रत्ना मोटरसाइकिल पर चिराग़ के पीछे ,बैठी दूर ,न जाने किस अनजानी डगर ,पर निकल पड़ी थी ?उसे स्वयं ही नहीं पता ,वो सही कर रही है या ग़लत। बस अपने दिल के हाथों मजबूर होकर ,उसने ये रास्ता अपना लिया। करती भी क्या ?या तो परिवार या फिर प्यार ,उन दोनों में से उसे एक ही चुनना था। इतना साहस भी नहीं, कि वहीं रहकर सच्चाई को स्वीकार कर ,दूसरों को भी उससे रूबरू कराती। कराके भी क्या हो जाता ,वो ही रोना -धोना ,जब से पिता इस दुनिया से गए हैं ,माँ ही अकेले सब संभाल रही है। हमारी शिक्षा ,हमारी परवरिश ,सब कुछ तो माँ ही देखती है। सहारे के लिए ,मामा को ले आई थी ,उन्हें भी कोई काम नहीं था। ख़ाली बैठा मामा करता भी क्या ?पढ़ाई में भी मन नही था ,नानी भी बिना नाना के जैसे तैसे जीवन बसर कर रही थी। किन्तु बेटी ,चाहे स्वयं में सक्षम न हो किन्तु माँ की चिंता सताती। भाई आवारा घूमता उसे अपने साथ ले आई और मकान के कोने में एक कमरा खाली था ,जिसकी बाहर की तरफ दीवार तुड़वाकर ,उसे घरेलू सामानों की दुकान खुलवा दी। मम्मी ने अपनी सारी जमा -पूँजी भाई की दुकान में लगा दी। सोचा, ठीक से कमाने लग जायेगा तो आमदनी भी बढ़ेगी और तीन -तीन स्यानी होती बेटियों पर बाप तो नहीं, मामा का साया तो रहेगा। किसी की हिम्मत इधर नज़र उठाने की नहीं होगी। माँ सारा दिन कपड़ों की सिलाई में लगी रहती कि किसी तरह घर के दिन बहाड़े [उन्नति ]हो।
तभी एकाएक बड़े जोर से मोटरसाइकिल रुकी और उस झटके से उसके विचारों को विराम लग गया।चिराग ने गाड़ी रोककर रत्ना से कहा -अब हम तुम्हारे शहर से बाहर आ गए हैं हम इतनी सुबह निकले थे ,जब तक किसी को पता चलेगा ,तब तक हम कहीं और पहुंच चुके होंगे। अपराधबोध में खड़ी रत्ना ने' हाँ' में गर्दन हिलाई ,उसके चेहरे की उदासी देखकर चिराग़ बोला -तुम्हें मुझ पर विश्वास तो है न। रत्ना ने फिर से गर्दन हिलाकर' हाँ 'में उत्तर दिया ,उसी विश्वास के सहारे तो अपना सब कुछ छोड़कर आ गयी। फिर क्यों उदास हो ? चिराग ने पूछा।
मैं मम्मी के लिए सोच रही हूँ ,मुझे घर में न पाकर ,उनके दिल पर क्या बीतेगी ?न जाने क्या कर बैठें ?कहते हुए ,उसकी आँखों में अश्रु आ गए। उसके आँसू पोंछ्ता हुआ ,चिराग़ बोला -कुछ नहीं होगा ,वो बहुत ही हिम्मती महिला हैं ,जैसे अब तक संभाला है ,आगे भी संभाल लेंगी।तुम्हारे विवाह की चिंता तो मैंने उनकी दूर कर ही दी। चलो !पास ही नल है ,पानी पी लेते हैं ,इतनी सुबह तो खाने को भी कुछ नहीं मिलेगा। कहीं चाय की दुकान खुली मिलेगी तो चाय बिस्किट से नाश्ता हो जायेगा कहकर वो हंसा। लग रहा था ,जैसे वो अपने हालात पर हँस रहा हो।
रत्ना उसकी तरफ देखते हुए बोली -मैंने तुम्हें भी परेशान कर दिया न ,तुम्हें अपना सारा काम छोड़कर ,चोरों की तरह भागना पड़ा। रत्ना का चेहरा देखकर बोला -भई प्यार किया है ,उसका कुछ तो मूल्य चुकाना बनता है ,प्यार में तो लोग न जाने क्या -क्या कर बैठे ?मैं तो बस तुम्हें भगाकर लाया हूँ। वैसे अब जल्दी ही यहां से निकलते हैं ,हो सकता है ,कोई इधर से निकले और हमें पहचान लेगा तो बड़ी मुसीबत हो जाएगी, कहकर उसने मोटरसाइकिल फिर से उस सूनी सड़क पर दौड़ानी आरम्भ कर दी। एकाएक रत्ना ने उसके कंधे पर हाथ मारा और बोली -वैसे हम भागकर कहाँ जा रहे हैं ?या यूँ ही सड़कों पर दौड़ते रहेंगे। उन्हें चले लगभग दो घंटे हो गए ,इस बीच उन्होंने चाय पी और नहर के शीतल जल में पैर डुबाकर थोड़ी देर बैठे रहे। जब वो दोनों चाय पी रहे थे ,तब वहां बैठे लोग, उन्हें शक्क़ी नज़रों से देख रहे थे। शक्क होना भी स्वाभाविक था ,एक कुंवारी लड़की, किसी लड़के के साथ, इतनी सुबह कहाँ जा रही है ? अनुभवी लोग तो हाव -भाव से ही ताड़ लेते हैं कि कहीं कुछ गड़बड़ है। एक ने तो पूछ भी लिया था- किस गाँव के हो ?कहाँ जा रहे हो ?तब रत्ना थोड़ा घबराई भी थी किन्तु मैंने इशारे से मना कर दिया ,ऐसे ही कोई अँग्रेज़ी में ज़बाब देकर आगे बढ़ गए।
इन बातों ने ,चिराग को यह सोचने पर मजबूर कर दिया -इस तरह कब तक भागेंगे ?
अपने घर ऐसे ही चला गया ,तब पता नहीं ,मम्मी -पापा क्या करें ?वो नहर के उस जल में पैर डालकर आँखें मूँदे ,देर तक सोचता रहा -''रत्ना के घर से उसकी छोटी बहन ,उसे बुलाने आई थी -डॉक्टर साहब जल्दी कीजिये ,मेरी बहन को बहुत तेज़ ज्वर हुआ है। मम्मी ने आपको तुरंत बुलाया है। डॉक्टर -आप मरीज़ को यहीं ले आइये ,मैं यहीं पर देखता हूँ और भी तो मरीज़ है यहाँ ,अभी उन्हें भी देखना है। नहीं ,डॉक्टर साहब! मम्मी ने कहा है -दीदी नही आ सकती , तबियत ज़्यादा बिगड़ी हुई है। घर जाने की मेरा दोगुना शुल्क लगेगा। वो अनजान बच्ची ,अपने घर के हालातों से अनजान बोली -ठीक है। तब चिराग़ बोला -तुम थोड़ी देर यहीं रुको ,मैं अभी ये मरीज़ देखकर तुम्हारे संग ही चलता हूँ। इस शहर का सबसे महंगा डॉक्टर है -ड़ॉ o चिराग़। रत्ना की बहन को तो कुछ भी नहीं पता था ,माँ ने कहा था -डॉक्टर को बुला लाओ !और वो चिराग़ के क्लीनिक पर पहुँच गयी ऊपर से घर जाने का दूना शुल्क। चिराग़ को भी क्या मतलब ?उसे तो अपने शुल्क से लेना है ,वो भी दूना तो वो क्यों छोड़ेगा ?तीन -चार मरीजों को देखकर वो नंदू के हवाले अपनी दुकान छोड़कर ,लता के संग हो लिया। लता ये ही नाम बताया था उसने। सही मायनों में देखा जाये, तो लता ने ही उन दोनों को मिलवाया था।
जब वो उनके घर के नज़दीक पहुँचा -उसने देखा ,लाल सिल्लियों का एक चबूतरा जैसे बना था। घर के एक कोने में परचून की दुकान थी। चबूतरा जैसे अभी किसी ने धोया था ,गीला हो रहा था। उससे पानी फैलकर निचे सड़क तक आ गया था। जिससे वहां पड़ी, मिटटी ने कीचड़ जैसा रूप ले लिया था। घर की हालत देखते हुए उसे नहीं लग रहा था कि यहॉँ से उसे कोई शुल्क भी मिल सकता है। उसने अविश्वास से कहा -क्या यही तुम्हारा घर है ?उसने कहा-' हाँ 'आइये। वो उस कीचड़ से बचता हुआ सा लंबे ड़ग भरता हुआ ,उस मकान के चबूतरे पर चढ़ा।
लता लगभग चिल्लाते हुए से बोली -मम्मी ,मैं 'डॉक्टर साहब' को ले आई। घर का दरवाज़ा वैसे तो बड़ा था किन्तु उससे लगा दालान जिसमें अँधेरा सा लग रहा था ,वैसे भी बाहर से आने के कारण कुछ ज्यादा ही अँधेरा लग रहा था। उससे निकलने पर आँगन था जिसमें जाल लगा था वहां थोड़ा प्रकाश था। अंदर किसी कमरे से मशीन चलने की आवाज आ रही थी। वो बीच आंगन में खड़ा होकर पूछने लगा -किधर ?तभी मशीन की आवाज़ बंद हुई और एक महिला कम से कम चालीस -पैंतालीस उम्र की होगी ,जिसका रंग गोरा किन्तु थकी सी लग रही थी। उसने अपने चश्मे को उतारा और अपने हाथों की अँगुलियों से अपनी आँखों को इस तरह मला जैसे उसे आराम मिल रहा हो। शायद मशीन चलाते हुए उसकी आँखें थक गयी हों।बदन पर एक सूती सी धोती ,मुझे देखते ही पहचान गयी और बोली -डॉक्टर साहब आप !
जी ,आपकी बिटिया लेकर आई ,कह रही थी -'कोई बीमार है। 'उन्होंने वहीं से चिल्लाकर अपनी बेटी को पुकारा -लता.... लता...... .वो आई बोली -क्या ? क्या मैंने तुझे इन डॉक्टर साहब को बुलाने भेजा था ?उन्होंने मेरे ही सामने अपनी बेटी से पूछा। उनकी दुकान तो बंद थी ,तब मैं इन्हें ले आई ,ये भी तो डॉक्टर ही हैं कहकर वो फिर से खेलने लगी। उनके इस तरह बात करने से मुझे अपनी बेइज़्जती लगी फिर भी मैं बोला -दिखाइये आपका मरीज़ कहाँ है ?वे थोड़ा हिचकिचाते हुए बोलीं - डॉक्टर साहब ,मैंने इसे दीक्षित को बुलाने भेजा था किन्तु......... कहकर वो चुप हो गयीं।मैं समझ गया ,ये मेरे शुल्क न देने के कारण ऐसा बोल रही होंगी। मैंने कहा -अब मैं आ ही गया हूँ तो देख लेता हूँ। डॉक्टर साहब आपकी फीस..... कहकर वो चुप हो गयीं। मैं समझ गया ,दूना शुल्क तो क्या मिलेगा ?जितनी है ,उसकी भी उम्म्मीद नहीं लगती। अब कैसे भी अपना सम्मान तो बचाना ही था ,आप उसकी चिंता मत करिये ,चलिये कहाँ है ?मरीज़।