Kanglon ki diwali [part 3 ]

अभी  तक आपने पढ़ा ,कीर्ति और निखिल दोनों ही बड़ी कम्पनियों में नौकरी करते हैं किन्तु माता -पिता से सम्पर्क नहीं हो पाता है। वहीं कीर्ति की सहेली उसे अपने घर, खाने पर बुलाती है। वहां दोनों सहेलियाँ बातें करती हैं कीर्ति कुछ ज्यादा ही अपने विषय में बता जाती है जिसे जानकर उसकी सहेली पलक को उसकी सोच और उसके व्यवहार पर दुःख होता है। वो दुःख पलक अपनी संस्था में हो रहे, कार्यक्रम में अपने भाषण में सुनाती है। जिसे सुनकर कीर्ति और उसका पति अचम्भित हो जाते हैं, जब उन्हें पता चलता है कि पलक उनकी ही रिश्तेदार है और उनके पापा -मम्मी उसके साथ हैं। निखिल अपनी गलती के लिए पछताता है और माता -पिता को अपने साथ ले जाना चाहता है ,अब आगे -

                   बच्चे तो दादा -दादी के साथ खेलने लगते हैं ,पलक सबके लिए खाना बनाती है ,कीर्ति भी उसकी मदद के लिए रसोई घर में जाती है। निखिल ने  ही अपने माता -पिता को घर ले जाने के लिए कहा किन्तु कीर्ति ने अभी तक कुछ नहीं कहा। वो लोग समझ नहीं पा  रहे थे कि कीर्ति के मन में क्या चल रहा है ?उसकी चुप्पी कुछ न कहकर भी ,बहुत कुछ कह रही थी। रसोईघर में वो पलक के  ''समाज -सेविका ''वाले रूप से घृणा कर रही थी। कीर्ति को अब उसमें अपनी दोस्त पलक नहीं वरन एक धोखेबाज़ ननद नजर आ रही थी जिसने उससे उसके विषय में सब जान लिया। सास -ससुर के यहां होते हुए भी, नहीं बताया कि वो लोग यहीं हैं और मेरी चार लोगों में बेइज़्जती करने के लिए ,अपनी संस्था में बुलाया। दोस्ती पर ,ननद का रिश्ता भारी पड़  गया।इसने अपने रिश्ते को खूब निभाया। कीर्ति से रुका नहीं जा रहा था ,बोली -एक बात पूछूं ,जब आपको मालूम था कि आप  हमारी रिश्तेदार हैं  तो आपने पहले क्यों नहीं बताया ?पलक उसकी आँखों में झांकते हुए बोली -पहले बता देती ,तो कैसे पता चलता, कि घर की कमज़ोर कड़ी कहाँ और कौन सी है ? वैसे तो आप मुझसे बड़ी हैं ,किन्तु आपने कोई बड़प्पन नहीं दिखाया ,आप मुझे समझा भी सकती थीं, दोस्ती के नाते ही सही। रिश्ते से पहले हम दोस्त भी तो थे कीर्ति ने प्रश्न किया। पलक बोली -हमारी दोस्ती कुछ महीनों की है ,और रिश्ता बरसों का है ,तुमसे पहले  मेरा रिश्ता ,निखिल और अपने मौसी -मौसाजी से है। तुम पर मैं विश्वास करती  थी ,तभी मैंने उनकी बातें सुनकर तुम्हें भी कहने का मौका दिया। मैं किसी भी तरह तुम पर ,अपनी दोस्ती या रिश्ते को थोपना नहीं चाहती थी। हो सकता है ,वो ही गलत हों। तभी मैंने दोनों तरफ से ही अपनी -अपनी बात कहने का मौका दिया। एक दोस्त होने के नाते मैं तुम्हारी भावनाओं को समझ सकती हूँ ,हर लड़की ये ही चाहती है ,स्वतंत्र जीवन जीना , किन्तु रिश्तेदार होने के नाते ,मैं पूछना चाहती हूँ -जब लड़कियाँ अपनी ससुराल में अधिकार से जीवन जीना चाहती हैं ,पति या सास -ससुर की सम्पत्ति पर अपना अधिकार जताती हैं और वे लोग उसकी भावनाओं की कदर करते हैं।  ,तब वो अपने कर्त्तव्य कैसे भूल जाती हैं ?जिस सम्पत्ति पर अधिकार जताती हैं वो उन्हीं के द्वारा जोड़ी गयी सम्पत्ति है ,उनके प्रति सम्मान -आदर कैसे भूल जाती है ?तुमने अनजाने ही अपने मन की बात मुझे बतला दी यानि अपनी दोस्त ,को यही बातें क्या तुम अपनी रिश्तेदार या  ननद से कर सकती थीं ,पलक ने प्रश्न किया। 
                पहले मैंने सभी बातों पर मनन किया और  मैंने ननद होने के नाते तुम्हें समझाना बेहतर समझा फिर इसमें तुम्हारी बेइज़्जती कहाँ हुई ?वहाँ तो कोई भी तुम्हें जानता ही नहीं था ,न ही मौसी जी और  मौसाजी को ,वो तो मेरी संस्था के जरूरतमंद लोगों में से एक थे। एक दोस्त होने के नाते अब मेरी यही सलाह है ,पुरानी सोच को त्यागकर ,नई सोच के साथ ,नए रिश्तों की शुरुआत करो। आजकल तो इतने बड़े परिवार ही नहीं रहे ,हद से हद पांच या छः लोग। तुम क्यों अपनी सोच या व्यवहार से दूसरों को कहने का मौका देते हो ?बात छुपाने से ,बातों का हल नहीं निकलता। बातों को कहने और अच्छी सोच रखने से समस्याओं का हल निकलता है। मैंने अब तुम्हें दोस्ती के नाते भी समझा दिया फिर मुस्कुराकर बोली -मेरे तो जीवन का उद्देश्य ही लोगों के दिलों में प्यार ,अपनापन बनाये रखना है ,जिसकी आज के समय में बहुत कमी है वरना हमें संस्था खोलनी ही नहीं पड़ती। ये जीवन तुम्हारा है ,व्यवहार तुम्हारा है ,रास्ता तुम्हें  चुनना है ,कहकर पलक रोटी देने चली गयी। कीर्ति खड़ी सोचती रही ,फिर मन ही मन सोचा ''इतनी बेइज़्जती करने के बाद ,कैसी भली बन रही है ?खाना खाने के पश्चात निखिल अपने पापा से बोला -अब आप लोग हमारे साथ चलिए किन्तु कीर्ति ने एक शब्द भी नहीं कहा। उसके पापा बोले- बेटा ,अब तो हम लोग घर जायेंगे, तुम लोगों से मिल लिए ,बच्चों से भी मिले और अब हमें क्या चाहिए ?कल चले जायेंगे ,निखिल ने आगे कुछ नहीं कहा और वो अपने  बच्चों को साथ लेकर चला गया। माता -पिता मिले भी तो ,अजनबियों की तरह ,निखिल को कुछ खालीपन सा लग रहा था। वो कीर्ति से बोला -तुम भी तो कह सकती थीं कि मम्मी -पापा हमारे संग अपने घर चलिए। कीर्ति बोली -तुम्हें तो मुझमें ही दोष नज़र आता है ,तुमने भी तो कहा था ,तुम तो उनके बेटे हो ,जब तुम्हारे कहने से ही नहीं आये तो फिर मेरे कहने से कैसे आ जाते ?निखिल खीज़कर बोला -तुम नहीं समझोगी। मन ही मन बुदबुदाया,- या समझकर भी नासमझ बनती हो। कीर्ति बोली -तुमने कुछ कहा ?नहीं ,कहकर चुपचाप गाड़ी चलाने लगा। 

                 उधर निखिल की मम्मी बोली -आपने जाने से इंकार क्यों कर दिया ?त्रिपाठी जी बोले -तुमने देखा नहीं ,बहु ने तो एक बार भी नहीं कहा ,न ही उसे अपने किये पर पछतावा है। बेटे के कहने पर यदि हम चले भी जाते तो ज़बरदस्ती बहु के  सिर पड़ जाते। तुम उसके कहे शब्दों को भूल गईं ,मैं नहीं भूला। वो बोलीं -मैं तो अपने बेटे के कहने पर ही जाना चाहती थी ,आख़िर वो घर उसका ही तो है। अब ये अधिकार की बातें न करो ,उस घर में हमें सम्मान ही मिल जाये ,वही बहुत है। बेटा सारा दिन घर में नहीं रहता ,घर में बहु रहती है , हम पसंद नहीं ,और बोले -''बिन बुलाये जाइये न ,अपना आदर खोइए न। कहकर वो सोने चले गए और बोले -कल अपना सामान बांध लेना ,हम कल ही जायेंगे। इतनी देर से पलक उनकी बातें सुन रही थी बोली -मौसीजी !मौसाजी ठीक ही कह रहे हैं ,ये बात मैंने भी नोटिस की ,कीर्ति ने एक बार भी आप लोगों को चलने के लिए नहीं कहा किन्तु आप लोग ,जब तक चाहे यहां रह सकते हैं। बेटा न सही बेटी ही सही ,त्रिपाठी जी बोले -नहीं बेटा ,तूने तो हमें सच्चाई से रूबरू कराया ,हम तो इस गलतफ़हमी में थे कि हमारा फ़ोन न ही बेटा उठा रहा था ,न ही बहु। हम तो इसीलिए परेशान थे कि कहीं उन्हें कुछ हो तो नहीं गया किन्तु यहाँ आकर पता चला कि इसे तो हमसे ही परेशानी थी। पलक से बोले -बेटा अब तुम ही बताओ ,हम क्या करें ?सास -ससुर कठोर हों  तब भी परेशानी ,न हो तब वे स्वयं परेशान ,न ही निगलते बनता है ,न ही उगलते। बहुओं की परेशानी को समझा अब बहु नहीं समझना चाहतीं। पलक बोली -आप परेशान न होइए ,कुछ न कुछ तो ऊपरवाले  ने सोचा ही होगा।   
                 मौसा जी और मौसीजी को गए तीन माह हो गए। किसी का किसी से कोई सम्पर्क नहीं रहा। कीर्ति किट्टी में आई किन्तु उसने पलक से मिलने में कोई उत्साह नहीं दिखाया ,न ही उसने अपने सास -ससुर के विषय में कुछ पूछा। पलक भी कहाँ मानने  वाली थी ,कोई ऐसे ही बात छिड़ी ,तब वो बोली - ''ज़िंदगी इतनी कठिन भी नहीं होती, जितना हम उसे अपने व्यवहार अथवा सोच से बना लेते हैं। हम दूसरों को परेशान करने का प्रयत्न करते हैं  , फिर क्या  हम ख़ुश रह पाते हैं ?हम किसी को भी परेशान करने के लिए ,साधन ढूंढते  हैं  या अनेक उपाय सोचते और परेशान होते हैं। समझो, तो ज़िंदगी में कुछ नहीं रखा ,न समझो तो' ज़िंदगी एक जंजाल' है। हम साधारण जीवन जीकर भी प्रसन्न रह सकते हैं। जीवन में जितना उलझना चाहो ,उलझ सकते हो।'' किट्टी की महिलायें कुछ समझीं , कुछ नहीं ,फिर भी उन्होंने पलक के दृष्टांत को सराहा।कीर्ति की पड़ोसन ,एक दिन उसके घर 'लड्डू ;लेकर आई ,वो बहुत ही प्रसन्न थी ,बोली -आज हमारे बेटे ने एक'निबंध लेखन' में इनाम जीता है। कीर्ति हँसते हुए बोली -ये तो अच्छी बात है, कहकर एक लड्डू ज्यों ही मुँह में डाला ,बोली -ये तो बड़े ही स्वादिष्ट हैं। पड़ोसन खुश होती हुई ,बोली --ये मोहित की  दादी ने बनाये हैं ,तुम तो जानती ही हो। मैं तो नौकरी के सिलसिले में ज्यादा समय बाहर ही रहती हूँ किन्तु मोहित के दादा -दादी ने ,उसे कभी भी मेरी कमी महसूस नहीं होने दी। वरना आजकल बच्चे अकेले रहकर चिड़चिड़े हो जाते हैं। यदि वे लोग न होते, तो शायद मैं ये नौकरी नहीं कर पाती या फिर मोहित इस दुनिया में थोड़ी और देर से आता।उस समय हमारा हाथ भी तंग था। ख़ैर छोड़ो ,जो भी है ,उनके कोई काम  न करने पर भी काफी मदद हो जाती है ,मुझे तो पता ही नहीं चलता मोहित  क्या -क्या करता रहता है ?उसके जाने के बाद कीर्ति बुदबुदाई -ऐसे क्या हमने अपने बच्चे नहीं पाले ,जिनके दादा -दादी नहीं होते ,क्या उनके बच्चे पलते ही नहीं ? 

                आज  कीर्ति  का मन बेहद अशांत है ,क्योंकि  आज ही के दिन उसकी बेहद प्यारी सखी इस दुनिया से चली गयी थी और उसकी मौत के ज़िम्मेदार और कोई नहीं उसकी ससुराल वाले ही थे।   













laxmi

मेरठ ज़िले में जन्मी ,मैं 'लक्ष्मी त्यागी ' [हिंदी साहित्य ]से स्नातकोत्तर 'करने के पश्चात ,'बी.एड 'की डिग्री प्राप्त करने के पश्चात 'गैर सरकारी संस्था 'में शिक्षण प्रारम्भ किया। गायन ,नृत्य ,चित्रकारी और लेखन में प्रारम्भ से ही रूचि रही। विवाह के एक वर्ष पश्चात नौकरी त्यागकर ,परिवार की ज़िम्मेदारियाँ संभाली। घर में ही नृत्य ,चित्रकारी ,क्राफ्ट इत्यादि कोर्सों के लिए'' शिक्षण संस्थान ''खोलकर शिक्षण प्रारम्भ किया। समय -समय पर लेखन कार्य भी चलता रहा।अट्ठारह वर्ष सिखाने के पश्चात ,लेखन कार्य में जुट गयी। समाज के प्रति ,रिश्तों के प्रति जब भी मन उद्वेलित हो उठता ,तब -तब कोई कहानी ,किसी लेख अथवा कविता का जन्म हुआ इन कहानियों में जीवन के ,रिश्तों के अनेक रंग देखने को मिलेंगे। आधुनिकता की दौड़ में किस तरह का बदलाव आ रहा है ?सही /गलत सोचने पर मजबूर करता है। सरल और स्पष्ट शब्दों में कुछ कहती हैं ,ये कहानियाँ।

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