बच्चों का वो प्यारा बचपन ,
उनका प्यार से तुतलाना ,
जीवन में मेरे ,नई उमंगें भरने लगा।
दिल आसमाँ की बुलंदियों में ,उड़ने लगा।
हमारे सपनों संग ,बच्चों के सपने भी जुड़े।
या यूँ कहें !
बच्चों संग ,हम भी सपने सजाने लगे।
फ़ुरसत कहाँ थी ?
अपने -आप या अपनों से मिलने की।
लगता !
जैसे बच्चों का जीवन ,हम ही संवार रहे थे।
हम जैसे !
इस ज़िंदगी की ,भूल -भुलैया में फंसते जा रहे थे।
अभी फ़ुरसत कहाँ है ?
तनिक, इन्हें बड़ा तो होने दो।
हमारे अरमानों को 'पर 'लगने तो दो।
बच्चे बड़े हुए ,सपने पूर्ण हुए।
अब सब ठीक है।
अब हमें भी ''आईना ''अच्छा लगा।
'आईने ''ने सच्चाई से रूबरू कराया।
बच्चे ही नहीं ,अब हम भी बड़े हो गए।
अपने अरमानों की शिला ,पर खड़े ,
हम अपना जीवन देख रहे हैं ,
दूर हुए हमारे अपने हमसे ,
दूर से ही हाल -चाल पूछ रहे हैं।
यही ज़िंदगी है ,''आईना बतला गया।
हमें हमसे ही ''रूबरू ''करा गया।