मैं कविता ,
कवि की कल्पना में। ,
समाई ,अविरल ,स्वतंत्र ,
स्वर लहरी ,संग ,
ह्रदय से होती हुई ,
आई अठखेलियों संग ,
चुलबुली सी ,कभी भावनाओं
से निकली ,प्रकाश की मद्धिम ,
रौशनी में नहाई ,दूधिया लहर सी।
मैं ग़ज़ल ,
उसकी तमन्नाओं की ,
ख़्वाहिशों की मंजिल सी ,
मुझे लफ़्जों में पिरो ,
पहनाया ,अरमानों का झीना पर्दा।
न मुक्तक न क़ाफिया ,
लफ़्जों में बसी ,उसकी बनाई ,
ख़ूबसूरत इबारत हूँ।
न अलंकार ,न छंद ,
मात्राओं में बंधी ,कविता नहीं ,
मैं स्वतंत्र ,उन्मुक्त ,
अठखेलियां करती कविता हूँ।
मैं तो नाज़ -नख़रों में पली ,
लफ़्जों की चाशनी में ,
डुबोई ग़ज़ल हूँ।
लफ़्जों से बुना ,मोेहब्बत का ,
लबादा ओढ़े ,शायर की जान हूँ।
उसके लफ़्जों का शान हूँ।
दोनों ही दिल से निकली ,
इबादत हैं ,मिलकर चलो ,
दोनों सखी बन जाते हैं।
शायर हो या कवि ,
प्रेम -मुहब्बत की इबारत बनाते हैं।
दिल से निकली ,माशूका ,
न सही ,उसका ख़्वाब तो हैं।