Jail 2[part 26]

बरखा अपने परिवार को कुछ भी बताना नहीं चाहती थी , किंतु चिंतित होने के कारण ,उसके मन में अनेक प्रश्न उठ रहे थे , इसी कारण भावेश में ,उसने अपनी मां से सभी बातें बता दीं। उसकी बातें सुनकर उसकी मां ने उससे एक ही प्रश्न पूछा -क्या उसने तुझे छुआ है ? 

अब ये बात बरखा ,अपने मुँह से कैसे कहे ?वो भी तो उसके प्यार में पड़ी है ,उसकी अकेले की गलती नहीं है। तभी उसे अपनी वो बात स्मरण हो आई ,जब अर्द्धरात्रि को वो ,भरी बरसात में ,उसके घर पहुंच गयी। जाये भी क्यों न..... ?उसे पाने की ललक ,उसके सपनो से जो जुडी थी ,उसे विशाल ही एक माध्यम नजर आ रहा था। जिसके माध्यम से ,वो एक इज्ज़तदार ,और सम्मानित जिंदगी जी सकती है। ऐसी ज़िंदगी ,जिसके सपने ,विशाल ही ,पूरे कर सकता है। अपनी इज्जत गंवाकर भी ,,यदि वो उसी के माध्यम से, उससे कहीं अधिक सम्मान प्राप्त कर सकती है ,तब इसमें दोष ही क्या है ? किसी न किसी का तो मुझे होना ही था ,तब विशाल में ही क्या बुराई है ?हालाँकि शुरुआत में मेरा स्वार्थ था किन्तु अब उसके साथ ही मुझे ,अपनी ज़िंदगी नजर आती है। 


क्या सोच रही है ?तू! बताती क्यों नहीं ?क्या तुझे उसने छुआ है ,उसकी चुप्पी को देखकर ,कुछ गलत होने की आशंका से वो काँप उठी। 

अपनी मां के इस तरह भड़कने पर , बरखा थोड़ी डर गई , और बोली - यह तुम क्या कह रही हो ? ऐसा कुछ भी नहीं है। 

बरखा की झुकी नजरों की तरफ देखते हुए ,उसकी मां ने उसके चेहरे पर नजरें गड़ाते हुए, अविश्वास से उससे बार -बार पूछा-क्या तू सही कह रही है ?

हां ,हां मैं ,क्यों झूठ बोलने लगी ?बरखा झल्ला उठी। 

उसकी हरकतें देखकर ,विश्वास तो नहीं हो रहा था किंतु उसके कहने पर विश्वास करना  पड़ा। अपनी बेटी को समझाते हुए बोली -ये मर्द ,किसी  के सगे नहीं होते ,जब तक किसी की चाहत, उन्हें न मिल जाये ,तब तक उसके पीछे दौडते रहते हैं ,और जब तक जवानी का खुमार नहीं उतरता ,तब तक साथ निभाने का वायदा करते हैं। जो चीज इन्हें  आसानी से मिल जाये उसकी कदर भी नहीं करते ,जिस तरह इन्हें  प्यार का बुखार चढ़ता है ,उसी तरह उतर भी जाता है ,इन  बड़े घर के लड़कों को किसी की इज्जत ,उसके मान -सम्मान से ,कोई वास्ता नहीं होता। जब इनका मन भर जाता है ,तब ''दूध में से मक्खी की तरह निकाल फेंकते हैं।  

बरखा माँ की बातों को ध्यानपूर्वक सुन रही थी, किन्तु जब माँ ने अमीर लड़कों के विषय में कुछ बोला ,तब बरखा बोली - नहीं माँ ,ऐसा नहीं है ,बड़े घर के लड़के ही बिगड़े होते हैं , हमारी इस बस्ती में बहुत से लड़के बिगड़े हुए हैं , आती-जाती लड़कियों को छेड़ते हैं। अमीर या गरीब होने से क्या फर्क पड़ता है ? यह तो इंसान की सोच और नियत , उसे सबसे अलग करती है। मंगलू का लड़का है , काम-धाम कुछ करता नहीं है ,चौराहे पर खड़ा रहता है। न ही पढ़ता है ,न ही ,रहने की तमीज है , सारा दिन ,आवारागर्दी करता रहता है। न ही अपने घरवालों की कोई मदद करता है। वो क्या बिगड़ा हुआ नहीं है ?वो कहाँ का रईस है ?जब सिर  पर पड़ेगी ,तब रिक्शा चला लेगा या कोई रेहड़ी पर साग -सब्जी बेचने लगेगा। 

ये तुझसे किसने कहा ?वो तो चूड़ी की दुकान पर बैठकर ,काम सीख रहा है ,फिर अपना कोई काम धंधा कर लेगा। तेरा तो उस कोठी में जाकर, दिमाग खराब हो गया है ,थोड़ा सा पढ़ -लिख क्या गयी ?किसी के  काम को काम ही नहीं  मानती ,तू अपने को क्या समझे बैठी है ?तू भी तो उस घर में ,नौकरानी ही तो है ,माँ ने बरखा के अहम पर चोट की।

माँ की ये बात , बरखा को बहुत बुरी लगी और अपनी माँ के शब्दों से, आहत हुए बिना न रह सकी। माँ के शब्दों ,ने बरखा को जैसे धरातल पर ला खड़ा किया ,वो भी सोचने पर  मजबूर हो गयी ,असल में देखा जाये तो माँ भी ,अपनी जगह सही है किन्तु इन शब्दों से उसे लग रहा था ,जैसे किसी ने उसे नंगा कर दिया हो। वास्तविकता को नकारा नहीं जा सकता ,कल यदि विशाल मेरा साथ नहीं देता है ,तब मैं ,कहीं की नहीं रहूंगी। मेरी सोच ,मेरे विचार तभी तक सार्थक होते नजर आते हैं ,जब तक मैं उससे या वो मुझसे जुड़ा है। उसका ह्रदय भयाक्रांत हो उठा। एकदम शांत होकर ,अपनी खाट पर लेट गयी  और सोचने लगी अबकि बार विशाल आएगा ,तब उससे ,अपने विवाह की बात करूंगी। पता नहीं क्यों ?उसके दादाजी भी ,मुझसे आजकल  नाराज चल रहे हैं ,मेरे काम में कोई न कोई नुक़्स निकालते रहते हैं।

 आजकल स्थिति कुछ ठीक नहीं चल रही।ज़िंदगी का कुछ भरोसा नहीं ,कब क्या बात हो जाये ?और मैं तो ,तीन -चार वर्षों की प्रतीक्षा में विशाल के भरोसे ही तो हूँ। कल को उसका मन बदल गया ,तो मैं कहाँ जाऊँगी ? ये पल बरखा के लिए असहनीय हो रहे थे। ज़िंदगी बरखा को अपना जलवा दिखा रही थी ,यदि ज़िंदगी इतनी आसान होती ,तो बड़े -बड़े जो इसके आगे घुटने नहीं टेकते ,ज़िंदगी ने सभी को ,कुछ न कुछ अपना जलवा अवश्य ही दिखलाया है। किसी को ऊंचाई से गिराया है ,किसी के' मान' को ठेस पहुंचाई है। आज बरखा की भी यही हालत है ,वो सोच रही है -मैंने क्यों बड़े सपने देखे ?जो मेरी पहुंच से बहुत दूर हैं ,इससे तो मैं ,अनपढ़ ही ठीक थी ,न कुछ करने और सोचने की क्षमता होती ,अपनी जड़ों से जुडी रहती ,न ही इतने ऊँचे सपने देखती। उफ़.... बड़ा बनना भी ,आसान नहीं , सौ पचड़े हैं। सोचते -सोचते न जाने कब वो सोइ ?


प्रातः काल माँ की आवाज से ,उसकी नींद खुली ,जो कह रही थी ,देख सूरज कितना चढ़ आया है ?आज सोती ही रहेगी ,या अपने काम पर भी जाएगी या नहीं। 

आज मन नहीं है ,उदासी भरे स्वर में ,वो बोली। 

क्यों ,क्या हुआ ?माँ ने उसका माथा छूकर देखा और बोली -बुखार तो नहीं है ,अब त्यौहार भी आने वाले हैं ,तेरी मालकिन तेरे काम से खुश होकर ,कुछ न कुछ अच्छा कपड़ा -लत्ता भी दे देगी ,वरना तेरी छुट्टियों का बहाना बना ,तेरे पैसे भी काट लेगी।नहीं जाना है ,तो मत जा.... किन्तु पैर जमीन पर ही रखना। कहकर वो अपने घरेलू कार्यों में जुट गयी ,वो समझ रही थी -बरखा के लिए सच्चाई को समझ पाना बड़ा ही कठिन हो रहा है।  

 

laxmi

मेरठ ज़िले में जन्मी ,मैं 'लक्ष्मी त्यागी ' [हिंदी साहित्य ]से स्नातकोत्तर 'करने के पश्चात ,'बी.एड 'की डिग्री प्राप्त करने के पश्चात 'गैर सरकारी संस्था 'में शिक्षण प्रारम्भ किया। गायन ,नृत्य ,चित्रकारी और लेखन में प्रारम्भ से ही रूचि रही। विवाह के एक वर्ष पश्चात नौकरी त्यागकर ,परिवार की ज़िम्मेदारियाँ संभाली। घर में ही नृत्य ,चित्रकारी ,क्राफ्ट इत्यादि कोर्सों के लिए'' शिक्षण संस्थान ''खोलकर शिक्षण प्रारम्भ किया। समय -समय पर लेखन कार्य भी चलता रहा।अट्ठारह वर्ष सिखाने के पश्चात ,लेखन कार्य में जुट गयी। समाज के प्रति ,रिश्तों के प्रति जब भी मन उद्वेलित हो उठता ,तब -तब कोई कहानी ,किसी लेख अथवा कविता का जन्म हुआ इन कहानियों में जीवन के ,रिश्तों के अनेक रंग देखने को मिलेंगे। आधुनिकता की दौड़ में किस तरह का बदलाव आ रहा है ?सही /गलत सोचने पर मजबूर करता है। सरल और स्पष्ट शब्दों में कुछ कहती हैं ,ये कहानियाँ।

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