'बड़ला ' वाले फूफाजी सबके प्रिय और आदरणीय थे ,हो भी क्यों न , हमारी इकलौती बुआ'' रेवा ''जो दादाजी की लाड़ली थी। सभी उनसे बेहद प्रेम करते थे। जब वो घर से विदा हुईं ,तो दादाजी बहुत रोये। कई दिनों तक उनकी चर्चा ,उनके किस्से घर में कहे और सुने जाते। बुआ ,अब अपने घर [ससुराल ]में रहतीं , अपनी घर -गृहस्थी में रम गयीं। धीरे -धीरे हमें भी ,उनके बिना रहने की आदत पड़ने लगी। अब उनका कभी -कभी घर में आना -जाना होता। विवाह को ज्यादा दिन नहीं हुए थे , जब भी फूफाजी आते ,तो घर में जैसे रौनक आ जाती ,उनके नाश्ते से लेकर खाने तक की तैयारी में सभी लग जाते। हमें भी एहसास हो जाता कि आज घर में बुआ आ रही हैं। जब उनका इस तरह मान -सम्मान होता और चलते समय विदाई भी दी जाती ,तब वो कहते -''रस्में वो करो ,जो आगे तक निभाई जा सकें । ''उस समय उनकी बात का अर्थ हम ठीक से नहीं समझ सके।
समय के साथ -साथ हम बड़े हुए, और समय के साथ ही फूफाजी का 'महत्व ' भी घटने लगा। हालाँकि ऐसा भी नहीं था -कि वो रोजाना ही आकर बैठ जाते ,कभी साल -छह माह में आ जाते ,वो भी किसी कार्य से ,कभी -कभी तो दो -तीन बरस भी हो जाते। हम कभी भी बुआ के घर जाते ,बुआ हमें नए -नए व्यंजन बनाकर खिलाती और चलते समय पैसे भी देती। हमें अपनी बुआ के घर जाना अच्छा लगता। फूफाजी का हमारे घर आना ,अब जैसे कोई विशेष बात नहीं रही ,हद तो तब हो गयी ,-''जब मेरी बहन का रिश्ता किया- ,घर के नए ''पाहुने ''के आने की तैयारी चल रही थी और बुआ और फुफाज़ी को पता भी नहीं चला। इस बात की उन्हें नाराजगी थी ,हो भी क्यों न ?इस घर के पहले दामाद थे ,उनका इस तरह अनादर तो सही नहीं था।
पहले जब कभी आते थे तो पहले नाश्ता और फिर खाने की तैयारी चलती ,उनके आने से हमें भी विभिन्न व्यंजन खाने को मिल जाते और अब तो नाश्ते में ही' टरका ' दिए जाते ,नाश्ता भी सीमित हो गया। जब हम बड़े हो गए ,तब उनके शब्दों का महत्व समझ आया क्योंकि हम देख रहे थे -,जिस रिश्ते को इतना महत्व दिया था -उसका दिन प्रतिदिन ह्रास हो रहा था।अब तो घरवाले भी कहने लगे -इतने दिन हो गए ,इनके नखरे देखते -देखते ,अब इनके नखरे देखें या और काम। ''हमने एक दिन पूछ ही लिया ,कि फूफाजी क्या नखरे दिखाते हैं ?तब हमारे प्रश्नों का जबाब न ही हमारे माता -पिता के पास था ,न ही दादी -दादा के पास।
बात उनके नखरों की नहीं वरन इन लोगों के मन में ही ,उनके प्रति भाव और वो सम्मान नहीं रहा था । अब तो नए दामाद की ''जी हुजूरी'' जो हो रही थी। नए दामाद का सूट पीस लेना है ,उसकी पसंद कैसी है ?इत्यादि बातें हम सुनते ,और वो दामाद जी तो जैसे -''नाक पर मक्खी ही बैठने नहीं दे रहे थे। ''शायद उन्हें भी पता हो ,कि अभी नखरे दिखाए जा सकते हैं ,उसके पश्चात तो फूफाजी वाली हालत ही होनी है।
विवाह में दुनिया को दिखाने के लिए उन्हें भी बुलाया गया ,कि चार लोग पूछेंगे -लड़की की बुआ और फूफाजी क्यों नहीं आये ?यदि दुनिया का लिहाज़ न होता तो शायद...... मन मारकर ,उन्हें मनाने का ढोंग करते हुए ,विवाह में बुलाया गया, किन्तु असल में न ही इन्होंने मन से बुलाया ,न ही फूफाजी के मन का दुःख कम हुआ। उन्हें दिखावटी सम्मान दिया जा रहा था जिससे वो भलीभाँति परिचित थे। वो भी शायद दुनियादारी के कारण आ गए।
आज तो बारात घर के दरवाजे पर खड़ी थी ,फूफाजी ने काम की अधिकता को देखते हुए ,एक काम अपने हाथ में ले लिया और उसे बख़ूबी निभाने भी लगे। तब बुआजी को बुरा लगा ,तब बुआ ने पूछा -इन लोगों के मन में कोई सम्मान नहीं ,तब तुम क्यों लगे हो ?तब फूफाजी बोले -ये बात मैं जानता हूँ ,किन्तु वो तुम्हारी भतीजी है ,जो नए जीवन में प्रवेश करने जा रही है ,इसमें उसकी क्या गलती है ?वो भी तो हमारी ही बिटिया है। ये मामला हमारा आपस का है ,आपस में ही सुलट लेंगे ,किन्तु ये समय बदला लेने का नहीं। बुआ मन ही मन फूफाजी के विचारों को जानकर प्रसन्न हुई।
अब तो फेरे भी हो गए ,जब दामाद का टीका करने की रस्म हो रही थी ,तब फूफाजी को भी बुलाया गया। इस रस्म में पुराने दामाद का टीका पहले होता है फिर नए दामाद का। जब फूफाजी का टीका हुआ तो पचास या सौ के नोट निकले ,जब नए दामाद की बारी आई ,तो पांच सौ-पांच सौ के करारे नोट चमक उठे। तभी एकाएक नया दामाद उठ खड़ा हुआ और बोला -टीके में मुझे ,मोटरसाइकिल चाहिए। घरवालों ने समझा, कि दामाद ठिठोली कर रहा है। किन्तु बात की गंभीरता को समझते हुए ,अन्य लोग भी गंभीर हो गए और बोले -इसे अब क्या सनक चढ़ी है ? दहेज़ में गाड़ी तो दी है ,अब इस तरह मोटरसाइकिल की मांग करने की क्या तुक है ?जब यही प्रश्न, उस नए दामाद से किया गया तो बोला -हर जगह गाड़ी से ही नहीं जाया जाता ,मोटरसाइकिल भी चाहिए।
उन लोगों की पहले से ही योजना थी ,फेरों के पश्चात अपनी मांग रखनी है ,और अब तो ब्याह भी हो गया अपनी ब्याही भरी बेटी को, बिना विदा कराये घर में कैसे बेेठायेंगे ?मज़बूरन ,उन्हें इंतजाम तो करना ही पड़ेगा। ''उबलते दूध में जैसे खटास पड़ जाती है , वो न दूध रह पाता है ,न ही पनीर बनता है। ''जहां कुछ देर पहले फिल्मी गाने और हंसी -ख़ुशी का वातावरण था। वहां अब सभी के चेहरों पर चिंता की लकीरें थीं। ये बात जब लड़की तक पहुंची ,तो वो भी रो -रोकर कहने लगी -मैं ऐसे लालचियों के संग नहीं जाऊँगी। अलग -अलग गुटों में बातें हो रही थीं। कुछ कह रहे थे- कि मजबूरी है ,लड़के की मांग तो पूरी करनी ही पड़ेगी। कुछ कह रहे थे -पुलिस बुला लो ,इनकी अक़्ल ठिकाने आ जाएगी। किन्तु परेशानी तो एक और थी, कि बात दस या बीस हजार की हो तो ,आदमी सोचे भी ,लेकिन यहाँ तो बात पूरे डेढ़ लाख की थी। पापा की तो हालत ही खराब थी ,लग रहा था- जैसे उन्हें दौरा पड़ जायेगा। पुलिस बुलाने से भी क्या होता ?इतने खर्चे के बाद भी लड़की अपने घर बैठती और बदनामी होती सो अलग। दामाद को फिर से समझाने का प्रयत्न किया गया।कुछ समझ नहीं आ रहा था।
तभी फूफाजी ने ,बागड़ोर अपने हाथ ली ,पहले तो पापा को संभाला उन्हें सांत्वना दिया -तुम चिंता न करो ,सब इंतजाम हो जायेगा और दूल्हे से भी बात की और उसे समझाया भी। और कहा -सब हंसी -ख़ुशी से लड़की के विदा करने की तैयारी करो ,जब कुछ ढांढस बंधा तो पहले की तरह ,सभी रस्में पुनः होने लगीं। लगभग दो -तीन घंटे बाद एक चमचमाती बाइक दरवाज़े पर खड़ी थी। दूल्हा प्रसन्न हो गया। अब तो सभी की नजरों में फूफाजी छाये थे। हमारे पापा भी मन ही मन उनकी सराहना कर रहे थे कि इन्होंने बिगड़ती बात बना दी। घरवालों ने भी चैन की साँस ली। बाद में पता चला -कि फूफाजी ने अपनी ''फ़िक्स डिपॉजिट ''तुड़वाई थी।अब तो घर में किसी का भी उनसे नजरें मिलाने का साहस नहीं हो रहा था। हमारी बहन तो विदा हो गयी। उधर फूफाजी भी बुआ को लेकर विदा हो गए। चलते समय फूफाजी ने हमसे एक बात कही -''ये रिश्ते इसीलिए होते हैं ,ताकि हम सुख -दुःख या किसी भी परेशानी में एक -दूसरे के साथ खड़े हो सकें ,न कि इन रिश्तों की आड़ में अपना स्वार्थ सिद्ध करें। ये मान -सम्मान तो मन के भाव हैं ,जैसे मन के भाव होंगे ,व्यक्ति वैसा ही व्यवहार करता है। रिश्ता नया या पुराना नहीं होता ,रिश्ता सिर्फ़ रिश्ता होता है ,इन्हें निभाना सीखो !जताना नहीं। ''
दोस्तों !हमारे ''बड़ला ''वाले फूफाजी ''कैसे लगे ?उनकी सीख क्या सही थी ?जो आज भी हमारी स्मृतियों में है ,बताइयेगा जरूर।
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