मेरी हालत देखकर मेरे माता -पिता ने अपनी स्थिति और मेरी क़िस्मत पर अपना माथा पीट लिया। देवर तो भाग गया और मास्टर को उन्होंने खरी -खोटी सुनाई और किसी के हाथ विद्यालय के प्रधानाचार्य और दो -चार अध्यापकों को बुलाया गया। तब विद्यालय की बदनामी न हो ,बात को वहीं रफा -दफ़ा करने के लिए कहा गया , किन्तु हमारे जख़्मों पर मरहम के लिए ,उसको विद्यालय से निकाल दिया गया। जब मैंने बहन के देवर के लिए कहा ,तो बोले -बेटी की ससुराल का मामला है, आपस में सुलझा लेंगे। जब ये बात उसकी ससुराल पहुँची ,तो मुझे ही खरी -खोटी सुनाई गयी। जवानी ज्यादा ही फूट रही थी ,अपनी इज्जत, अपने हाथ होती है, किसी से इतना भी ज्यादा घुलना -मिलना नहीं चाहिए।
माँ -बाप तो बूढ़े हैं ,भाई कोई नहीं है ,सिर पर कोई मजबूत साया भी तो नहीं ,जवान लड़की बाहर -भीतर के सब काम करेगी तो, लोगों की तो लार ही टपकेगी। दूसरी बहन से कुछ दिनों के लिए मुझे रखने को कहा गया ,तो बोली -न जी न ,मैं ये परेशानी अपने सिर नहीं ले सकती। जिसका देवर आया था ,उससे ही बात की और कहा भी -कि इसका उसी से ब्याह करा दे ,तो देवर ने मना कर दिया। ''मैं जानती थी कि मेरे जीवन में कुछ ग़लत अवश्य घटा है ,किन्तु इसका अंदाजा नहीं था, कि कितना ?बातें कितनी भी छुपा लो ? धीरे -धीरे बाहर आ ही जाती है। लोगों का मुझे देखने का दृष्टिकोण बदल गया। जैसे सारी गलती मेरी ही हो। माँ -बाप मेरे भाग्य को कोसते ,एक बेटा न होने का दुःख मनाते ,जीते -जी मर रहे थे। जो मेरी अपनी बहनें थीं वे भी मुझे आसरा देने को तैयार नहीं थीं ,सबकी अपनी -अपनी समस्याएं थीं। मुझे लगने लगा -मैं क्यों जी रही हूँ ?किसी को भी तो मेरी आवश्यकता नहीं किन्तु मरना भी इतना आसान नहीं होता। क़रीब छः माह पश्चात मेरे लिए रिश्ता आया ,जानते हैं ,किसका ?चंदन के पड़ोसी का। वो पचास बरस का और मैं उन्नीस -बीस के बीच। माँ -बाप ने इज्जत -सम्मान का वास्ता देकर मेरा विवाह उस तीस बरस बड़े आदमी से करा दिया। उसके पहली पत्नी से भी दो बच्चे थे जो मेरे साथ के और एक मुझसे तीन बरस बड़ा था। मैं समझ चुकी थी कि मेरा ये जीवन अब व्यर्थ हो चुका है ,मेरे जीवन का अब कोई महत्व नहीं रह गया है। वो व्यक्ति तो व्यापार के सिलसिले में बाहर रहता किन्तु उसका लड़का घर पर ही ,पता नहीं मुझे देखते ही उसे गुस्सा आता था। अपनी खुनन्स निकालने के लिए ,ज्यादा से ज्यादा काम बढ़ाता ,न होने पर शोर मचाता। ये भी हो सकता है ,उसे इसीलिए क्रोध आता हो कि उसके विवाह करने की उम्र में ,उसका बाप ब्याह करके आया ,वो भी उससे दो -तीन बरस छोटी लड़की से। एक दिन मैंने सिर धोया था और मैं घर के काम निपटाने में लगी थी। गौरी [उसकी बहन ]अपनी सहेली के गयी हुयी थी। और वो मुझ पर चढ़ बैठा और बोला -माँ तो तू हमारी कभी बन नहीं सकती ,ये मेरे बाप पे लानत है जो मेरे विवाह की उम्र में स्वयं विवाह कर लाया। नाम उसका [अपने बाप के लिए ]काम मेरा। मैंने किसी तरह उसे धक्का दिया और छत की ओर भागी और दरवाज़े की कुंडी लगा ली। उसने बहुत दरवाजा पीटा ,मुझे डराया ,धमकाया किन्तु मैंने दरवाजा नहीं खोला। मैं बहुत देर तक बैठी रोती रही पर मैंने दरवाजा नहीं खोला। जब तक उसकी बहन नहीं आ गयी।
उन्हीं दिनों , मैं चंदन से भी मिली ,वो अक्सर अपनी छत पर पढ़ता रहता था। मैं अपनी छत पर चली जाती। मैंने पूछा -आप क्या पढ़ते हैं ?तब उसने बताया कि मैं स्नातक कर रहा हूँ। मैं उसके साथ अपने को सहज महसूस करती थी। वो कभी मेरे लिए चॉकलेट ले आता कभी कोई अच्छी सी चीज़ या जो भी मैं कह देती। मेरे और उसके बीच एक दोस्ती का सम्बन्ध बन गया। मैं अक्सर सोचती -काश !कि मेरी ज़िंदगी में पहले ही ऐसा अच्छा इंसान आ जाता तो आज मेरी ज़िंदगी कुछ और होती। यूँ डरकर या घुटकर जीवन नहीं जी रही होती। मैंने इसे अपनी सम्पूर्ण कहानी सुनाई ,तो बोला - ये जीवन है , इस जीवन में ऐसे अनेक हादसे हमारे संग हो जाते हैं जिनकी हम कल्पना भी नहीं कर सकते। किन्तु समय के साथ उनसे सीख़ लेकर हमें आगे बढ़ना चाहिए और अपने जीवन को उन्नत बनाने का प्रयत्न करना चाहिए। हमें वहीं रुककर नहीं बैठना है। उसकी बातों से मुझे हौसला मिलता। मैंने अपने पति से कहा- कि मुझे भी अब आगे पढ़ना है किन्तु वो तो मुझे, अपनी गृहस्थी संभालने के लिए एक नौकरानी के रूप में लाया था। उसने तो तुरंत इंकार कर दिया ,जब मैंने उसके बेटे की करतूत बतानी चाही तो उसने मुझपर ही इल्ज़ाम लगा दिया। तू ही मेरे बेटे पर कुदृष्टि रखती है ,अपने घर तो कीचड़ फैला आई अब यहां कुछ मत करना।
तब मेरी चंदन ने ही मदद की ,ये फ़ार्म भी लाया और मेरा दाख़िला भी कराया। इसी बीच मेरे माता -पिता का देहांत हो गया और वे अपने जीवन को कोसते चले गए किन्तु पश्चाताप के रूप में वो मकान मेरे नाम कर दिया। अब मैं इतनी बड़ी सम्पत्ति की मालकिन थी। मेरे पति ने उसे अपने नाम कराना चाहा। मेरे इंकार करने पर फिर से गृह क्लेश बढ़ा। चंदन और मुझे आपस में मिलते एक बरस हो गया ,शायद मैं उसे प्रेम करने लगी थी ,वो ही तो मेरी ज़िंदगी में उजाला बनकर आया। तभी कीर्ति बोली -क्या चंदन भी तुम्हें प्यार करता था ?चंदन बोला -मुझे रजनी की परेशानियां देखकर और उसके साथ हुए हादसों को देखकर उससे हमदर्दी थी और मैं अपनी तरफ से जो भी बन पड़ता ,उसे ख़ुशी देने का प्रयत्न करता क्योंकि मैं चाहकर भी इससे प्रेम नहीं कर सकता था। एक तो मैं ग़रीब ,अपने माता -पिता की उम्मीदों से बंधा था ,ये भी शादीशुदा और इसकी ज़िंदगी में पहले से ही इतनी परेशानियां थीं ,मैं उन्हें और बढ़ाना नहीं चाहता था। हाँ ,रजनी बोली -इसने कभी मुझे नहीं दर्शाया कि इसके मन में कुछ ऐसा है। तुमने तो आत्महत्या कर ली थी और फिर तुम दोनों का विवाह कैसे हुआ ? चंदन ! वो तुम्हारी कोठी ,फिर कैसे तुम इतने अमीर हो गए ?कि रजनी के खंडहर को शानदार कोठी में बदल दिया।
रजनी बोली -जब मेरे पति को पता चला कि वो जमीन मेरे पिता ने मेरे नाम कर दी है ,तो मुझसे उस जमीन को अपने नाम करने के लिए कहने लगा। मैंने इंकार कर दिया ,शायद इसी लालच में ,उसने मुझसे विवाह किया था। उधर उसका बेटा मेरे पीछे पड़ा था , चंदन ने एक दिन मुझे बताया कि मेरी सहेली यानि कि तुम उससे मिलीं , मेरे विषय में पूछ रही थीं क्योंकि तुम्हें तो पता भी नहीं था ,कि किन परिस्थितियों में? मेरा विवाह उस बूढ़े के साथ हुआ। अल्हड़पन में हमने क्या -क्या सपने देखे थे ?किन्तु भाग्य में तो कुछ और ही लिखा था। तुझसे कैसे मिलती ,कैसे तुझे अपनी कहानी सुनाती ?जब मेरे साथ ज्यादा जोर जबरदस्ती होने लगी। मैंने अपनी ज़मीन चंदन के नाम कर दी। यही सोचकर -यदि किसी कारण से मुझे कुछ होता है तो मेरे कारण, एक ग़रीब की ज़िंदगी तो बन ही जायेगी। उसके बेटे ने मुझे चंदन से बात करते भी देख लिया ,उसकी भी हवस नहीं मिटा पाई थी। बस यही बहाना ,उन लोगों को मिल गया ,एक दिन हाथापाई में उसने मेरा गला दबा दिया और दोनों बाप -बेटों ने मेरी हत्या को आत्महत्या बना दिया।पुलिस भी आई और पैसे ले देकर केस भी रफ़ा -दफ़ा करवा दिया। क्या ??????क्योंकि रजनी तो उनके सामने खड़ी थी ,कुछ समझ नहीं आया। तो ये बात सही थी ,जो चंदन ने बताया।
ऐसा कैसे हो सकता है ?तुम तो मेरे सामने खड़ी मुझसे बातें कर रही हो। कीर्ति आश्चर्य से बोली। हाँ यही तो , मैं आप लोगों को बताना चाहता हूँ ,ये सपना है ,मेरी पत्नी। किन्तु इसकी शक़्ल तो हूबहू रजनी से मिलती है। इसे संयोग ही कहेंगे, कि इसका चेहरा रजनी से मिलता है। रजनी ने जो मकान मेरे नाम किया ,उस पर मैंने अपने तरह से ,या यूँ समझो -रजनी की इच्छा को पूर्ण करने के लिए काम शुरू करा दिया। मैं एक अच्छी कम्पनी में लग गया था । मैंने थोड़ी अपनी जमीन बेच दी और कुछ मदद सपना के पिता ने भी की। इस तरह वो कोठी तैयार हुई। कीर्ति का ध्यान चंदन की बातों में नहीं वरन उस रजनी पर था। तब चंदन बोला -मैं रजनी की मौत से बुरी तरह घबरा गया था और मैं उस किराये के मकान को छोड़कर दूसरी जगह आ गया। अब रजनी बोली -मैं तो इस संसार से मुक्त हो गयी किन्तु अब मेरी आत्मा मुक्त थी और मेरी आत्मा चंदन को ढूंढ़ रही थी। मैं अपने मकान पर आ गयी जिसे मैंने चंदन के नाम कर दिया था। जब चंदन ने उस मकान को तुड़वाया तो मैं अपने बग़ीचे के पेड़ पर थी। वहीं से बैठी मैं अपने घर को बनते देखती और चंदन को भी। मैं बस इसी में खुश थी ,एक दिन जब मैंने चंदन को सपना के साथ देखा तो सोचा -ये मैं कैसे हो सकती हूँ ?किन्तु मुझे चंदन के साथ सपना को देखकर अच्छा नहीं लगा। मैं सारा दिन इधर -उधर भटकती और परेशान रही ,तब मुझे एहसास हुआ ,मैं तो चंदन को प्रेम करती हूँ और अब चंदन मेरे सिवा किसी और का नहीं हो सकता। अब तो कोई सामाजिक बंधन भी नहीं था।
अब मेरे मन में उसे पाने की उसके साथ रहने की इच्छा जाग्रत हुई ,उसकी पत्नी को अपने रूप में दे खकर ,मैं अपने को उसी रूप में देखने लगी अब मुझे चंदन के पास जाने के लिए ,एक शरीर की आवश्यकता थी ,तब तुमने क्या किया ?अचानक से कीर्ति बोली। उसकी पत्नी ही तो उसके नज़दीक आ सकती है और एक दिन सपना ने उसी पेड़ का फ़ल खाया और मैं भी उससे जुड़ गयी। जिस समय उसने वो फ़ल खाया तब रात के आठ बजे थे। तब से मैं चंदन के साथ ही हूँ। तब कीर्ति को समझ आया कि वो क्यों फोन नहीं उठा रही थी ?और कह रही थी कि'' अभी समय नहीं आया।'' अब निखिल थोड़ा घबराया और उसे इस बात का आश्चर्य हुआ कि इस वक़्त हम एक आत्मा के सामने बैठे हैं। कीर्ति भी अंदर तक हिल गयी। कीर्ति चंदन से बोली -तुम्हें कब पता चला ? कि ये सपना नहीं रजनी है ,इसके परिवर्तित होते व्यवहार से मुझे पता चला रात को मैं सपना नहीं रजनी के साथ होता हूँ। तभी पता नहीं अचानक कीर्ति को क्या हुआ और बोली -मेरी सखी है ही ऐसी ,जिससे प्रेम करती है ,उसका हमेशा साथ देती है। उसके प्रेम के लिए चाहे इसे कितना भी बड़ा त्याग करना पड़े ?करती है। अपनी प्रशंसा सुनकर रजनी खुश हुई बोली -तू तो हमेशा से ही मुझे अच्छी लगी है ,तू ही मुझे समझ सकती है। चंदन और निखिल उन दोनों का मुँह देख रहे थे।
अब जो वो कर रही थी या सोच रही थी कीर्ति अंदर ही अंदर घबरा रही थी। बोली -रजनी तू दिन में कहाँ चली जाती है ?वो बोली -मैं अपने उसी पेड़ पर जा बैठती हूँ। रजनी का एक मन तो कह रहा था ,बेचारी ने कितने कष्ट झेले हैं ?एक मन कह रहा था ,यहां से अपने पति को लेकर भाग जा। कीर्ति बोली -इस तरह कब तक इनके साथ रहोगी ?वो बोली -जीवनभर , कीर्ति बोली -अब तुमने इस जीवन में क्या पाया ?दुःख और परेशानी के सिवा। फिर भी अब तुम क्यों भटक रही हो ?रजनी बोली -मैं कहाँ भटक रही हूँ ?मैं तो अपने चंदन के साथ आराम से रह रही हूँ। कीर्ति बोली -मैं चाहती हूँ कि तुम आत्मा नहीं वरन मेरी पहले वाली रजनी बनो। अब तुम्हें किसी से कोई शिकायत तो नहीं ,अपने पति ,माता -पिता या मास्टरजी से कीर्ति ने पूछा। रजनी बोली -मास्टरजी ,को तो मैंने उनके किये की सजा दे दी। कीर्ति बोली -अब अपने को शांत करो किसी की चीज पर जबरदस्ती अधिकार ठीक नहीं। कहना क्या चाहती हो ,तुम ? रजनी को थोड़ा क्रोध आया। कीर्ति बोली -अब तुम अपनी जिंदगी में खुश रहो ,मुझे अब और क्या चाहिए ?कहकर रजनी से बोली ,अब मैं चलती हूँ और वो निखिल का हाथ पकड़कर खड़ी हो गयी और चंदन से बोली -फिर कभी मुझे बात करनी हो तो अपना नंबर देना। और वो नंबर लेकर बाहर आ गयी। निखिल तो जैसे जड़ हो गया था और वो यंत्रवत उसके पीछे -पीछे चल दिया।