहसास हुआ। दुनिया में कोई खुश नहीं है। सभी के साथ कुछ न कुछ समस्या उसकी पीठ पर लदी रहती है और कुछ समस्याओँ को हम जबरदस्ती ओट लेते हैं। कभी ज़िंदगी को हल्का करने का प्रयास ही नहीं किया। शायद ज़िंदगी ही हमसे जुड़कर,बोझ महसूस करती होगी। अपनी समस्याओं ,अपने स्वार्थ के सिवा इंसान को दिखता ही क्या है ? इस तरह सम्पूर्ण ज़िंदगी रोने से कोई लाभ नहीं , किसी के सामने रोना तो बिल्कुल ही व्यर्थ है। तब करुणा ने सोचा -अब जिंदगी को कुछ हल्का-फुल्का बनाया जाए, स्वयं भी हम खुश रहें और दूसरों को भी खुश रखें , यही बेहतर होगा और इसकी शुरुआत उसने आज से ही की। उसे इस बात की उम्मीद भी नहीं थी कि उसकी सास भी उसके साथ होंगी। लगता जैसे ,वह तो इसी बात की प्रतीक्षा कर रही थीं , कि कब करुणा कोई उचित कदम उठाए। आज संपूर्ण परिवार को, वह बाहर खाने पर ले जाने के लिए तैयार होती है, और सभी खुशी-खुशी तैयार भी हो जाते हैं।
तभी उसे उसकी सहेली दिव्या उसी होटल में ,अपने परिवार के साथ दिखती है, उसे देखकर वह आश्चर्यचकित रह जाती है ,अचानक उसके मुँह से निकला -यह कितनी बदल गई है ?
करुणा के इस तरह कहने पर किशोर जी ने पूछा -कौन ?
देखो !उधर दिव्या बैठी है ,किशोर ने दिव्या को एक बार ही देखा था ,जिसमें कि उसने समय के साथ अपने को बहुत बदल दिया था। वो नहीं पहचान पाया।
करुणा ने तो उसे पहचान लिया था। जब दिव्या की दृष्टि करुणा पर पड़ी , दिव्या भी,करुणा को पहचान गयी। दोनों ही ,भोजन समाप्त कर अपने परिवार से थोड़ी देर के लिए अलग हो गयीं। तुम लोग अपने लिए आइसक्रीम मंगवा लो ,मैं जरा करुणा से मिलकर आती हूँ।
तू तो बहुत बदल गयी ,मेरे पति तो तुझे पहचान ही नहीं पाए।
दिव्या भी अपना 'फलसफा' सुनाती है,और कहती है -'जिंदगी में कुछ नहीं रखा ,खाओ -पियो और मजे करो! मैं तो अक्सर ही, इस होटल में आती रहती हूँ। रही ,बात बदलने की ,''परिवर्तन ही जीवन का नियम है, प्रकृति बदल रही है ,लोग बदल रहे हैं, समाज बदल रहा है, रिश्ते बदल रहे हैं तो फिर मैं अपने को क्यों नहीं बदल सकती? अब तू ही देख !जब हम जवान थे ,अब उम्र बढ़ रही है, हंसते हुए वह बोली।
यह बात तो तूने सही कही, मैंने भी सोचा -दोनों -तीनों समय, परिवार के लिए करते रहो ! और परिवार के लोग भी खुश न रहे, बच्चों का वही भोजन करते-करते मन भर जाता है। अब खाना देख ,वे मुंह बनाते हैं और मैं जबर्दस्ती में भोजन बनाती हूं। हालांकि घर का भोजन सबसे बेहतर होता है ,किंतु क्या करें ?बच्चों को भी अपनी मौसी की तरह ही ,परिवर्तन चाहिए। एक जगह पड़े -पड़े तो पानी भी गंदा हो जाता है। इसलिए मैंने सोचा -आज थोड़ा घूम लिया जाए।
'जो भी सोचा, उचित ही सोचा,' किंतु बहुत देर से सोचा ,तू अपने लिए भी समय नहीं निकालती है , तू इंसान है या कुछ और है। मुझसे मिले तो तुझे बरसों हो गए, कभी मेरे घर आई शिकायत भरे लहज़े में दिव्या ने पूछा।
मुझे समय नहीं था, अपने परिवार को संभाल रही थी , तुझे समय था, तू भी तो आ सकती थी। हो सकता है तुझे देख कर ही, मैं बदल जाती, किंतु मैं इतनी तब भी नहीं बदलती। मेरी भी अपनी एक अलग सोच है, मेरे कुछ आदर्श हैं, मैं उन्हीं को लेकर चलती हूं।
न जाने ,कितने आदर्शवादी आये और चले गए ? तू अपने आदर्शों को लिए बैठी रह और उम्र यूं ही निकल जाएगी जीवन यूं ही चला जाएगा तभी इन आदर्शों का झंडा बनाकर टांग लेना।
पहले से तो , तेरी सोच भी बहुत बदल गई है।
अभी तो तुझे बताया - लोग बदल रहे हैं, रिश्ते बदल रहे हैं ,तो मैं क्यों नहीं बदल सकती ?समय और परिस्थिति लोगों को बदलने पर मजबूर कर देती हैं। मैंने तो सिर्फ बाहरी आवरण बदला है ,लोगों की तो प्रकृति बदल जाती है, सोच बदल जाती है।
''सोच बदली ,तभी तो तूने अपने आपको बदला।'' अच्छा बता ,और कैसा चल रहा है ? अंकल और आंटी कैसे हैं ? भाई कैसा है ? और ससुराल में सब....... इससे पहले वह वाक्य पूर्ण करती ,दिव्या बोल उठी।
ससुराल वाले तो सब यहीं पर हैं, हंसते हुए बोली। मायके में ,मम्मी नहीं रहीं , पापा से मेरा झगड़ा चल रहा है।
क्यों ?अब ऐसा क्या कर दिया ?अंकल जी ने
यह पूछ !कि क्या नहीं किया ? अब अपनों से ही , अपने अधिकार के लिए मुझे लड़ना पड़ रहा है।
क्या मतलब ?मैं कुछ समझी नहीं।
तू समझ भी नहीं सकती, क्योंकि तेरी सोच वहां तक जाती ही नहीं।
तू जब से मुझसे मिली है, तब से मुझे ताने सुनाये जा रही है। अब इसमें मेरी सोच कहां से आ गई ?
क्योंकि मैंने अपने घर वालों के खिलाफ मुकदमा कर दिया है
क्या कह रही है ?आश्चर्य से करुणा ने पूछा।
तभी तो कह रही थी, कि तेरी सोच वहां तक जाती ही नहीं।
किंतु तूने अंकल और अजीत के खिलाफ मुकदमा क्यों कर दिया ? ऐसा क्या हो गया था ?
उनसे अपना हिस्सा मांग रही हूं।
किस बात का ?
क्यों ?पापा की संपत्ति में मेरा अधिकार नहीं बनता है।
हां बनता तो है ,किंतु बेटियां वो अधिकार कहाँ लेती हैं, और घर वालों का भी देने का दिल नहीं करता है।
वही लड़ाई तो चल रही है।
तुझे तो पता है ,पापा! ने कैसे मेरी शादी की थी ? इन्होंने दहेज मांगा भी नहीं तो ,पापा ने कुछ दिया भी नहीं, मेरे गले में एक सोने की चेन थी और ब्रीफ़केस में कुछ कपड़े थे। बस खाने में खर्चा किया और विदा कर दिया। उसके पश्चात उन्होंने आज तक मुझे कुछ नहीं दिया। न ही, मेरे विषय में कुछ सोचा। बीच में यह बीमार हो गए थे [अपने पति के लिए बोली ] मैंने बड़ी परेशानी उठाई, पापा से मदद मांगी। पापा ने मदद करने से स्पष्ट रूप से इनकार कर दिया। उस समय तो मम्मी भी जिंदा थीं ।
मम्मी मदद करना चाहती थीं ,वे कहतीं - उसका पति, बीमार हो गया है और उसकी नौकरी भी छूट गई है किंतु पापा ने किसी भी तरह की सहायता देने से मना कर दिया कि अब यह दूसरे घर की हो गई है। हमारी कोई जिम्मेदारी नहीं बनती है क्योंकि वह तो अपने बेटे अजीत के लिए परेशान हो रहे थे। वह पढ़ता लिखता तो कुछ था नहीं, उसके व्यापार में पैसा लगा दिया। उसका विवाह करवाया उसके लिए मकान बनवाया। जो कमाया सब उसे दे दिया, तो ऐसे समय में मैं कहां जाती ? मुझे पता है, मैंने वह दिन कैसे काटे हैं किंतु तभी मैंने निर्णय ले लिया था। जब वह दिन नहीं रहे तो यह भी नहीं रहेंगे। यही सोच कर, मैंने पापा से उनकी संपत्ति में अपना हिस्सा मांगा अब माता-पिता विवाह कर देते हैं, तो विवाह में पैसा लगाते हैं जो दहेज के रूप में जाता है किन्तु जो 'दहेज 'ही न ले तो क्या हम बेटियों का उस घर में ,कोई अधिकार नहीं रह गया है ?
जब दो सहेलियां, या यूं कह लीजिए ,कि दो औरतें बात करने बैठती हैं, तो समय का पता ही नहीं चलता , अब करुणा और दिव्या की बातों से समय का पता ही नहीं चला, अब दिव्या, करुणा को क्या बताने वाली है ? उसके लिए मिलते हैं ,अगले भाग में-कांच का रिश्ता !