स्पर्श, उसकी छुअन ,
शबनम सा एहसास !
प्रातः काल की ओस सी,
दिनकर की ,आभा में,
कांतियुक्त तन का एहसास !
नरम ,मुलायम पंख सा ,
उसके शबनमी अधर ,
उसकी ,वो मुस्कान !
उसका ,वो भोलापन !
बंद आंखों में ,
सिमटता जहां ,
छेड़ता है,
मन के तारों को ,
झिंझोड़ डालता है,
अंतर्मन को
उसके नर्म नाजुक करतल ,
पुनः वो मनभावन एहसास !
भर लेते हैं ,
मेरी उंगलियों को,
पुलकित करता ,वो एहसास ,
मेरे पुनर्जीवन का एहसास।
जी उठी , मैं उस स्पर्श से ,
यही ,सोचकर ,
मैं ''माँ ''हूँ।
मेरी पूर्णता का एहसास,
उसका स्पर्श ,दे गया ,
मुझे,'' मेरे होने का एहसास !
जी उठा , मेरा रोम रोम !
प्रफुल्लित मैं ,बढ़ चली ,
उस ''ममता ''की ओर !
