'' मौन '' यानि कुछ देर या कुछ घंटे ,कभी -कभी पूरा दिन भी ,चुप रहना ही'' मौन '' है।जब हमारा मन शांत होगा, हम किसी भी विषय पर विचलित न होंगे ,तब हम मौन 'रह सकते हैं ,इससे हमारी एकाग्रता बढ़ती है। हम अपनी इन्द्रियों को नियंत्रित करने की ओर अग्रसर होते हैं क्योंकि'' मौन ''रहने के लिए सबसे पहले विचारों पर नियंत्रण आवश्यक है। विचार अथवा मन शांत होगा तभी हम ''मौन ''रह पायेंगे। मौन रहने से मन को शक्ति मिलती है और जब हम शांत होंगे तब हमारा ध्यान आस -पास के वातावरण की ओर भी जायेगा। मौन ''रहने से घर में कई बार बिगड़ते संबंध भी बने रह जाते हैं। हमारे मन में अनेक विचार चलते रहते हैं और उन विचारों को हम बोलकर ही दुनिया से जुड़ते हैं ,ये विचार ही शब्द बनकर एक -दूसरे व्यक्ति को समझने -समझाने का मौका देते हैं किन्तु इन शब्दों में बड़ी ताक़त होती है ,इन शब्दों को सही समय या सही स्थान पर प्रयोग न किया जाये तो बनती बात भी बिगड़ जाती है। वाचाल व्यक्ति की बातों पर कम ही लोग ध्यान देते हैं, कम बोलने वाले व्यक्ति की बातों को ध्यान से सुनने का प्रयत्न करते हैं।''मौन ''रहना कोई साधु या महात्माओं का ही कार्य नहीं ,मौन ' का तो हम सांसारिक ,पारिवारिक व्यक्ति भी पालन कर सकते हैं। बचपन में हम अपने बड़ों से एक कहावत सुनते थे -''एक चुप सौ को हराता है।
''इसका सार क्या है ?हमारे मन में प्रश्न उठते हैं --हमें कब -कब मौन रहना चाहिए ?या हमेशा ही। क्या मौन ''रहने की कोई सीमा है।'' मौन ''रहना भी आसान नहीं ,वाचाल व्यक्ति के लिए तो अत्यंत कठिन कार्य है। कई बार अधिक बोलते व्यक्ति को शांत करने के लिए ,शर्त लगा दिया करते थे कि यदि पांच मिनट अथवा कोई भी समय निश्चित करके कहते यदि तुम हमारे दिए समय तक मौन रहे तो इनाम मिलेगा।
''इसका सार क्या है ?हमारे मन में प्रश्न उठते हैं --हमें कब -कब मौन रहना चाहिए ?या हमेशा ही। क्या मौन ''रहने की कोई सीमा है।'' मौन ''रहना भी आसान नहीं ,वाचाल व्यक्ति के लिए तो अत्यंत कठिन कार्य है। कई बार अधिक बोलते व्यक्ति को शांत करने के लिए ,शर्त लगा दिया करते थे कि यदि पांच मिनट अथवा कोई भी समय निश्चित करके कहते यदि तुम हमारे दिए समय तक मौन रहे तो इनाम मिलेगा।
हमारा मानना है कि मुनि लोग ही'' मौन ''रह सकते हैं ,हम सांसारिक व्यक्तियों का ''मौन 'से क्या प्रयोजन ?संत कबीरदास जी ने भी कहा है -''अति का भला न बोलना ,अति की भली न चुप।
अति का भला न बरसना ,अति की भली न धूप। ''
यानि हर चीज़ की अति बुरी होती है ,''मौन ''रहने का भी अभ्यास करना पड़ता है ,उसके अभ्यास के लिए हम शुरुआत में एक घंटा ''मौन ''रहने का प्रयत्न करें फिर धीरे -धीरे समय बढ़ाते जायें। हम ''मौन ''हैं कोई हमारी प्रशंसा करता है तो हम शांत रहकर उसकी बातें सुनेंगे किन्तु यदि वही व्यक्ति हमारे प्रति अनुचित शब्दों का प्रयोग करता है तो हमारा ''मौन ''रहना दूभर हो जायेगा। इससे हम अपने -आपको ही चुनौती दे सकते हैं कि हम कितनी देर शांत और ''मौन ''रह सकते हैं। वाचाल व्यक्ति किसी भी कार्य को बिगा ड़कर रख देता है पता नहीं अपनी वाचालता से कितनी अनर्गल और अनावश्यक बातें कह दे ? यदि हमें किसी भी विषय की पूर्ण जानकारी नहीं है तो वहां पर हमारा ''मौन ''रहना ही उचित है। किसी की प्राण रक्षा के लिए भी ये एक बेहतर विकल्प है। इसी से संबंधित एक किस्सा है --एक सन्यासी थे ,वे कभी झूठ नहीं बोलते थे ,वो अपनी कुटिया के बाहर थे ,तभी एक गाय दौड़ती हुयी उधर से निकली क्योंकि उसका पीछा एक कसाई कर रहा था ,वो गाय को पकड़कर उसका वध करना चाहता था तभी उस कसाई ने उन महात्मन को देखा और पूछा --क्या आपने इधर से किसी गाय को जाते देखा ?मैंने सुना है कि आप कभी झूठ नहीं बोलते। तब महात्मन सारा वाक़या समझ गए और कम शब्दों में ही उसे जबाब दिया बोले -आँखें देख सकती हैं किन्तु बोल नहीं सकतीं ,मुँह बोल सकता है किन्तु देख नहीं सकता ,इस प्रकार उन्होंने कम शब्दों में ही ,झूठ न बोलकर गाय की रक्षा की। इस प्रकार कम बोलकर अथवा ''मौन ''रहकर किसी के प्राणों की रक्षा की जाये तो भी उचित है ,परिवार के किसी भी विवाद को मौन रहकर टाला जा सकता है।
कभी आप शांत मन से ''मौन ''रहकर देखिये तब पता चलता है कि सामने वाला व्यक्ति कितनी ही व्यर्थ की बातें कर रहा है ?तब आपको स्वयं के लिए भी एहसास होता है कि हम भी अनजाने में ही ,व्यर्थ में ही ,कितनी अनर्गल बातें कर जाते हैं ?मौन ''में बड़ी ताकत होती है ,बड़े -बड़े झगड़ों को टाला जा सकता है। मौन ''व्यक्ति अन्तर्मुखी हो जाता है। जो शक्ति हम ज्यादा बोलने में गंवा देते हैं और वही शक्ति अन्तरजाग्रत होने में सहायक होती है किन्तु जहां हमें बोलना चाहिए ,वहां भी यदि हम मौन रहते हैं तो वो उचित नहीं। हम अपने मन की बात दूसरे को नहीं समझा पायेंगे। कुछ भी अनर्थ होने पर, बाद में पश्चाताप ही रह जायेगा। पश्चाताप की अग्नि में जलने से बेहतर है ,समय पर कह देना ही अच्छा है। ''मौन ''की ताकत का एक और उदाहरण है --एक महात्मन नदी पार करने के लिए नाव पर बैठे उनके संग में उनके चेले भी थे। तभी एक दारोगा अपने सिपाहियों के साथ उस नाव पर चढ़ा वो बहुत ही अहंकारी जीव था ,उसके मन में साधु -संतों के लिए कोई सम्मान भी नहीं था।वह साधु की किसी बात पर रुष्ट होकर उनसे अनर्गल बातें करने लगा ,वो महात्मन बहुत ही ज्ञानी थे। कहते हैं,- कि किसी निर्दोष की आत्मा को नहीं सताना चाहिए ,उसके मन से जो आह निकलती है वो अत्यंत दुःखदायी होती है। महात्मन उसकी गलतियों को ,उसके गुस्से और गालियों को चुपचाप सुनते रहे। इस पर भी उसका क्रोध शांत नहीं हुआ तब उसने महात्मन के दो तमाचे मार दिये ,उनके शिष्यों को अत्यंत क्रोध आया किन्तु उन्होंने मना कर दिया।
कुछ समय बाद ही नदी का किनारा आ गया ,तब दारोगा सबसे आगे बढ़ा। नदी के पास ही कुछ भाले जैसा नुकीला शस्त्र पड़ा था, किसी का भी उस ओर ध्यान नहीं गया। दरोगा अपने अहंकार को साथ ले, लापरवाही से उतर रहा था तभी उसका पैर उस पर पड़ा और वो आगे से उठ गया उसका उठा हुआ नुकीला फल सीधा उसके ठुड्डी में आकर लगा और उसके वजन से ही आर -पार हो गया। उसकी हालत देख शिष्यों को दुःख हुआ और महात्मन से बोले -गुरूजी आपने तो इसके शब्दों के लिए कुछ कहा होता तो इसकी इस तरह दयनीय मौत न होती। कम से कम उफ्फ़ ही कह दिया होता तो शायद बच जाता। किसी का दिल भी नहीं दुखाना चाहिए और'' मौन''की ताकत देखिये मन शांत। दूसरी तरफ ज्यादा बोलने और दुर्व्यवहार करने के कारण उसका मन अशांत और विचलित था जिस कारण वो परिस्थितियों को भी नहीं समझ पाया और अपनी ही हानि कर बैठा। मौन की ताकत इतनी है ,जब तुम कुछ नहीं कर रहे तो वो करता है और जब वो करता है तो कोई कुछ नहीं कर सकता।