Kanglon ki diwali [part 4]

आज कीर्ति बेहद उदास है ,आज ही के दिन उसकी प्यारी सखी रजनी उसे छोड़कर इस दुनिया से चली गयी थी।कीर्ति  सुबह उठी और अपने काम जल्दी -जल्दी निपटा रही थी किन्तु उसका मन तो अपनी पुरानी स्मृतियों में खोया था। उसने निखिल के लिए ओट्स बनाये ,बच्चों के लिए दोपहर के खाने की तैयारी कर रही थी।  पता नहीं ,आज पूजा क्यों नहीं आई ?जब ज्यादा जरूरत होती है तब ये लोग छुट्टी करेंगी या देर से आएँगी। निखिल उसके व्यवहार को देख बोला -क्यों झुंझला रही हो ?अब आप ही देखिये न ,पूजा अभी तक नहीं आई ,मैंने कुकर में आलू उबलने के लिए रखे हैं ,दो सीटी आ जाएँ तो बंद कर देना। वो समय पर नहीं आई तो खाना मुझे ही बनाना पड़ेगा ,मैं नहाने जा रही हूँ। निखिल बच्चों को उठाता है वे अभी उठना नहीं चाहते किन्तु वो उन्हें कीर्ति के क्रोध  का डर दिखाता है ,दोनों फ़टाफ़ट उठकर अपना बस्ता लगाते हैं ,तब तक कीर्ति भी नहाकर आ जाती है। पूजा को न देखकर रसोईघर में घुस जाती है तभी दरवाज़े पर आहट  होती है ,उसी आहट  से कीर्ति समझ जाती है कि पूजा आ गयी है ,बोली -जल्दी हाथ धोकर रसोईघर में आ जा। कुछ समय के लिए कीर्ति अपनी सहेली  को भूल गयी या यूँ समझिये ,ज़िंदगी की भागदौड़ में उलझ गयी।पूजा को  ज़रूरी हिदायतें देकर वो बाहर आ गयी और स्वयं भी  तैयार होने लगी। मन ही मन सोच रही थी ,सबको लगता है ,कितना कमा लेते हैं ?लेकिन ये भागदौड़, ये सुबह का उठकर भागना  नहीं दिखता ,कभी -कभी तो उठने की  इच्छा भी नहीं होती  पर उठना पड़ता है। तब तक निखिल भी तैयार हो चुका था। दोनों गाड़ी की और बढ़े तभी उसे पड़ोसन के ससुर आते दिखे ,उन्हें देखकर निखिल ने नमस्ते किया और आगे बढ़ गया। 
                   गाड़ी में बैठकर निखिल बोला -यही तो ज़िंदगी है ,अब हम अपने बच्चों के लिए मेहनत कर रहे हैं ,भाग -दौड़ कर रहे हैं  ,फिर बच्चों के बच्चों के लिए करेंगे ,उन्हें उनके स्कूल छोड़ना लाना ,ले जाना। बहु -बेटे तो अपने काम में व्यस्त होंगे। तभी उसे अपने माता -पिता का ध्यान आया और बोला -बहु ने नहीं चाहा तो ये इच्छा भी  गई ,घर के किसी कोने में कभी अख़बार पढ़ते या फ़ोन चलाते होंगे , हालाँकि निखिल का उद्देश्य कीर्ति को दुःख पहुंचाना नहीं था किन्तु कीर्ति को वो बात दिल पर जाकर लगी और वो बोली -मुझमें ही सारी बुराइयाँ भरी हैं ,न ही किसी को मेरा दुःख दिखता है न ही परेशानी। उसके तेवर देखकर निखिल बोला -मैं तो ऐसे ही आम बात कह रहा था ,आजकल जीवन में यही तो होता है। कभी बहु का पलड़ा भारी ,कभी सास का। मेरी मम्मी को उनकी सास यानि दादी ने तंग किया तब वो सोचती थीं -''मैं बहु के साथ कभी भी ऐसा व्यवहार नहीं करूंगी किन्तु बहु ने तो उन्हें कुछ करने या कहने सुनने का मौका ही नहीं दिया। ख़ैर छोड़ो ,ये सब बातें ,तुम मुझे ये बताओ !आज कैसे उखड़ी -उखड़ी सी लग रही हो। क्या कोई बात मन में चल रही है ?कीर्ति कुछ कहती ,उससे पहले ही उसके उतरने का समय हो गया ,निखिल ने गाड़ी रोक दी और वो चली गयी। निखिल आगे बढ़ गया। उसकी बातों से कीर्ति को फिर से अपनी सहेली रजनी की स्मृति हो आई।तभी तृप्ति उसके पास आकर बोली -कैसे सब ठीक है  ? कीर्ति ने हाँ में गर्दन हिलाई और काम करने का प्रयत्न  लगी किन्तु आज उसका मन अपने काम में नहीं लग रहा था। हम  दोनों ही साथ -साथ रहते थे, मुझमें थोड़ी झिझक थी किन्तु वो मुझसे हर बात  बताती। अपने घर की हर परेशानी अपने सपने ,सब कुछ। वो कहती -कीर्ति तेरे घरवाले कितने खुले विचारों के हैं ,अपनी बेटी को हर सुविधा देते हैं ,तुम्हें आगे पढ़ने ,आगे बढ़ने के लिए प्रोत्साहित करते हैं, किन्तु मेरे माता -पिता तो चार -चार बेटियों की ज़िम्मेदारी से मुक्त होना चाहते हैं।कहने को  तो वो  विद्यालय के प्रधानाचार्य हैं किन्तु उनकी सोच सीमित है । कीर्ति  बोली -कुछ बात तो अवश्य है ,उनके इस व्यवहार का कुछ कारण तो होगा। हाँ ,है न , भगवान ने  हमें कोई भाई नहीं दिया ,हम चार बहनें ही हैं,रजनी बोली।  

                कीर्ति को पढ़ने , विद्यालय जाने की पूरी सुविधा थी। रजनी तो बहुत दूर से कभी साईकिल से कभी पैदल आ जाती।उसके बार -बार कहने पर , मैं भी अपने को बहुत पैसेवाली समझने लगी , वो भी मुझे अपने से ऊँचे स्तर का मानती थी।तभी तृप्ति उसके पास आकर बोली -तुम्हें ऑफ़िस में बुलाया है ,कहकर वो चली गयी।मेरा ध्यानभंग हुआ ,मैं कल्पनाओं की दुनिया से बाहर आ गयी। मुझ पर काम को कुछ शीघ्र करने और अधिकता के दबाव के कारण कुछ पल या यूँ कहें कुछ घंटों के लिए ,मैं रजनी को भूल गयी। जब दोपहर के खाने पर हम साथ बैठे ,तब दिव्या बोली -क्या कोई परेशानी है ?नहीं ,मैंने इंकार में सिर  हिला दिया। तृप्ति  बोली -कुछ बात तो अवश्य है ,तुम्हारा चेहरा बता रहा है ,क्या तुम दोनों पति -पत्नी में कुछ झगड़ा.... कीर्ति ने उसकी बात मध्य में ही रोक दी ,बोली -जैसा तुम लोग समझ रही हो, ऐसा कुछ भी नहीं ,आज मुझे अपने विद्यालय की सहेली रजनी की बहुत याद आ रही है। तब इसमें इतना परेशान होने की क्या बात है ?उससे फोन पर बात कर लो या फिर किसी छुट्टी वाले दिन मिलने का कार्यक्रम बना लेना।उसको मैं याद ही कर सकती हूँ ,न ही फोन कर सकती हूँ ,न ही उससे मिल सकती हूँ ,कहते हुए कीर्ति की आँखें नम हो गयीं। तृप्ति बोली -क्यों ऐसा क्या हुआ ?क्या तुम लोगों में झगड़ा हो गया ?कीर्ति बोली -वो तो मेरी बहुत ही प्यारी सहेली थी ,उससे मैं झगड़ती  भी ,तो वो नहीं झगड़ती। दिव्या ने उसके कहे शब्दों पर ध्यान दिया और बोली -थी !क्या वो अब नहीं है ?कीर्ति ने गहरी श्वांस ली ,बोली -हाँ ,अब वो इस दुनिया में नहीं रही ,आज ही के दिन उसने फाँसी लगाकर आत्महत्या की थी। दोनों लड़कियाँ कीर्ति की बात सुनकर सन्नाटे में आ गयीं। थोड़ी देर वहां चुप्पी रही ,अब तक उनका खाना भी समाप्त हो चुका था।कीर्ति ने घड़ी की तरफ देखा , अभी दस मिनट बाक़ी थे। तृप्ति  की नज़र भी घड़ी पर ही गयी ,आश्वस्त होकर बोली - तुम्हारी सहेली के साथ ऐसा क्या हुआ ?जो उसे ऐसा क़दम उठाना पड़ा। वो ही ससुराल वालों द्वारा परेशान किया जाना ,वो भावों में बहती चली गयी -पता नहीं ,उसे उन लोगों ने कितना सताया होगा? कि उसे ये क़दम उठाने के लिए मज़बूर होना पड़ा। क्या तुमसे उसने कुछ नहीं बताया ? दिव्या बोली -कीर्ति बोली -मुझे तो उसके विवाह का भी पता नहीं चल पाया ,वो तो एक दिन उसके क़स्बे का एक लड़का मेरी ही कक्षा में पढ़ता था ,मैंने उससे पूछ लिया, कि आजकल रजनी क्या कर रही है ?तब उसने बताया कि उसकी तो शादी हो गयी। मैं तो बड़े शहर में पढ़ने के लिए बाहर आ गयी ,उस समय पर ये'' मोबाइल फोन ''नहीं थे ,उसके यहां तो साधारण फोन  की भी सुविधा नहीं थी। 
                 वो अपने दुःख ,परेशानी सब मुझसे बांटती थी। मैं  कभी उसके  घर नहीं गयी ,किन्तु एक बार मुझे मजबूरी में उसके घर जाना पड़ा। उसके माता -पिता कमज़ोर - बीमार ,पता नहीं ,उन्हें किस बात का दुःख था ?चार बेटियों के होने का या उनके बड़े होने का या फिर समय से उनके' हाथ पीले होने की चिंता 'जहां तक मुझे लगता है ,उन्हें बेटा न होने का भी दुःख था। बीमार माँ -बाप की जवान और सुंदर लड़कियाँ मौहल्ले और समाज के आँखों की किरकिरी बन जाती हैं  और युवाओं की धड़कने बढ़ने लगती हैं जिसमें कि माता -पिता पैसे और शरीर से कमज़ोर हों। हर कोई मुफ़्त की चीज़ लपकना चाहता है ,बेटियों ने तो हिम्मत से काम लिया अपने पिता  को ढाढ़स भी बँधाया ,हम किसी भी तरह बेटे से कम नहीं किन्तु पिता का मन बाहरी हवा को पहचानता था। एक ने संभाला तो जरूरी नहीं कि दूसरी का पैर न फिसले। ये तो उम्र ही ऐसी है थोड़ी भी हवा लगी नहीं कि पूरे घर की मान -मर्यादा ,समाज में इज्ज़त सब धरी  की धरी रह जाएगी। मैं उनके घर के हालात ,वहाँ का वातावरण देखकर बहुत ही परेशान हुई। मैंने  ने बहुत सोचा -किस तरह उसकी मदद कर सकती हूँ ?मैंने घर आकर मम्मी को बताया भी, किन्तु मम्मी ने मेरी परेशानी देखकर कहा -''कुछ चीजें हमारे हाथ में नहीं होतीं ,उन्हें समय पर छोड़ देना ही बेहतर है। ''फिर भी मैंने उसकी फ़ीस और छोटी -मोटी जरूरतों में उसकी सहायता की ,कुछ इस तरह ताकि उसे महसूस न हो।वो कभी मुझसे कहती -मेरी शादी तुमसे पहले हो सकती है ,क्या तुम मेरे विवाह में आओगी ?या मुझे भूल जाओगी। चाहती तो मैं यही थी, कि हम दोनों साथ -साथ पढ़ें किन्तु मैं तो बाहरवीं ही कर लूँ ,वो ही बहुत है। मैंने भी अपनी मम्मी की तरह दार्शनिकता दिखाते हुए उससे कहा -समय का कुछ नहीं पता ,क्या मालूम मेरी शादी तुमसे पहले हो ?तब वो कहती -यदि ऐसा हुआ तो तेरा विवाह तो पैसे वाले से होगा और तू मेरे विवाह में अपने पति के साथ आना। तब मैं इठलाकर कहती -हाँ -हाँ ,मैं तुझे हीरों का हार उपहार में दूंगी। कीर्ति अचानक हंसती है ,कहती है -लड़कपन के सपने भी न ,आज सोचकर हंसी आती है। हम वास्तविकता से दूर अपनी अलग दुनिया बना लेते हैं ,जो वास्तव में है ही नहीं।जिस ज़िंदगी को हम जी रहे होते हैं ,उससे परे  एक और दुनिया बसती  है ,लड़कपन के सपनों की ,वे सपने जो पैसे ,वास्तविकता से नहीं कल्पनाओं से सजते हैं ,उसमें कुछ भी असम्भव नहीं होता। उसकी दो बहनों का विवाह हो गया। अब सिर्फ दो बहनें  ही रह गयीं। उसने भी बाहरवीं कर ली। उसका घर काफ़ी बड़ा था ,उसके घर में कोई घुस भी जाये तो पता न चले। हमारे ही विद्यालय के अध्यापक  उसकी शिक्षा में ज्यादा दिलचस्पी लेने लगे ,यूँ  समझो शायद उसमें। तब तो मैं भी नहीं समझ पाई किन्तु आज समझ आता है जो मैंने महसूस किया वो सही था। उन्होंने उसे ''व्यक्तिगत शिक्षा'' के लिए प्रोत्साहित किया ,मैं भी शहर में अपनी रिश्तेदार के यहां पढ़ने चली गयी। अब मेरा उससे मिलना न के ही बराबर रहा। मैं भी निश्चिंत थी कि अध्यापक उसे आगे बढ़ने के लिए उसकी मदद कर ही देंगे। ऐसा नहीं कि मैं उसके घर जाना  नहीं चाहती थी ,मैंने तो कई बार चाहा कि उसके घर जाकर उसके मम्मी -पापा से मिलूँ  किन्तु मम्मी विद्यालय से आने के पश्चात कहीं जाने ही नहीं देती थीं। कहतीं कुछ दिनों के लिए आई है ,तो भी इधर -उधर घूमने में निकाल दे।

                   एक दिन मैं समय निकालकर उसके घर भी गयी ,उसका घर सुनसान ,माता -पिता एक कमरे में लेटे  थे। उस समय उस घर में मुझे अंदर जाते हुए भी डर लग रहा था ,मैंने बाहर से ही उसे आवाज़ लगाई। रजनी -रजनी....... तभी वो मुस्कुराती हुई बाहर आई। उसके व्यवहार में मुझे कुछ बदलाव नज़र आया। वो प्रसन्न  नज़र आ रही थी ,मैंने उससे पूछा -सब ठीक है ,वो बोली -हाँ ,जैसे पहले उसके चेहरे पर दुःख -परेशानी दिखती थी ,अपने घर की परेशानियों में उलझी रहती थी ऐसा कुछ नहीं था। उसने मुझसे पढ़ाई की बातें न कर ,अपने जीजा के विषय में बताने लगी -कैसे उसे छेड़ते हैं ,कभी -कभी मिलने आते हैं। या फिर उसके अध्यापक जो उसे एकांत में पढ़ाते हैं अथवा कैसे उसका ध्यान रखते हैं ?मुझे वहां का वातावरण कुछ ठीक नहीं लगा। उसकी शिक्षा के प्रति लापरवाही ,उसके बदले अंदाज से मैंने अंदाजा लगाया ,कहीं कुछ सही नहीं है। मैं अपने घर आ गयी ,मम्मी से सब बताया। उसके बाद मम्मी ने मुझे नहीं जाने दिया, धीरे -धीरे मैं भी उससे दूर हो गयी। बस वो स्मृतियों में कभी -कभी आ जाती। पढ़ाई बढ़ी तो समय ही नहीं बचता था। एक दिन मेरे साथ एक लड़का बैठा ,उससे बात हुई तो पता चला वो तो रजनी के क़स्बे से ही है। मैंने ख़ुशी -ख़ुशी उसे बताया कि वहां मेरी सहेली रजनी भी रहती है वो सुनकर चला गया। चार दिन बाद आया और उसने बताया कि रजनी का तो विवाह हो गया। मैंने आश्चर्य मिश्रित ख़ुशी में कहा -कब ,कहाँ ,किसके साथ ?तब उसने बताया कि पास के ही किसी गाँव में ,किन्तु आजकल वो यहीं आई हुई है। मेरी उससे मिलने की इच्छा बलवती हो आई  किन्तु घर में बताना आवश्यक था क्योंकि मैं भी अब अपने मम्मी -पापा के साथ ही रही रही थी। उस क़स्बे के पास से मेरे पापा की बदली उसी शहर में हो गयी थी जहाँ मैं पढ़ रही थी। घर में बताया तो मम्मी ने इंकार कर दिया किन्तु मैंने  तरुण से औपचारिकता वश कहा -मैं रजनी से मिलने आऊँगी। शायद उसने उसे बताया हो या नहीं किन्तु उसने तीन दिन बाद आकर बताया। अब वो नहीं रही। मैं अचम्भित होते हुए ,सदमे से में आ गयी फिर सम्भलते हुए सोचा -शायद ये मज़ाक कर रहा हो या मैंने ही गलत सुन लिया हो। मैंने उससे दुबारा पूछा तब वो बोला -उसने परसों ही आत्महत्या कर ली , कैसे ?एकाएक मेरे मुँह से निकला।  पँखे से लटककर वो बोला। नहीं ,मेरे पूछने का मतलब था कि क्यों किया उसने ऐसा ?मैंने कहा। वो बोला -मुझे नहीं पता ,मैंने सुना था -उसे उसके ससुरालवाले उसे बहुत तंग करते थे। उनके अत्याचार वो बर्दाश्त नहीं कर पाई। मन में अनेक प्रश्न उठे ,इतने दिनों से भी तो जी रही थी ,मेरे मिलने तक रुक जाती। 
                  एक दो हाद्से ऐसे ही सुने तो  इस बीच ससुराल वालों के लिए ,मेरे मन में धारणा बन गयी कि ये लोग बहुओं को प्रसन्न  नहीं रहने देंगे  या तो दहेज़ का लालच या फिर बेटा न होने के कारण दोष बहुओं को ही देते रहेंगे। मैं भी या तो विवाह ही नहीं करुँगी या फिर अपना कमाऊंगी और अलग रहूँगी। तृप्ति जो इतनी देर से सुन रही थी बोली -ये आवश्यक नहीं, कि सभी लोग एक जैसे हों। हम पहले ही परिस्थितियों वश अपनी एक धारणा बना लेते हैं किन्तु सभी की परिस्थितियाँ अलग -अलग होती हैं ,मेरे सास -ससुर तो बहुत ही अच्छे हैं ,मेरी ननदें भी व्यवहारिक और सहायक हैं ,कभी  भी मदद के लिए साथ खड़ी दिखतीं हैं ,तुम्हारी सहेली की पता नहीं क्या परिस्थिति रहीं ,तुम्हें नहीं मालूम ,सच्चाई से अभी तुम बहुत दूर हो। तभी तीनों ने एक साथ घड़ी को देखा ,तो दो मिनट ऊपर ही हो गए थे। तीनों तेजी से उठीं और अपने -अपने स्थान पर पहुंच गयीं। कीर्ति जब घर लौट रही थी तब रास्तेभर तृप्ति के कहे शब्द ,उसके कानों में गूंज रहे थे। उसने अपने मन की जो बातें अपने मन में बिठा रखी थीं ,आज उन्हें बाँटकर उसे अच्छा लग रहा था। उसकी सोच भी बदल रही थी। उसे अपनी ननद के कहे शब्द स्मरण हो आये ''ज़िंदगी इतनी भी कठिन नहीं ,हम अपनी सोच और व्यवहार से उसे कठिन बना लेते हैं। ''दीपावली को गए छः माह बीत चुके हैं ,अब तो गर्मियाँ  हैं ,एक दिन अचानक फोन की घंटी बजी, त्रिपाठी जी अपनी पत्नी से बोले -देखना जरा किसका फोन है ?किसको  हमारी  याद आ  गयी। उन्होंने फोन उठाया ,बोलीं -हैलो !उधर से आवाज़ आई ,नमस्ते मम्मीजी !उन्हें तो जैसे अपने कानों पर विश्वास ही नहीं हुआ ,अपने को विश्वास दिलाने के लिए पुनः प्रयत्न किया। हैलो कौन ?उधर से  फिर से आवाज़ आई -मम्मी जी आपने मुझे नहीं पहचाना ,मैं आपकी बहु कीर्ति ,कैसी हैं आप ?उस आवाज़ को सुनकर उनकी आँखें नम हो गयीं ,बोलीं -बेटा ,बहुत दिनों बाद आवाज़ सुनी है न ,इसीलिए पहचान नहीं पाई। पापा जी कैसे हैं ?वे बोलीं -वे भी ठीक हैं ,तुम लोगों को याद करते रहते हैं। कीर्ति बोली -बच्चे भी आप लोगों को  याद करते हैं। पीछे से त्रिपाठीजी की आवाज़ आई -किससे  बातें कर रही हो ?प्रसन्नता के कारण उनसे तो कुछ बोला ही नहीं जा रहा  था ,उन्होंने हाथ के इशारे से उन्हें बताया कि अभी आकर बताती हूँ। बोलो बहु  ,कैसे फोन किया ?सब ठीक तो है। हाँ सब ठीक है ,बच्चे याद कर रहे थे ,तो सोचा आप लोगों से बात कर लेती हूँ। वे बोलीं -ठीक ही किया ,यहां भी सब ठीक है। बच्चों को मेरा आशीर्वाद देना। अच्छा मम्मी जी अब रखती हूँ। 
              फोन रखने के बाद वे रोने लगीं ,उनसे रुका ही नहीं जा रहा था ,उन्हें समझ ही नहीं आ रहा था कि वो रो क्यों रही हैं ?कुछ शांत होने के पश्चात बोलीं -तुम्हें पता है ,बहु का फोन था। त्रिपाठी जी बोले -मैं जान गया था ,जब तुम रोने लगीं थीं। तुम्हारा तो दूध छलक आया होगा ,वो थोड़े सख़्त लहज़े में बोले। नहीं जी उसने बड़े प्रेम से बातें कीं। क्या कहा उसने ,क्यों फोन किया ?अंतर्मन से तो वो भी पूछना चाह रहे थे। कह रही थी- बच्चे अपने दादा -दादी को याद करते हैं। अब तो अक़्सर वो फोन कर ही लेती। एक दिन अचानक निखिल से बोली -मैंने अपने दफ़्तर से दो दिनों की छुट्टी ले ली है ,मैं अपने घर जा रही हूँ ,रविवार तक आ जाऊँगी। पूजा को मैंने सब समझा दिया है ,वो बच्चों का भी ध्यान रख लेगी। निखिल बोला -ऐसा क्या काम आन  पड़ा जो तुम अपने घर जा रही हो। वो बोली -आकर बताउंगी। आज तो रविवार है ,आज तो दीदी आ जाएँगी। पूजा ने सारे घर की साफ -सफाई की ,बच्चे भी नहा -धोकर दूरदर्शन पर कार्टून देखने लगे।

लगभग ग्यारह बजे होंगे ,तभी त्रिपाठी जी और उनकी पत्नी ने घर में प्रवेश किया ,उन्हें देखकर निखिल खड़ा हो गया। बोला -मम्मी -पापा आप !उसने आश्चर्य से पूछा। हाँ बेटा ,बच्चों की बड़ी याद आ रही थी ,मन नहीं माना ,सो हम आ गए ,उन्होंने मुस्कुरा कर जबाब दिया। पूजा पानी ले आयी ,वे बोले -बेटा बहु कहीं नहीं दिख रही ,क्या कहीं गयी है ?निखिल बोला -अपने घर गयी थी ,आज ही आने वाली है ,तभी उन्हें कीर्ति आती दिखी। निखिल उसे देखकर चुप हो गया ,वो सोच रहा था ''कीर्ति से मम्मी -पापा के विषय में क्या कहूंगा ?कीर्ति ने उन्हें देख लिया और उनके पैर छुए और निखिल को अंदर ले गयी ,बोली -ये लोग कब आये ?मेरे जाते ही तुमने इन्हें बुला लिया। निखिल बोला -वे लोग तो अपने -आप ही आये हैं ,अभी तो आये हैं तुम्हारे आने से कुछ क्षण पहले ,त्रिपाठी जी बोले -बहु हमारा एक थैला नीचे ही रह गया ,कीर्ति बोली - जी पापा जी ,मैंने पूजा से लाने  के लिए कह दिया है। उसकी बात सुनकर निखिल बोला -एक मिनट ,तुम्हें कैसे पता चला, कि वो मेरे मम्मी -पापा का थैला है ?बस पहचान गयी ,पापा ने तुमसे ही क्यों कहा ?मैं भी तो हूँ ,मुझसे भी तो कह सकते थे। कीर्ति हँसते हुए बोली -जब मैं उनकी बहु हूँ , तो मुझसे ही तो कहेंगे। जब वो मेरे साथ आये हैं तो........  निखिल सोचने लगा -कहीं तुम इन्हें ही तो लेने नहीं गयीं थीं और मुझसे अभिनय कर रही हो। निखिल बाहर आकर बोला -क्या आप लोग भी इसके नाटक में शामिल थे ,माँ हँसते हुए बोली -हमसे तो इसने ही  कहा था ,अब ये घर की मालकिन तो इसका कहना तो मानना ही पड़ेगा।सब हंसने   लगे -पूजा ने खाना बनाया ,मम्मी -पापा नहाकर खाना खाकर आराम करने चले गए। आज कीर्ति को बहुत अच्छा लग रहा है। एकांत में निखिल बोला -ये सब तुमने कैसे किया ?तब कीर्ति ने उसे भी रजनी और अपने दोस्तों से हुईं बातें बतायीं। निखिल आज बेहद प्रसन्न है ,आज उसके मन का बहुत बड़ा बोझ उतर  गया। कीर्ति बोली -अगले महीने'' दिवाली ''है ,अबकि बार ही नहीं, हर बार  मम्मी -पापा अपनी'' दिवाली ''यहीं मनाएंगे ,अपने बच्चों के साथ। निखिल को लग रहा था ,जैसे वो बहुत हल्का हो गया है और उसे कीर्ति पर प्रेम उमड़ आया और उसने अपने कमरे का दरवाजा बंद कर लिया। 



















laxmi

मेरठ ज़िले में जन्मी ,मैं 'लक्ष्मी त्यागी ' [हिंदी साहित्य ]से स्नातकोत्तर 'करने के पश्चात ,'बी.एड 'की डिग्री प्राप्त करने के पश्चात 'गैर सरकारी संस्था 'में शिक्षण प्रारम्भ किया। गायन ,नृत्य ,चित्रकारी और लेखन में प्रारम्भ से ही रूचि रही। विवाह के एक वर्ष पश्चात नौकरी त्यागकर ,परिवार की ज़िम्मेदारियाँ संभाली। घर में ही नृत्य ,चित्रकारी ,क्राफ्ट इत्यादि कोर्सों के लिए'' शिक्षण संस्थान ''खोलकर शिक्षण प्रारम्भ किया। समय -समय पर लेखन कार्य भी चलता रहा।अट्ठारह वर्ष सिखाने के पश्चात ,लेखन कार्य में जुट गयी। समाज के प्रति ,रिश्तों के प्रति जब भी मन उद्वेलित हो उठता ,तब -तब कोई कहानी ,किसी लेख अथवा कविता का जन्म हुआ इन कहानियों में जीवन के ,रिश्तों के अनेक रंग देखने को मिलेंगे। आधुनिकता की दौड़ में किस तरह का बदलाव आ रहा है ?सही /गलत सोचने पर मजबूर करता है। सरल और स्पष्ट शब्दों में कुछ कहती हैं ,ये कहानियाँ।

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