वो भी क्या, रिश्तों का दौर था ?
जब सभी साथ रहते थे ,
न अपना न पराया था।
सुख -दुःख में ,एक दूजे के साथ ही नहीं ,
एक -दूसरे की हिम्मत और साहस भी थे।
गर्व था ,अपनों पर ,अपने रिश्तों पर ,
कमजोर लम्हों में भी ,साथ निभाते थे।
दूर रहने पर भी ,करीब नजर आते थे।
वो भी क्या ,रिश्तों का दौर था ?
हर रिश्ता एक -दूजे का आलंबन था।
सुख -दुःख सबके साझे थे।
आज भी रिश्तों का दौर है।
रिश्ते दिखलाई देते हैं , साथ खड़े नहीं ,
रिश्तों में न अब ,प्यार ,न विश्वास की डोर ,
नजर आती है ,तो क्षीण होती नजर आती है।
नाजुक डोर रेशम की, जो बंधती ही नहीं ,
मौन रह ,बाँधी भी किसी तरह........
एक झटके में ही,खुल जाती है।
कमजोर ,वित्तशाली डोर खुली नजर आती है।
पहले इंसान गरीब था , हर रिश्ता करीब था।
आज इंसान वित्तशाली है ,अहं का बोझ भारी है।

