छुपा लेती ,अपने आप को 'छुपी तन्हाइयों 'में ,
भीड़ में भी,सिमट जाती तन्हाइयों के दायरे में।
अजब सा ये ''ख़ालीपन ''क्यों है ?
हर कोई तन्हा और वीरान क्यों है ?
अपने दुख दर्द समेट, तन्हाइयों से बांटती।
कभी-कभी उन तन्हाइयों में मुस्कुरा लेती।
क्यों ,यह बेचैनी ! क्या और कौन मैं ?
हृदय की उद्गार मंथन कर झटक,खोजती !
तन्हा जिंदगी! पूछती, क्या यही है ?जिंदगी !
जीनी है जिंदगी !तब तनहा क्यों यह जिंदगी !
बदलते भाव ,नवचेतना सी भरी तन में ,
फिर से उन तन्हाइयों से निकल आगे बढ़,
सतत प्रयासरत ,भटकती जिंदगी की तलाश में।
आज भी तनहाइयां समेट लेती हैं मुझे,अपने आप में।
अकेली नहीं, भरोसा दिलातीं ,' हूँ ,'हमेशा मैं तेरे साथ में।
छुपकर ही सही ,चली जाती हूँ ,मैं उसके आग़ोश में ,
थकी ,वीरान जिंदगी !में कोई नजर अपना आता नहीं ,
तन्हाईयाँ ही ले चल मिलवाती हैं ,मुझे अपने आप में।
प्यारी तन्हाईयाँ -
छुपी यह तन्हाइयां चुप -चुप सी क्यों है ?
तेरे -मेरे दरमियां , ये तन्हाईयां क्यों है ?
छुपी तन्हाईयाँ !हैं ,जो मिलवाती दिलों को ,
अब दिलों से , दिलों की इतनी दूरियां क्यों है ?
मोहब्बत में ,''छुपी तन्हाईयाँ ''ही मिलवाती हमें,
एक दूजे के क़रीब पहुंचने का रस्ता दिखलाती हमें।
आओ !एक -दूजे में खो जाएँ ,तन्हाइयों का लाभ उठायें।
मिलकर न जुदा हों ,इन तन्हाइयों में ऐसा कुछ कर जाएँ।

