क्रोध की अति ही ,''प्रतिशोध ''है।
बढ़ती जलन ही ,''प्रतिशोध '' है।
हर ले जो बुद्धि -संस्कार वही प्रतिशोध है।
पतन का मार्ग जो दिखलाये ''प्रतिशोध 'है।
क्या ?साथ ले जायेगा ,तू !
इस प्रतिशोध की अग्नि में जलकर ,
ख़ाली हाथ आया था ,ख़ाली हाथ ही जायेगा।
पतंगे को जलाने के लिए,
शमा को स्वयं भी, जलना पड़ता है।
'प्रतिशोध' की आग में जलता है, जो...
स्वयं भी ,उसे जलना पड़ता है।
रह -रहकर ,पल -पल ,छिन -छिन ,
उसे अग्नि में ,जलते रहना पड़ता है।
न जाने कब मौका मिले ?
बदले की तलाश में, जीना पड़ता है।
प्रतिदिन यह अग्न जलाती है, उसे।
कब सोया ?हरपल जागना पड़ता है।
ये अग्न ऐसी ,जैसे सुलगती है ,
धीरे -धीरे ,गीली लकड़ी ,
मशाल सी ,'प्रतिशोध 'की ज्वाला ,
धधकती है ,जलते सीनों में ,
न जाने कब ''प्रतिशोध '' पूर्ण हो ?
उससे पहले ही, सब अपना होम हो।
झांकता है , जब अतीत के घेरों में ,
यही ''प्रतिशोध ''बेमानी लगता हैं।
