कुछ समझ नहीं आ रहा, कौन सही है कौन गलत ? सत्तो ने जो कुछ बताया ,उसके आधार पर ,तो बरखा गुनहगार नजर आती है किन्तु अब जो बरखा बता रही है ,बड़ा ही परेशान कर देने वाला है। उसकी बातों से तो लगता नहीं है ,कि वो गुनहगार है ,आज तक इसकी कभी कोई बात मैंने सुनी ही नहीं ,ये तो अपने में ही व्यस्त रहती है। कभी किसी से कुछ नहीं कहती ,न ही अपने दिल का हाल, आज तक किसी को बताया। आज जब अमृताजी पूछने बैठीं ,तो उसके दिल का दर्द उसकी जुबाँ पर आ ही गया। उसने जो बताया ,उसे सुनकर वो अचम्भित रह गयीं ,अपने कानों पर विश्वास ही नहीं हुआ
बरखा बता रही थी ,वो एक गरीब घर की लड़की है ,एक -एक रोटी के लिए हम तरसे हैं ,हमारे लिए तो ये ''जेल ''ही सही है ,कम से कम कच्ची -पक्की जैसी भी रोटी मिल रहीं हैं ,मिल तो रहीं हैं। बाहर तो रोटी के लिए तरसते थे। जब से होश संभाला है ,एक झोंपड़ी में ,हम चार बहन -भाई और माता -पिता ,माँ कचरा बीनती थी ,पिता रिक्शा चलाता था ,हमारे लिए तो वही हमारा संसार था ,मैं बड़ी थी ,छोटे बहन -भाई का ख्याल रखती थी।
तुम कितनी बड़ी थीं ,जो अपने छोटे बहन -भाई का भी ख्याल रख लेतीं थीं।
सबसे छोटी एक बरस की ,उससे बड़ा भाई ,तीन या साढ़े तीन का होगा ,और उससे बड़ा छह बरस का था और सबसे बड़ी मैं ,नौ बरस की थी।
तुम नौ साल की इतने छोटे बच्चे संभालती थीं , अमृता आश्चर्य से बोली। तुम तो स्वयं बच्ची थीं , तुम्हारे तो खेलने खाने की उम्र थी।
जिम्मेदारियां, उम्र से पहले ही बड़ा कर देती हैं , मैं जानती थी, मेरी मां अकेली है ,चार बच्चे देखना और फिर बाहर जाकर , कचरा बीनना , आकर खाना भी बनाती थी , ऐसे में मैं मां का सहारा ना बनती तो और क्या करती ?
उन  लोगों ने तुम्हें कभी स्कूल में नहीं डाला, तुम्हें तो पढ़ना चाहिए था, पढ़ने की उम्र थी , पढ़ कर भी क्या हो जाता ?मैडम ! पहली बात तो यह , कॉपी किताब के लिए तो पैसा चाहिए था ,इसके लिए भी पैसा चाहिए था ड्रेस भी ली जाती, उसके लिए भी पैसा चाहिए था , यदि मैं स्कूल पढ़ने जाती तो ,उन छोटे- छोटे बच्चों को कौन संभालता ? पढ़कर भी तो क्या हो जाता ? उसके बाद आदमी कमाने के लिए ही तो निकलता है ? मेरी अनपढ़ माँ भी तो कमा रही थी। 
यदि वह पढ़ी-लिखी होती , तब उसे कचरा बिनना नहीं पड़ता , किसी अच्छी जगह पर तो लग रही होती अमृता ने जवाब दिया। 
देखा है, मैडम जी ! मैंने बहुत देखा है। पढ़े -लिखों को भी देखा है , वो व्यंग्य से बोली। जो छोटा काम तो कर नहीं सकते ,क्योंकि पढ़ लिख गए हैं और अच्छा काम उन्हें मिलता नहीं और बेरोजगारी का रोना रोते रहते हैं ,उससे तो बेहतर मेरी अनपढ़ माँ ही है कि कोई भी काम करके अपना और अपने बच्चों का पेट तो भर रही थी। मैंने ,न जाने कितने पढ़े-लिखे ,बेरोजगारों को घूमते देखा है ? उनमें उच्च शिक्षा का अहंकार और भर जाता है, जिसके कारण वह कहीं के नहीं रह पाते हैं। नौकरी मिल गई तो जिंदगी ,संवर जाती है , नहीं तो पढ़े-लिखे ,मां-बाप पर बोझ बन जाते हैं और किस्मत का रोना रोते रहते हैं। मेरी नजर में तो उनकी ,हमसे ज्यादा दयनीय स्थिति हो जाती है।
शायद ,तुम सही कह रही हो ,कुछ सोचते हुए अमृता जी ने उसकी बातों का समर्थन किया।
अच्छा यह तो बताओ ! कि तुम इस जेल में कैसे पहुंचीं ? किसके खून के इल्जाम में यहां पर आई ? जब मेरे छोटे भाई -बहन थोड़े बड़े हो गए , तब एक समाज सेविका आई थी ,जिसने हमें पढ़ाने के लिए हमारे मां-बाप से कहा था। सरकारी स्कूल की सुविधाएं भी बताई थीं , अब मेरे माता-पिता को लगा , जब सुबह बच्चे स्कूल चले जाएंगे , कुछ देर तो वहां रहेंगे,तब हम निश्चिंत होकर ,अपना कार्य कर सकते हैं। उनका स्कूल में पढ़ाने से ज्यादा उद्देश्य , यही था कि वह कुछ समय के लिए या कुछ घंटों के लिए तो ,अपने बच्चों से निश्चिंत हो सकते हैं।
यह उन्होंने सही निर्णय लिया , अमृता जी खुश होते हुए बोलीं।
हम पढ़ने जाते , छोटे बहन भाई को बैठा दिया जाता था क्योंकि अभी वह कुछ काम नहीं कर सकते थे किंतु मुझसे और मेरे साथ के और बच्चों से पहले , उस पाठशाला की सफाई कराई जाती। दो कमरों का हमारा स्कूल था , बरसात में छत टपकती थी। हम टाट पट्टी पर बैठते थे , धीरे-धीरे हमने पढ़ना- लिखना सीखा। मैं बड़ी थी ,जल्दी सीख रही थी , मेरी भी इच्छा थी ,कि मैं जल्दी-जल्दी क्लास पास करके, आगे बढूं किंतु वहां तो , अध्यापकों के कार्य ही समाप्त नहीं होते। स्कूल में आकर आराम से बैठ जाते थे , और हमें कुछ ना कुछ कार्य बताते रहते थे। एक महिला अध्यापिका थीं जो मुझसे खुश थीं , मुझसे नहीं ,मेरी पढ़ाई से , उन्होंने ही मेरी एक- दो क्लास छुड़वा दी ताकि मैं शीघ्र आगे बढ़ सकूं , मेरी पढ़ने में मदद करती , किंतु वह भी लालची थीं । मुझे छोटी कक्षा दे देती थीं , छोटे बच्चों को मैं पढ़ाती थी। पंद्रह बरस की होते-होते मैं आठवीं कक्षा में आ गयी। आठवीं क्लास पास करते ही , मेरी मां ने मुझे स्कूल भेजने से इनकार कर दिया। क्योंकि उस स्कूल का अध्यापक , मुझे गलत इशारे करने लगा था। अब मैं, इतनी बच्ची भी नहीं रही थी , किंतु कभी-कभी साइंस की क्लास के लिए मुझे ,अलग से बुलाता और ना जाने मुझे क्या -क्या समझाता रहता। किसी ना किसी बहाने से , मुझे स्पर्श करने का प्रयत्न करता। एक दिन मैंने, अपनी मां से इस बात का जिक्र किया तब माँ ने सोचा ,यदि हम स्कूल के अध्यापक की शिकायत करते हैं , तो इसके छोटे बहन -भाई नहीं पढ़ पाएंगे।
इसी कारण ,मेरी पढ़ाई आठवीं तक ही रह गई। मैं अपने घर की साफ सफाई करती ,अपने घर का काम निपटाती , देखने में भी अच्छी लगती थी , कद -काठी अच्छी थी। तब मैंने अपने पड़ोस में , प्रतिदिन एक महिला को कहीं जाते देखा , ए.... आंटी ! तुम रोज कहां जाती हो ? और कहां से यह अच्छे कपड़े लाती हो ? उसने बताया कि वह एक कोठी में , घर की साफ सफाई और बर्तन का कार्य करती है , जिससे उसे महीने में आठ सौ रुपया  मिल जाता है। सच में ! यह सुनते ही मेरी आंखों में चमक आ गई शाम को जब मां घर आई  तब मैंने उनसे बताया -कि मैं भी कोठी  में कार्य करूंगी। मेरा उद्देश्य था ,वहां काम करके घरवालों की सहायता करना और अपनी आगे की पढ़ाई जारी रखना। 
 

