जो पूर्ण न हो सकीं ,कुछ ऐसी लुभाती ख़्वाहिशें !
मोहक सी ,कभी कह न सके ,अनकही ख़्वाहिशें !
उम्र के हर पड़ाव पर उभर आतींं , नई ख्वाहिशे ं।
तमन्नाओं के हाट में,सस्ती नहीं अनकही ख़्वाहिशें !
पूर्ण नहीं होतीं कभी , किसी 'अर्थ 'के बाज़ार..... में ,
कहकर भी क्या हो जाता, किससे कहते?ये ख़्वाहिशें !
सागर सी हिचकौले खातीं , पुनः लौट -लौट आतीं।
कभी रुलातीं, कभी सतातीं ,'' अनकही ख्वाहिशें !
भटकते सभी ,पीछे अनकही ख़्वाहिशों के !
पूर्ण न हों ,दफ़्न हो जातीं ,बहुतेरी ख़्वाहिशें !
तले, समय की दरो -दीवारों के,तोड़ती दम नज़र आतीं।
राजा हो या रंक कभी न पूरी हो सकीं,उनकी ख़्वाहिशें !
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