रत्ना और चिराग़ ,घर से भाग जाते हैं ,क्योंकि दोनों एक -दूसरे से प्रेम करते हैं। रत्ना को लगता है- घर में कोई भी उसके प्रेम को नहीं समझ पाएगा ,इधर चिराग़ के परिवार में भी किसी को नहीं पता कि उनके डॉक्टर बेटे के जीवन में, क्या हलचल मची है ?चिराग़ जोश में और प्रेम के वशी भूत होकर ये कार्य कर तो लेता है किन्तु अब सोच रहा है कि जाएं कहाँ ?अब तो उसका काम भी बंद हो गया।वो बीच रास्ते में आराम करते हुए ,अपनी और रत्ना की मुलाक़ात के विषय में सोच रहा है। अब आगे -
तब वे मुझे एक कमरे में ले गयीं ,वहां चारपाई पर कोई मुँह ढ़के लेटा था। वे बोलीं -रत्ना.... रत्ना....
उसने लगभग कराहते हुए ,अपना मुँह उस चादर से बाहर निकाला ,वो एक सत्रह -अट्ठारह बरस की कमज़ोर सी लड़की थी ,जो अपनी माँ की तरह ही गोरी थी किन्तु तेज बुखार के कारण उसका मुँह लाल हो रहा था। होंठ भी पपड़ा गए थे। मैंने अपना बक्सा खोला और उसमें से सामान निकालकर बुखार नापा। एक सौ चार ,बहुत तेज है। इन्हें ये बुखार कब से है ? कल रात को ही हुआ ,घर में एक बुखार की दवाई रखी थी ,वो दी थी ,जब नहीं उतरा ,तो तब डॉक्टर को बुलाने लता को भेजा ,उसकी मम्मी ने विस्तार से बताया। मैंने रत्ना की मम्मी से कहा -आप ठंडा पानी और सूती कपड़ा ले आइये। तब तक मैंने अन्य बातों की औपचारिकता पूर्ण की और दवाई भी दी। उसकी मम्मी से ठंडे पानी की पट्टियाँ उसके माथे पर रखने को कहा। उन लोगों को सांत्वना दिया ,-ये कल तक ठीक हो जायेगी। रत्ना ने नजरभर मुझे देखा और आँखें बंद कर लीं।वास्तव में उसकी तबियत ज़्यादा ही खराब थी। जब मैं चलने के लिए उठा, तो उनका चेहरा ,थोड़ा परेशान दिखा ,वो बोलीं -डॉक्टर साहब !आपकी फ़ीस !वो पहले से ही जानती थीं - कि मेरा शुल्क अन्य डॉक्टरों की तुलना में अधिक है इसीलिए उनके चेहरे पर चिंता की लक़ीरें साफ दिख रही थीं। मैंने कहा -अभी इसकी कोई आवश्यकता नहीं ,जब ये ठीक हो जाये ,तब दे दीजियेगा।
मेरी बातों से उनकी चिंता थोड़ी कम हुई और साहस भी बढ़ा -बोलीं -ज्यादा तो नहीं दे पाऊँगी ,उधार भी नहीं रखना ,आप कुछ पैसे तो ले ही लीजिये। उन्होंने मेरे हाथ में बीस रूपये रख दिए। बोलीं -डॉक्टर दीक्षित 'की भी इतनी ही फ़ीस है। बीस रूपये देखकर ,मुझे लग रहा था ,इससे तो न ही दें ,तभी अच्छा है किन्तु ये शुल्क वापिस करके, मैं उनका अपमान भी नहीं करना चाहता था। किन्तु मुझे भी लग रहा था ,जैसे ये 'बीस 'रूपये मेरी खिल्ली उड़ा रहे हों। मेरा मन न जाने क्यों अंदर से मुझे कचोट रहा था ,न ही मेरे मनमाफ़िक शुल्क ही मिला ,न ही छोड़ सका। वे अपनी इच्छा से शुल्क देकर ,जैसे अपने सीने पर किसी भी तरह का बोझ उतार चुकीं या यूँ कहो ,एहसान भी नहीं रखा। मैं चुपचाप वो बीस रूपये हाथ में ही दबाये ,अपने क्लिनिक पर आ गया। अज़ीब सी क़शमक़श थी ,मैंने वे पैसे मेज़ की दराज़ में डाल दिए।
मैं अपने अन्य मरीजों को देखने लगा ,पता नहीं क्यों ?आज मन में एक ख़ालीपन सा रहा। अगले दिन थोड़ा ठीक था और मैं अपनी व्यस्तता के चलते ,भूल भी गया। तीन दिन पश्चात लता, मुझे फिर से दिखी ,वो मेरे ही पास आई थी ,बोली -डॉक्टर साहब !दीदी ने ' धन्यवाद 'कहा है। उसको देखकर दो दिन पहले की घटना मेरे आँखों में घूम गयी। किन्तु अब वो दुखभरा एहसास नहीं था। मैंने बड़े प्यार से लता को कुर्सी पर बिठाया और पूछा -अब कैसी हैं ?तुम्हारी दीदी। एकदम बढ़िया , कहते हुए वो कुर्सी पर आराम से पैर हिलाने लगी। जैसे उसकी और मेरी काफी जान -पहचान हो। मैंने उसकी तरफ देखा ,पूछा - आपके पापा क्या करते है ?मेरे पापा नहीं हैं, उसने बताया। मुझे सुनकर अफ़सोस हुआ ,तभी उस घर की ऐसी हालत है। बातों ही बातों में उसने मुझे बहुत सी बातें बता दीं। मैंने उसके लिए चॉकलेट और समोसा भी मंगवा दिए। जिन्हें वहीं खाकर गयी ,कह रही थी -दीदी नाराज़ होगी , कहेगी -'ऐसे किसी से भी सामान नहीं लेते। 'पता नहीं ,मुझे क्या सूझा -मैंने उससे चलते समय कहा -जब आपकी दीदी अपना' धन्यवाद'स्वयं देने आएगी ,तभी लूंगा। ठीक है ,कहकर वो चली गयी।
इस बात को तीन -चार दिन हो गए होंगे ,शाम को दुकान बंद करने का समय हो रहा था ,तभी कोई परछाई सी मेरी दुकान के आस -पास मंडराती दिखी। मैंने नंदू को पुकारा -देख तो जरा बाहर कौन है ?नंदू दो लोगों को अंदर ले आया ,उनमें एक लता और दूसरी...... उसकी दीदी !क्या बला की सुंदर लगा रही थी ? लाल सूट ,सफेद रंग पर ग़ुलाबी होंठ ,मैं तो देखता गया, जो होंठ मैंने पपड़ाये देखे थे आज ग़ुलाब की पंखुड़ी की तरह ,दमक रहे थे। मुझे लता ने हिलाया बोली -दीदी ,' धन्यवाद' करने आई है। ओह !मैंने मुस्कुराकर स्मरण करते हुए कहा। वो बोली -मेरा नाम रत्ना है। मैं मन ही मन सोच रहा था ,असलियत में भी तुम रत्न ही हो ,तुम्हारी माँ ने तुम्हारा नाम सोच -विचारकर ही रखा होगा। मेरा ध्यान उसकी बातों में नहीं था ,वो मुझे इस तरह देखकर, बोली -आप मेरी बात सुन रहे हैं न। हाँ.... हाँ -हाँ मैंने कहा -सुन रहा हूँ। वो आगे बोली -मैं जानती हूँ ,आपकी फ़ीस बहुत ज्यादा है फिर भी आप ऐसे समय में हमारे घर आये और मेरा इलाज़ किया ,आपका बहुत -बहुत धन्यवाद !
जी ,ये आप क्या बातें कर रही हैं ? मेरा तो फर्ज़ है ,मेरा तो पेशा ही दूसरों की सेवा करना है ,उसके सामने ऐसे वाक्य बोलकर शायद मैं ,उसकी नजरों में महान बनना चाहता था।
रत्ना भी उसे एक क्षण देखना चाहती थी ,जब वो ज्वर से तप रही थी ,तभी एक नज़र उसे देखा था। गोरा -चिट्टा ,घुँघराली लटें ,उस समय वो कोई देवदूत नजर आ रहा था। अपने उसी देवदूत को पुनः देखना चाहती थी। इसीलिए तो लता को धन्यवाद के बहाने भेजा था। अच्छा अब मैं चलती हूँ ,उसने फिर से उसे नजरभरकर देखा। वो भी तो ऐसे ही ख्यालों में खोया था ,जैसे सपना टूटा ,बोला -जी..... के आगे कोई शब्द ही नहीं मिला। उसके जाने के पश्चात ,नंदू बोला -ये तो बड़ी खबसूरत है। हाँ ,नंदू तुम दुकान बंद करके आ जाना ,मैं चलता हूँ। उसकी आँखों में जो छवि बसी थी ,उसे अन्य कार्यों से उसे ओझल नहीं होने देना चाहता था। उसकी बार -बार इच्छा हो रही थी- कि रत्ना फिर से आये ,फिर से उसे नजरभरकर देख ले। अगले दिन सुबह उसके घर के आगे से निकला ,उसकी मम्मी बाहर ही खड़ी दिख गयीं। अभिवादन के पश्चात बोला - अब आपकी बेटी कैसी है ?ठीक है ,आपने दवाई बहुत अच्छी दी ,अगले दिन ही खड़ी हो गयी ,शुल्क ज्यादा लेते हैं, तो काम भी तो अच्छा करते हैं। ऐसे समय में हमारे लिए तो भगवान बन गए ,कहकर उन्होंने हाथ जोड़े। बस - बस इसकी आवश्यकता नहीं ,कहकर वो आगे बढ़ गया।
जिस उद्देश्य से वो उनके घर की तरफ गया था ,वो तो पूर्ण ही नहीं हुआ। लगभग दो घंटे पश्चात रत्ना अपनी बहन के साथ ,उधर से जाती दिखी ,आज उसके साथ लता नहीं दूसरी बहन थी। फिर भी दिल के हाथों मजबूर होकर ,नंदू से कहकर उन्हें अंदर बुलवा लिया। अनजान की तरह मैंने पूछा -अब आपका ज्वर कैसा है ?अब ठीक हूँ, उसका जबाब था। अब क्या कहूँ ?सोच रहा था ,तभी वो बोली -आप कहाँ के रहने वाले हैं ?चलो , बातों का सिलसिला तो आरम्भ हुआ।मैं दिल्ली से हूँ ,मेरे मम्मी -पापा तो दिल्ली में रहते हैं ,मैंने जबाब दिया। मैं ये बात सोचकर अचम्भित और प्रसन्न हुआ कि वो भी मेरे विषय में जानना चाहती है। अब आप कौन सी कक्षा में हैं ?जबाब उसकी बहन ने दिया -दीदी ,बाहरवीं में पहले नंबर पर आई।अब आगे क्या करने का इरादा है ? मेरे इस प्रश्न से वो उदास हो गयी ,मैंने बात बदलते हुए कहा -तुम इतनी होशियार हो ,तुम तो घर पर भी बच्चों को पढ़ा सकती हो। मेरी बात सुनकर उसकी बहन बोली -दीदी तो अब भी बच्चों को पढाती है।
मैनें उसकी आँखों में झांकते हुए कहा -क्या मैं भी आ सकता हूँ ?वो झेंप गयी और बोली -चलो सपना ,देर हो रही है। तीन दिन बाद फिर से लता आई और बोली -दीदी के पेट में दर्द है ,आपको बुलाया है। पहले तो मैंने सोचा -इसकी मम्मी तो दीक्षित को बुलाती है ,फिर आज मुझे क्यों ?मैंने पूछा -क्या आज डॉक्टर दीक्षित नहीं आये ?नहीं ,दीदी ने आपको ही बुलाया है ,कहकर वो आगे बढ़ चली। मैं भी बिना प्रश्न किये ,उसके पीछे हो लिया। चाहता तो ,मैं उसे वहीं दवाई देकर भेज सकता था किन्तु मैं भी जैसे किसी संम्मोहन में बंधा जा रहा था। घर में उसी तरह अँधेरा ,उसी कमरे में रत्ना थी, किन्तु आज उसकी मम्मी कहीं नहीं दिख रही थीं।