भाई -बहन का यह रिश्ता कितना नाजुक होता है , कितना पवित्र होता है ? रेशमी धागों की तरह मुलायम ,कांच की चमक की तरह , बिल्कुल पारदर्शी ! आर -पार सब स्पष्ट नजर आता है। यह रक्त के रिश्ते हैं ? चाहकर भी, इन्हें कोई तोड़ नहीं सकता। अपने व्यवहार से अपनी सोच से झूठलाना तो चाहते हैं , किंतु निभाने वाले तो, बाहरी रिश्ते भी निभा जाते हैं और न निभाने वालों के लिए, तो अपने भी पराए से लगने लगते हैं। जितने करीबी हैं, उतना ही उनसे जुड़ाव अधिक है। किंतु जैसे ही ,वह 'कांच टूटता है', स्वयं तो टुकड़े-टुकड़े होकर बिखर ही जाता है किंतु जो भी उसके करीब जाता है, उसके नुकीले ,बारीक ,बड़े कांच के टुकड़े, दूसरे को भी आहत कर देते हैं।' रेशमी धागों 'से बंधा यह रिश्ता ! बहन -भाई का पवित्र रिश्ता ! यदि यह कांच की तरह बिखरता है तो उन रेशमी धागों को भी काटे बगैर नहीं रहता।
निधि के साथ भी तो, कुछ ऐसा ही हुआ था। जब यवन जी, अपनी नई नौकरी पर थे , तब यवन जी के साथ कार्य करने वाला ,एक व्यक्ति उनके घर आया। जब वो पहली बार निधि के घर आये ,यवन नहा रहे थे और निधि रसोईघर में ,एवं के लिए नाश्ता बना रही थी। आकर उसने घर का द्वार खटखटाया ,कोई है।
निधि रसोई से बाहर आई और उसने घर के बाहर खड़े व्यक्ति से उसका परिचय पूछा -जी ,आप कौन ?
जी मेरा नाम 'कृष्णपाल चड्ढा 'है ,मुझे यवन से मिलना है ,क्या वो यहीं रहता है ?
अभी निधि कुछ कह पाती ,उससे पहले ही ,यवन तौलिया लपेटते हुए ,स्नान घर से बाहर आया और निधि को ,किसी से बात करते हुए देखकर ,उसने भी दरवाज़े की तरफ देखा और कृष्णपाल जी ,को देखकर ,वहीँ से खड़े होकर,बोला -सर !आइये ,आइये !
निधि ने घूमकर देखा ,पीछे यवन खड़ा था ,उसे लगा ,अब यहाँ मेरा कोई काम नहीं ,सोचते हुए दरवाजे से हटकर ,रसोई में चली गयी।
यवन , कपड़े पहनते हुए बोला - सर !आज इधर कैसे आना हुआ ?
मैं इधर से ही निकल रहा था ,तभी स्मरण हुआ ,तुम भी तो यहीं कहीं रहते हो ,तब सोचा - तुम्हें भी साथ ले लेते हैं।
तब तक निधि ,दो थालियों में नाश्ता परोसकर ले आई थी। नहीं ,अब मैं चलता हूँ ,वहीँ नाश्ता कर लूंगा ,देरी हो रही है।
तुम भोजन कर सकते हो ,मैं प्रतीक्षा का लूंगा।
प्रतीक्षा की कोई आवश्यकता नहीं है ,ये भी आपका साथ निभाएंगे ,कहते हुए निधि ने दूसरी थाली कृष्णपाल की तरफ खिसका दी।
यवन मुस्कुराया और बोला -लीजिये ,सर !नाश्ता कीजिये।
नहीं ,मैं अपने घर से खाकर चला था। मुझे भूख नहीं ,कहकर कृष्णपाल ने थाली की तरफ देखा।
देख लीजिये ,सर !आलू के परांठे ,दही के साथ हैं ,जिसमें हरा पुदीना डला है ,निधि यवन के सर से मुस्कुराकर बोली।
तुम्हें कैसे मालूम ?मुझे आलू के परोंठे अच्छे लगते हैं ,आश्चर्य से ,चड्ढा जी ने निधि से पूछा।
अ लो !चड्ढा जी ,पंजाबियों के तो आलू दे परांठे फेमस सी। दही ,छाछ ,लस्सी तुस्सी नि खाओगे तो होर कोण खायेगा ?
निधि की बात सुनकर यवन और चड्ढा जी हंसने लगे,निधि से बोले -तुस्सी पंजाबी जानते हो। कैसे ?
न ,न सरदार जी,ये तो थोड़ी बहुत मैंने बहुत पहले अपनी सहेली निम्मो से सीखी थी। आज सोचा ,आप पर आजमा लूँ कहते हुए हंसने लगी। बातों ही बातों में एवं और चढ्ढा साहब जो खाना खाने से इंकार कर रहे थे उन्होंने भी खा लिया। निधि ने उन्हें बड़े प्रेम से भोजन करवाया।
भोजन करने के पश्चात ,चढ्ढा साहब बोले -मुस्कुराते हुए बोले ,तुमने मेरी बहन की याद दिला दी। ऐसी -ऐसी हरकतें करती थी कि रोने वाला भी हंस दे और न खाने वाला भी खाने लगे। कहते हुए ,अपनी थाली की तरफ देखकर मुस्कुराये। जीती रहो !उनके अच्छे से खातिरदारी कि वह अत्यंत प्रसन्न हुए और बोले -मेरी एक बहन थी ,वह भी मेरा इसी तरह ख्याल रखती थी। तुम्हारी तरह ही अच्छा खाना बनाती थी। तुमने भी बड़ा अच्छा खाना बनाया।
इससे पहले कि कुछ और कहते ,निधि बोल उठी -अब यहाँ भी ,आपका ख़्याल रखने के लिए एक बहन है ,कभी अपने को अकेला महसूस मत कीजियेगा। वैसे ,पत्नी और बच्चे वो तो साथ हैं।
एक बीमारी के चलते वह नहीं रही, कहकर उनकी आँखें नम हो आईं ,एक बेटा है ,वह हॉस्टल में पढ़ता है।
यानि आप अब अकेले रहते हैं ,अविश्वास से निधि ने पूछा।
नहीं ,मेरा नौकर सुरेश है ,वही खाना बनाता है ,घर की साफ -सफाई करता है।
तभी एवं बोला -चलिए सर !इसके साथ बैठे रहे तो ये सारा दिन आपको बातों में लगाए रहेगी,कहते हुए ,आगे बढ़ गया। यवन की बात सुनकर चढ्ढा जी मुस्कुरा दिए और यवन के पीछे चल दिए।
तुम्हारी पत्नी ,बहुत ही प्यारी है ,तुम्हारा कितना ख़्याल रखती है ?
हाँ वो तो है ,जब भड़कती है ,तब भी उसे मैं ही झेलता हूँ ,कहकर एवं हंसने लगा।
चड्ढा साहब ने भी साथ दिया और बोले -यही मीठी नोक -झोंक ही तो जीवन को मधुर बनाती है वरना अब मैं अकेला ,दफ्तर से जाता हूँ। सुनी दीवारें ,शांत घर देखता हूँ ,न ही कोई कहने वाला ,न ही कोई सुनने वाला। इन कुड़ियों से ही तो घर में रौनक आती है। पत्नी होती ,चार बातें करती ,पूछती। अब तो बिमार भी रहूं तो कोई पूछने वाला नहीं। उनका वह दर्द उनके चेहरे पर आ गया।
यही तो जीवन है ,सर !जब हमारे पास जो चीज होती है ,हम उसकी क़द्र नहीं करते किन्तु दूर जाने पर इसका एहसास होता है।
यह तुम मुझसे कह रहे हो ?चढ्ढा साहब ने गाड़ी चलाते हुए यवन की तरफ देखकर कहा।
नहीं ,सर !ऐसी कोई बात नहीं है, मैं उससे प्रेम भी करता हूं, और उसकी कदर भी करता हूं किंतु उसे जतलाता नहीं हूं , कहते हुए यवन ने अपनी सफाई दी।