कब -कब नहीं लड़ना पड़ता ,अपने अस्तित्व के लिए !
लड़ते रहे ,ताउम्र ! हर रिश्ते की इक पहचान के लिए !
बेटी बनी , तब उस घर में ढूंढा ,
मैं इस घर की ज़िम्मेदारी,भाइयों की बहन ,मैं कहाँ हूँ ?
बहु बनी , उस घर में तलाशती थी ,अस्तित्व अपना !
मैं इस घर की लक्ष्मी ,नौकरानी , इस घर में कहाँ हूँ ?
पत्नी बन ,तलाशती थी ,जीवनसाथी का साथ ,
ढूंढती थी अस्तित्व अपना उसके दिल में ,मैं कहाँ हूँ ?
माँ बन ढूंढती रही, अस्तित्व अपना ,
मैं बच्चों की जरूरत में हूँ ,अधिकार या सम्मान में हूँ।
समाज में रह ,ढूंढती थी ,अपने आपको ,
औपचारिकताओं में हूँ ,दोस्ती में,मेरा अस्तित्व कहाँ है ?
खोखली मुस्कुराहटों में हूँ ,उत्तरदायित्वों में या प्रेम हूँ।
अस्तित्व की तलाश में भटकती रही ,यहां -वहां ,
रिश्तो में हूँ ,जीवन में हूँ ,ढूंढती रही ,न जाने कहाँ -कहाँ ?
मैं बेटी -बहु ,पत्नी ,माँ हूँ ,या फिर एक भावुक मन ,
या रिश्तों की गठरी को ढोता ,एक व्यथित तन !
पूछती है ,प्रश्न ? सावन में हूँ ,पतझड़ में हूँ , मैं कहाँ हूँ ?
