Padhne ki kursi

आज का शीर्षक [पढ़ने की कुर्सी ]पढ़कर, मुझे बरसों पुराना, एक किस्सा स्मरण हो आया , जिसे याद करके आज भी ,मेरे चेहरे पर मुस्कान आ गई। बात उन दिनों की है ,जब मैंने सातवीं कक्षा, पास करके आठवीं में प्रवेश किया था। तब मेरी कक्षा में दो नई लड़कियाँ आईं थीं । वो स्कूल खुलने से थोड़ा देर से आई थीं ,उनके पापा का तबादला वहां हुआ था इसीलिए उनका दाखिला भी देर से हुआ। धीरे -धीरे हमारा परिचय हुआ और छूटे हुए गृहकार्य की कॉपी लेने के कारण ,हम लोगों की बातें होने लगीं। बाद में, पता चला कि उनके और मेरे पापा एक -दूसरे को जानते हैं और अच्छे दोस्त भी हैं। तब हम लोग एक -दूसरे के साथ अधिक समय व्यतीत करने लगे। उनके पापा सरकारी कर्मचारी थे।


 एक दिन उन्होंने मुझे अपने घर बुलाया। घर काफी दूर था। जब उनके घर पहुंची। वो एक सरकारी घर था। जिसकी ऊँचीं -ऊँची छतें थीं। पंखे भी बहुत पुराने यानि कि कुल मिलाकर जैसे सरकारी घर होते हैं ,किंतु मैंने पहली बार देखा था। उनके यहाँ उन्होंने भैंस भी पाली हुई थी। कुल मिलाकर गांव का माहौल नजर आया। 

आंटीजी ,आप गांव की तरह रहते हैं। 

हाँ बेटा ,हम गांव के लोग हैं ,गांव से जुड़े हैं ,गांव की तरह ही रहते हैं ,कहते हुए हंसने लगीँ ,मुझे बड़े ही हंसमुख स्वभाव की लगीं ,उन्होंने मुझे दूध पीने के लिए भी दिया और अपने कार्यों में व्यस्त हो गयीं। उनकी बेटियों ने मुझे अपना घर दिखाया जो काफी बड़ा था। मैने देखा उनकी बेटियां भी ,उनके साथ कार्यों में हाथ बंटाती थीं। मैं अपने गृहकार्य की कॉपी लेकर वापिस आ गयी क्योंकि उन्होंने इसी शर्त पर कॉपी देने के लिए कहा था ,पहले हमारे घर आएगी ,तभी कॉपी मिलेगी। 

कुछ दिनों के पश्चात ,एक बार मैंने भी उन्हें अपने घर बुलाया ,वो दोनों बहनें [मामा -बुआ की बेटियां ] हमउम्र थीं, एक ही कक्षा में थीं ,एक साथ रहतीं थीं। दोनों बहनें हमारे घर आईं। उस समय मेरी मम्मी ने मेरे पढ़ने के लिए ,मेज़ -कुर्सी बनवाई थी ,उस समय प्लास्टिक की कुर्सी नहीं चलती थीं। उन्होंने मेरा घर और मेरा रहन -सहन देखा और चुपचाप चली गयीं। अगले दिन स्कूल ही नहीं आईं ,उससे अगले दिन जब स्कूल आई मुझे बहुत प्रसन्नता हुई क्योंकि अब तक उन्हीं के संग ज्यादा उठना -बैठना था। मुझे देखकर मुस्कुराई किन्तु कारण कुछ और ही लग रहा था। 

मैंने उनसे उनके मुस्कुराने का कारण पूछा ,तो दोनों जोर -जोर से हंसने लगीं और हँसते हुए उन्होंने जो बताया ,उसे सुनकर ,पहले तो समझ नहीं आया किन्तु बाद में , मुझे भी हंसी आ गयी। 

उन्होंने बताया -जब हम तुम्हारे यहाँ से गए तो बुआ जी ने  हमें डाँटा -इतनी देर लगा दी ,घर में कितना काम पड़ा है ? 

उनकी बेटी कविता मुँह फुलाकर बैठ गयी और बोली -जब देखो ,हमें काम बताती रहती हैं ,उस दिन वो जो लड़की हमारे घर आई थी ,उसकी मम्मी उससे कुछ भी कार्य नहीं करवाती हैं और आप सारा दिन हमसे काम के लिए कहती रहती हो। इस बात के लिए उन्होने उसे अपने तरीक़े से जैसे भी समझाया हो ,वो तो उन्होंने नहीं बताया किन्तु उनकी बेटी ने दूसरा तर्क दिया ,उसकी मम्मी ने तो उसके पढ़ने के लिए मेज -कुर्सी भी ले रक्खी हैं और उसे मेज पर ही खाना देती हैं। 

बस इतनी सी बात !मैं तो अपनी बेटी को बर्तनों में खाना देती हूँ ,दोनों ही उनका चेहरा देखने लगीं क्योंकि मेरी ही तरह वो भी नहीं समझीं थीं। तब उन्होंने समझाया -''लक्ष्मी की मम्मी तो मेज गंदी करती हैं ,उसे मेज पर खाना देती हैं किन्तु मैं तो तुम्हें बर्तनों में खाना देती हूँ।'' उनकी बातों का आशय समझ मुझे भी बड़ी हंसी आई और वे भी हंसी। आज सोचती हूँ ,माँ ,किसी भी दशक की ही क्यों न हो ? माँ ,माँ ही होती है ,उसे पता होता है ,कि अपने बच्चे को किस तरह से समझाना है ? उनकी बातें, उनका जिंदगी जीने का तरीका , कैसे मुस्कुरा कर सामना करना है ?गंभीर विषय को कैसे हंसी -मज़ाक में ढालना है ,उनके इस व्यवहार से मैं प्रभावित हुए बिना न रह सकी। 

laxmi

मेरठ ज़िले में जन्मी ,मैं 'लक्ष्मी त्यागी ' [हिंदी साहित्य ]से स्नातकोत्तर 'करने के पश्चात ,'बी.एड 'की डिग्री प्राप्त करने के पश्चात 'गैर सरकारी संस्था 'में शिक्षण प्रारम्भ किया। गायन ,नृत्य ,चित्रकारी और लेखन में प्रारम्भ से ही रूचि रही। विवाह के एक वर्ष पश्चात नौकरी त्यागकर ,परिवार की ज़िम्मेदारियाँ संभाली। घर में ही नृत्य ,चित्रकारी ,क्राफ्ट इत्यादि कोर्सों के लिए'' शिक्षण संस्थान ''खोलकर शिक्षण प्रारम्भ किया। समय -समय पर लेखन कार्य भी चलता रहा।अट्ठारह वर्ष सिखाने के पश्चात ,लेखन कार्य में जुट गयी। समाज के प्रति ,रिश्तों के प्रति जब भी मन उद्वेलित हो उठता ,तब -तब कोई कहानी ,किसी लेख अथवा कविता का जन्म हुआ इन कहानियों में जीवन के ,रिश्तों के अनेक रंग देखने को मिलेंगे। आधुनिकता की दौड़ में किस तरह का बदलाव आ रहा है ?सही /गलत सोचने पर मजबूर करता है। सरल और स्पष्ट शब्दों में कुछ कहती हैं ,ये कहानियाँ।

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