प्रिय डायरी ,
अब तुझसे मैं क्या बतलाऊँ ? बचपन में मुझे सजने -सँवरने का बहुत ही शौक था। ना -ना सोलह श्रृंगार नहीं ,तब तो बच्ची थी, न मैं , किन्तु बाल अच्छे से संवारना ,हाथों में मेंहंदी लगाने का भी मुझे बहुत शौक था।सुंदर कपड़े पहनना , पिन से बालों में फूल लगाना , कभी मोतियों से अपने को सजा लेती ,कभी फूलों से ,जितना भी मुझे अच्छा लगता ,मैं अपने को संवारती। आज अपने 'श्रृंगार ' पर एक कविता तुम्हें बताती हूँ -
बचपन से ही मैं ,
सजती -सँवरती थी।
मुझे अच्छा लगता था।
अपने लिए ,सजना -संवरना ,
मुझे अपने लिए ,सजने का शौक था।
ये कोई मेरी ,विवशता नहीं ,
इसमें मेरी अपनी प्रसन्नता थी।
मुझे अपने लिए ,सजना था।
मुझे अपने लिए जीना था।
विवाह पश्चात ,'सौलह श्रृंगार ''कर ,
जीती थी मैं ,
अपनों के लिए।
मैं आज भी ,सजती -संवरती हूँ ,
श्रृंगार करती हूँ ,
मेरे मन की सादगी ,
अपनों का सामीप्य ,
अपनों का प्रेम ,
उनकी ख़ुशी ही ,
अब मेरा 'श्रृंगार 'है।
मेरी अपनी पहचान ,
मेरे अपनों का' प्यार ' है।
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