अभी तक आपने पढ़ा ,कामिनी गांव के मंदिर में पंडितजी के गुरूजी से पूजा करवाती है। गुरूजी कहते हैं- कि जिसने भी ,उस आत्मा को कैद किया है , उसे मैं आप लोगों के सामने बुला सकता हूँ और जब गुरूजी अपने मंत्रों के प्रभाव से जिस व्यक्ति को बुलाते हैं ,उसे देखकर सबकी आँखें फटी की फटी रह जाती हैं क्योंकि वो और कोई नहीं ,कामिनी की सास ''अंगूरी देवी ''ही थी। वो गुरूजी के सम्मोहन मंत्रों के कारण अपनी कहानी सुनाती है और उन्हें बताती है- कि उसके बेटों का पिता ''तपन सिंह ''नहीं वरन 'सूरजभान 'है। ये नया खुलासा सुनकर ,तो सब बुरी तरह चौक जाते हैं ,तब गुरूजी इसका कारण पूछते हैं ,तब वो अपनी कहानी सुनाती हैं-'' विवाह के आठ बरस पश्चात ''सुजान ''होता है किन्तु उसकी सास एक पोते से संतुष्ट नहीं थी और वो एक बच्चे की और मांग करती है ,उसका एक कारण उसका शक भी था अपनी शंका के निवारण के लिए ,''अंगूरी देवी'' की सास कहती है -एक बेटे का क्या देखा ?दो भाई तो होने ही चाहिए। अब ''अंगूरी देवी ''के सामने एक और समस्या आन खड़ी होती है ,अब आगे -
कामिनी और उसकी मम्मी तो हतप्रभ बैठी ,उन्हें देख रही थीं ,कि अपने जीवन की कितनी बड़ी सच्चाई लिए बैठी हैं ?गुरूजी उनसे पूछते हैं -फिर' निहाल 'तुम्हारी झोली में कैसे आया ?
अंगूरी देवी बोली -''सूरजभान ''अपने पैसे लेने के लिए किसी न किस भेष में आ ही जाता था ,कोई भी सोचता- कि हवेली पर कोई काम के लिए आया होगा या कोई गरीब व्यक्ति ,किसी को भी शक़ नहीं था। मैंने इसका लाभ उठाया और हवेली के इतने सारे कमरों में से एक कमरे में उसे ठहरा दिया क्योंकि अब मैं मायके भी नहीं जा सकती थी ,क्योंकि मेरी सास की छिपी नज़रें मुझ पर ही थीं और न ही अब मायके में अब पिता रहे। एक बूढी माँ और भाई -भाभी। वो किसी वैद्य के रूप में ,उस कमरे में रहा। मैंने एक विश्वसनीय नौकर को उसकी देखरेख में लगा दिया। ये सभी कार्य बड़े ही गोपनीय तरीक़े से हो रहे थे। जब मैं दुबारा गर्भवती हुई तब ''सूरजभान ''ने वहां से जाने से इंकार कर दिया उसे ऐशो -आराम की आदत पड़ गयी थी और मुझे तंग करने लगा। कहता -तपन को छोड़कर मैं उसके संग ही रहूं और ये पैसा भी हमारा ही होगा। किन्तु मैं अपने पति का सम्मान करती थी ,वे स्वभाव से बहुत ही अच्छे थे '',मैं 'उनको ,उनके लिए ही 'धोखा 'दे रही थी। ''ताकि उन्हें किसी भी प्रकार की 'आत्मग्लानि 'न हो। किन्तु मैं उन्हें और किसी बात के लिए धोखा देना नहीं चाहती थी। ''सूरजभान ''ने मुझे इतना तंग कर दिया।
एक दिन मैंने उसे अपने तहखाने में बंद कर दिया। मैं जानती थी यदि मैंने ''सूरजभान ''का अपने लाभ के लिए उपयोग किया ,तो उसने भी तो ,मेरे इस तन से खेला उसे भोगा और पैसा भी लेता था। कैद करने से वो अत्यंत क्रोधित हो गया। खाना भी फेंक देता और भागने का प्रयत्न भी करता ताकि वो ''तपन सिंह ''को सब बता दे और आत्मग्लानि में वो स्वयं ही अपनी जान ले लें किन्तु मैं भी अपने उस सम्मान को खोना नहीं चाहती थी। जो बात उस कमरे की चारदिवारी में कैद थी ,उसे वहीं दफ़न करना चाहती थी। किन्तु उस ''सूरजभान ''की इच्छाएं बढ़ती चली गयीं। मेरे कैद करने के बाद ,उसने उस तहखाने में ही सुरंग बना ली और वो सुरंग बगीचे की उस कोठरी तक जाती थी।
एक दिन जब मैं खाना लेकर गयी, तो वो वहां नहीं था। मैंने इधर -उधर खोजा ,तब मुझे उस सुरंग का मुहाना दिखा। मैं उसके अंदर चली गयी और वहीं पहुंच गयी जहाँ वो घात लगाए बैठा था। मुझे देखकर मुझ पर चिल्लाने लगा। तुम ज्यादा दिन तक मुझे कैद नहीं कर पाओगी और तुम्हारे उस तपन को तुम्हारी असलियत बताकर रहूँगा। मैंने कहा -तुम क्यों किसी की ज़िंदगी से खेलना चाहते हो ?वो तो सज्जन व्यक्ति हैं।'' खुद भी जियो ,उन्हें भी जीने दो ''अगर वो व्यक्ति सज्जन न होते ,तो अब तक तुम्हारा सर धड़ से अलग होता। तुम्हारे बच्चे उसी के नाम पर पल रहे हैं। वो बोला -मुझे तो लगता है ,तेरा वो पति सज्जन बनने का ढोंग कर रहा है ,तुम दोनों पति -पत्नी मिले हुए हो ,अपने स्वार्थ के लिए ,उसने तुम्हें मेरे पास भेजा और वो धूर्त शरीफ़ बना बैठा है। सूरजभान...... ये मत भूलो ,अभी भी तू उन्हीं के पैसों पर पल रहा है ,मैंने चिल्लाकर कहा।कितनी ही बार समझाने पर भी वो नहीं मान रहा था और मुझे पकड़ने के इरादे से मुझ पर टूट पड़ा। मैं भी ,उसके आये दिन की ,परेशानियों से तंग आ चुकी थी। अब तो इतने नौकर नहीं रहे ,उस समय घर के लोग कम ,उससे ज्यादा नौकर थे। किसी भी तरह बाहर आवाज न जाये ,किसी को पता न चले। मैं कुछ देर तो उससे उलझती रही ,एकाएक मेरे हाथ में एक नुकीला पत्थर आ गया और मैंने उसकी कनपटी पर वार किया ,जिससे उसकी पकड़ ढीली पड़ गयी और तब मैंने एक -दो वार और किये और उसे वहीं छोड़कर भाग आई।
उस समय बहुत घबराहट थी ,कुछ देर आराम करके ,अपने मन को शांत करके और बाहर के वातावरण का अनुमान लगाकर, मैं फिर उसी सुरंग के सहारे उस कोठरी में आई। वो अभी तक ऐसे ही पड़ा हुआ था ,मैंने उसकी नब्ज़ टटोली ,उसकी धड़कन की जाँच की ,वो मर चुका था। मैंने अपने उसी विश्वसनीय नौकर से वहीं गड्ढा खुदवाया और उसकी लाश को वहीं दबा दिया। मैंने सुन रखा था -कि जिन लोगों की आकस्मिक मृत्यु होती है ,उनकी आत्मा भटकती रहती है ,तब मैंने किसी तांत्रिक से मिलकर इस कोठरी में कील गढ़वा दीं ताकि वो इस कोठरी से बाहर न आ सके। और उस नौकर को बहुत सारा धन देकर और डराकर ,सदा के लिए ,इस गांव से बाहर भेज दिया।
गुरूजी -तुमने उसका दाह संस्कार क्यों नहीं किया ?
कैसे करती ,किसको क्या जबाब देती, कि ये कौन है ,इसका मुझसे क्या रिश्ता है और मैं क्यों इसका'' दाह संस्कार'' कर रही हूँ ?कहकर वो चुप हो गयीं।
बस अब तुम जा सकती हो ,आराम से जाना, कहकर गुरूजी ने मन्त्र फूंका और ''अंगूरी देवी ''उठी और यंत्रवत चलती हुई ,चली गयीं।
कामिनी बोली -गुरूजी, क्या इनको ये सब स्मरण रहेगा। नहीं ,गुरूजी ने बताया -इन्हें लगेगा जैसे ,ये सब सपना था।
गुरूजी ,उस व्यक्ति का कैसे पता चलेगा ?जो उसकी सहायता कर रहा है।
पता चल जायेगा,पहले तुम्हें कुछ और भी तैयारी करनी होंगी ,इसीलिए अब तुम लोग घर चली जाओ और परसों इसी स्थान पर आ जाना। और जो भी कोई बात होगी तो -पंडितजी तो हैं ही। कहकर वे उसी आसन पर ध्यानमग्न हो गए।
जब वे दोनों माँ -बेटी घर पहुंची तो सब आराम से सो रहे थे ,उन्हें लगा -किसी को भी उनके आने -जाने का आभास नहीं हुआ है ,किन्तु एक व्यक्ति था, जो जग रहा था ,उसकी आँखों से नींद कोसों दूर थी और वो बार -बार करवटें बदल रहा था। इन बातों से अनभिज्ञ कामिनी और उसकी मम्मी अंदर जाकर सो गयीं।
अभी तो जैसे उन्हें नींद आई ही थी कि ''अंगूरी देवी ''की चीख पूरी हवेली में गूंज गयी। अंगूरी देवी को तो पता ही नहीं था कि हवेली में कामिनी और उसकी मम्मी भी हैं। क्या हुआ जानने के लिए दोनों बाहर आईं ,तब उन्होंने देखा -''अंगूरी देवी ''जोर -जोर से चीख रही थी। कामिनी वहां के हालात जानने के लिए कमरे का बल्ब जलाती है और वहाँ का दृश्य देखकर दोनों की चीख़ निकल जाती है।