Qabr ki chitthiyan [part 30]

आर्या अब कल्पनाओं में तैर रही थी—न हवा, न धरती, बस शब्दों का एक विशाल सागर था ,हर शब्द किसी आवाज़ की तरह था—वे आवाजें कभी उसकी माँ की, कभी दीनदयाल की, कभी अर्जुन की महसूस होतीं थीं ,तब फिर उसने देखा—शब्दों से बना एक चेहरा जो धीरे-धीरे आकार लेने लगा,वो चेहरा किसी इंसान का नहीं था ,वो कहानी उसकी खुद की थी—'एक जीवंत सत्ता' !उसने आर्या से कहा,-“अब जब लेखक मिट चुके हैं, तो मैं बोल सकती हूँ।”

आर्या सिहर गई ,जिज्ञासावश उसने पूछा -“तू कौन है ?”


“मैं वो हूँ, जो हर शब्द के बीच की खामोशी में रहती है,मैं वो हूँ जो कहानी को सच बनाती है पर कोई मुझे नहीं लिखता ,मैं हूँ — ''कहानी की आत्मा।”

“अब तू क्या चाहती है ?” आर्या ने पूछा।

आवाज़ ने उत्तर दिया -“संतुलन ! हर कहानी में दो पक्ष होते हैं—लेखक और पात्र किन्तु जब लेखक मर जाते हैं,तो पात्र अमर हो जाते हैं, पर तूने ऐसा नहीं होने दिया, तूने कहानी को अनंत बना दिया।अब मुझे तेरे माध्यम से संतुलन वापस लाना होगा।”

आर्या हाँफते हुए बोली -“मतलब तू मुझे मिटा देना चाहती है?”

“नहीं, तुझे संपूर्ण बनाना चाहती हूँ ,ताकि तू खुद समझ सके कि कहानी तब तक अधूरी है तो क्यों ? जब तक लेखक और पात्र एक न हो जाएँ,यानि लेखक और पात्रों में समरसता न आ जाये ”सुख हो या दुःख दोनों ही महसूस न होने लगें,तब तक कहानी अधूरी रहती है।  

आर्या के चारों ओर शब्दों की एक आँधी सी उठी,हर अक्षर उसके शरीर से होकर गुजरने लगा,वो चीख पड़ी, “नहीं… मुझे इंसान ही बने रहना है!”

“अब तू इंसान नहीं… अब तू एक कहानी है।” आर्या के शरीर से दो आकृतियाँ निकलीं—एक आर्या जैसी, पर पूरी तरह सफेद,दूसरी काली, धुँधली, आँखों में स्याही भरी हुई,अब आर्या का अस्तित्व दो भागों में विभाजित हो चुका था 

सफेद ने कहा,-“मैं वो आर्या हूँ, जो सच में जिंदा रहना चाहती है।”

काली मुस्कराई,-“और मैं वो जो लिखना चाहती है।”

कहानी की आत्मा बोली -“अब दोनों में से एक को मिटना होगा ,वरना कहानी फट जाएगी।”

आर्या की दोनों प्रतिमाओं में अब संघर्ष  आरम्भ हुआ, सफेद आर्या ,अब अपने जीवन की हर याद को पकड़ने की कोशिश कर रही थी—माँ की हँसी, विजय का चेहरा, बचपन की तस्वीरें।
काली आर्या हर शब्द में ताक़त महसूस कर रही थी—वो जानती थी, कि लिखते ही, सब सच बन सकता है।
काली आर्या ने चिल्लाकर कहा -“तू अपनी उन यादों में जीना चाहती है, पर मैं उन्हें लिखकर अमर बनाऊँगी!”

और उसने हवा में कुछ शब्दों को लिखा—“सफेद आर्या मिट गई ,पर जैसे ही स्याही ने आकार लिया,वो पलटकर उसी पर गिर गई ,काली आर्या दर्द से चिल्लाई—“ये क्या हुआ?”

तभी आवाज़ आई -“कहानी के शब्द किसी और के नहीं होते ,जिसे तू मिटाने की कोशिश करेगी, वही तुझे मिटा देगा।”

दोनों आर्याओं ने एक-दूसरे को देखा—और धीरे-धीरे, दोनों एक-दूसरे में समा गईं।

अब वहाँ एक नई आर्या खड़ी थी  —उसकी आँखें आधी सफेद, आधी काली।आवाज़ दो सुरों में बोल रही थी — मानो दो अस्तित्व एक साथ बोल रहे हों। जब आर्या ने अपनी आँखें खोलीं — वो वापस कमरे में थी।

मेज पर अभी भी वही रजिस्टर  पड़ा हुआ था,पर इस बार उसका कवर आधा काला, आधा सफेद था।

काव्या की पुरानी फोटो दीवार पर थी — लेकिन अब उस फोटो में दो लोग थे —
काव्या और… आर्या खुद,
उसने डरते हुए फोटो छुआ —फोटो में काव्या की आँखें धीरे से झपकीं।“अब समझी, बेटी? हम दोनों कभी अलग थे ही नहीं।”

आर्या पीछे हट गई।“मतलब… मैं भी माँ में ही हूँ?”“और माँ ही मैं,अस्तित्व दो किन्तु एक !

मैं वो कहानी थी जो तू पूरी करने वाली थी,लेकिन अब हम एक हैं। अब कहानी खुद को पूरा करेगी।”

उसी क्षण पूरे शहर में अजीब घटनाएँ शुरू हो गईं,लोगों की पुरानी डायरी, किताबें, अख़बार — सबमें अक्षर अपने आप बदलने लगे,कुछ शब्द चमकने लगे, कुछ मिटने लगे।

राघव, जो अब भी ज़िंदा था, टीवी पर खबर देख रहा था —“शहर में अजीब घटना: किताबें खुद-ब-खुद बदल रही हैं, पुराने शब्द गायब।”

राघव बुदबुदाया,-“काव्या की बेटी…यह तूने क्या किया?”

आर्या अब मेज़ के समीप बैठी हुई थी,रजिस्टर उसके सामने था।वो मुस्कराई,“तो अब मैं सिर्फ़ पात्र नहीं… अब मैं' सृजन' हूँ।”

उसने लिखा—“आज से दुनिया की हर कहानी में मेरा नाम होगा।”तभी तमाम किताबों  के पन्नों से धुआँ निकलने लगा ,और बाहर हर अख़बार की 'हेडलाइन बदल' गई:“कहानी – लेखन -''आर्या सान्याल”

हर किताब में, हर उपन्यास में वही नाम,दुनिया के लेखक पागल हो रहे थे —क्योंकि उनकी रचनाओं पर अब एक अजनबी का नाम छपने लगा था, वे घबरा उठे थे,हमारी कहानियां कौन चुरा रहा है ?और अपने नाम से डाल रहा है।  

अचानक उस कमरे का दरवाज़ा खुला जिसमें आर्या थी ,मेज़ पर रखा एक पुराना पन्ना जलने लगा।उस पर लिखा था -''हर कहानी वहीं खत्म होती है ,जहाँ से उसकी शुरुआत होती है।'' 

तभी दीनदयाल की आवाज़ गूँजी —“तूने सोचा होगा मैं खत्म हो गया, असली लेखक वो नहीं जो लिखता है,असली लेखक वो है जिसके पास अंत होता है।”

आर्या ने कलम उठाई,-“तो फिर तू मेरा अंत लिख दे !”

दीनदयाल की आवाज़ में मुस्कराहट थी ,“मैंने पहले ही लिख दिया था, आर्या… तू मेरा अंत है।”और जैसे ही उसने ये कहा - रजिस्टर के सारे पन्ने अपने आप पलटने लगे।हर पन्ने पर वही शब्द उभर आए —लेखक -''दीनदयाल और आर्या सान्याल !''

बाहर आसमान लाल रंग का हो गया था। हवा में स्याही की गंध थी।आर्या ने एक आख़िरी वाक्य लिखा—“कहानी खत्म नहीं होती,बस अगली कलम का इंतज़ार करती है।”रजिस्टर  ने खुद से बंद होकर,अपने को ताले में बदल लिया और उसके ऊपर उभरा एक नया शीर्षक —“कब्र से चिट्ठियाँ – खंड ३ [रचनात्मक कहानियां ]”

आर्या ने धीमे से मुस्कराकर कहा -“अब शायद ये दुनिया मेरी नहीं, कहानी की है।

आर्या अब एक व्यक्ति नहीं ,उसे जो भी दीखता है ,महसूस होता है ,उसकी प्रतिक्रिया बन चुकी है ,वो जो कुछ भी लिखती है ,वो हकीक़त बन जाती है। 

वो सभी कहानियां अब'' आर्या सान्याल ''के नाम हो गयी थीं ,और उसका नाम आते ही वे कहानियां जीवित हो गयीं थीं ,जो अपूर्ण रह गयीं थीं, पूर्ण होना चाहती थीं और अपने लेखक को ढूंढ़ रहीं थीं ताकि वो उन्हें शीघ्र ही पूर्ण कर सकें। क्या आर्या फिर से कोई मुसीबत में पड़ जाएगी ?या उसका समाधान निकलता है तो कैसे ?आइये !आगे बढ़ते हैं।  

laxmi

मेरठ ज़िले में जन्मी ,मैं 'लक्ष्मी त्यागी ' [हिंदी साहित्य ]से स्नातकोत्तर 'करने के पश्चात ,'बी.एड 'की डिग्री प्राप्त करने के पश्चात 'गैर सरकारी संस्था 'में शिक्षण प्रारम्भ किया। गायन ,नृत्य ,चित्रकारी और लेखन में प्रारम्भ से ही रूचि रही। विवाह के एक वर्ष पश्चात नौकरी त्यागकर ,परिवार की ज़िम्मेदारियाँ संभाली। घर में ही नृत्य ,चित्रकारी ,क्राफ्ट इत्यादि कोर्सों के लिए'' शिक्षण संस्थान ''खोलकर शिक्षण प्रारम्भ किया। समय -समय पर लेखन कार्य भी चलता रहा।अट्ठारह वर्ष सिखाने के पश्चात ,लेखन कार्य में जुट गयी। समाज के प्रति ,रिश्तों के प्रति जब भी मन उद्वेलित हो उठता ,तब -तब कोई कहानी ,किसी लेख अथवा कविता का जन्म हुआ इन कहानियों में जीवन के ,रिश्तों के अनेक रंग देखने को मिलेंगे। आधुनिकता की दौड़ में किस तरह का बदलाव आ रहा है ?सही /गलत सोचने पर मजबूर करता है। सरल और स्पष्ट शब्दों में कुछ कहती हैं ,ये कहानियाँ।

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