जब से होश संभाला है ,
खुद को, खुद से ही लड़ते पाया है।
कल्पनाओं में ही न जाने,
कितनी बार अपने आपको समझाया है।
न जाने कितनी बार ,
अपनी बात के लिए ,काल्पनिक शत्रु को लताड़ा है।
जिन रिश्तों से कुछ कह ना सके,
कल्पना में ही ,तर्क वितर्क किया और धिक्कारा है।
कभी -कभी खुद से ही हार गए,
कभी कल्पना में ही ,मन से विचारों से, किसी को हराया है।
मंथन यूँ ही ,चलता रहता,
उड़ें, खुले आकाश में ,कभी काल्पनिक पात्रों पर जमकर रौब चलाया है।
