Kavya -Lekhan [part 2]

अभी तक आपने पढ़ा ,रूपलेखा कवितायें लिखती है ,जो डॉ 0 ज्ञानेंद्र को बहुत पसंद आती हैं और वो उसकी कविताओं का  बहुत बड़ा प्रशंसक है। डॉ 0 ज्ञानेंद्र भी लेखक है किन्तु उसके विषय में रूपलेखा को कोई जानकारी नहीं थी किन्तु ज्ञानेंद्र उसे अपनी जानकारी के लिए उकसाता है ,उसके पश्चात ज्ञानेंद्र रूपलेखा से मिलने  की इच्छा जताता है किन्तु रूपलेखा उससे मिलने से  इंकार कर देती है। अब आगे -

फोन रखने के पश्चात रूपलेखा अपने कमरे में चली जाती है ,डॉ 0 ज्ञानेंद्र को अपना अपमान लगता है और उसका मन दुःख से भर जाता है। मयंक ज्ञानेंद्र के पास आता है और उससे रूपलेखा से हुयी मुलाक़ात के विषय में जानकारी लेता है किन्तु मन से दुःखी ज्ञानेंद्र बोला -वो तो न ही मिलना चाहती है और न ही बात आगे बढ़ाना चाहती है। मयंक ने समझाया -प्यार में इतनी जल्दी कैसे हार मान ली ?प्रेम में न जाने लोग क्या -क्या कर जाते  हैं ?और तुम्हारी तो अभी दो ही मुलाकातें हुयी हैं वो भी फोन पर ,ऐसे ही कोई इतनी जल्दी कैसे विश्वास कर लेगा? वो एक कवियत्री है ,उसके पास न जाने उसके प्रशंसकों के कितने फोन आते होंगे ?हर कोई ऐसे ही उससे मिलने की इच्छा करने  लगे तो वो किस -किससे मिलेगी ?किसी भी अनजान व्यक्ति पर वो कैसे इतनी जल्दी विश्वास कर सकती है? मयंक की बातें ज्ञानेंद्र को सही लगीं और उसके मन में फिर से इच्छाएँ बलवती हो उठीं। उधर रूपलेखा अपने कमरे में जाकर आईने के सामने खड़ी हो गयी और बोली -तुझे कोई पसंद नहीं करता। सब तेरी कल्पनाओं  को तेरे दर्द को पसंद करते हैं ,तेरे शब्द उन्हें छू जाते हैं

किन्तु तू नहीं। कहकर वो पास पड़े पलंग पर औंधी गिरकर रोने लगी। थोड़ी देर पश्चात मन शांत होने पर ,वो सोचने लगी -''बचपन में ही दादी ने मुझे देखते ही गोद में नहीं लिया। जो भी देखता अफ़सोस जताकर चला जाता किन्तु माँ ही मुझे सारा दिन अपने साथ रखती क्योंकि कोई भी मुझे अपने साथ खिलाता भी नहीं था और मुझे कभी चुड़ैल,कभी काली कलूटी ,बैंगन लूटी ''जैसे उपनाम सुनने को मिलते ,मेरी माँ से पूछा जाता -क्या ये तेरी ही लड़की है ?स्कूल में भी अध्यापिका मेरे साथ भेदभाव करती ,यदि मैं सबसे पहले प्रश्नों के उत्तर भी दे देती, तो भी मेरी बातों को नजरअंदाज कर देतीं। मैं चाहती और बच्चों की तरह वो मेरी भी प्रशंसा करे किन्तु वो डपटकर बिठा देती। 
                    मैं अक्सर अपनी माँ से पूछती -माँ ! मैं सुंदर नहीं ,क्या इसमें मेरी गलती है ?मैं तो किसी से कुछ कहती भी नहीं ,फिर भी न ही मेरे साथ कोई खेलना या बैठना पसंद नहीं करता। माँ कहती -तुम तो खुश नसीब हो ,तुम्हारे पास तो अधिक समय है ,इसमें तुम पढ़कर अपने को इस  योग्य बना लो। अपनी योग्यता इतनी बढ़ा लो कि तुम लोगो से नहीं ,लोग तुमसे मिलने की इच्छा व्यक्त करें। कोई दिन ऐसा भी आएगा ,जब कोई तुम्हारे रूप को न देख तुम्हारी सीरत देखेंगे। भगवान सबकी जोड़ियां बनाता है उसने भी तुम्हारे लिए कोई न कोई तो बनाया ही होगा ,जो सूरत नहीं, सीरत देख तुम्हें ब्याह ले जायेगा। मेरी बिटिया का दिल तो एक आईने की तरह है उस आईने में किसी की सूरत तो बसेगी ही। माँ के इस आत्मविश्वास पर मेरा भी मनोबल बढ़ जाता। कोई कुछ कहता भी तो अब आदत बन गयी। मेरी शिक्षा में उन्नति उनका मुँह बंद कर देती। शिक्षिका भी कब तक भेदभाव करती ?आखिर उसे भी मेरी योग्यता का ''लोहा मानना  पड़ा। 'माँ हमेशा मेरे अंदर इसी तरह विश्वास भर्ती रही और मैं आगे बढ़ती रही। माँ ही मेरी मित्र ,सखा ,पिता का प्यार और न जाने मेरी एक माँ के अंदर ,मेरे लिए कितने रिश्ते थे ? उसने किसी भी रिश्ते की कमी महसूस न होने दी। बड़े होने पर सबको मेरे विवाह की चिंता सताने लगी और मेरे लिए लड़के देखे जाने लगे। लड़के आते, मेरी योग्यता देखकर किन्तु मेरा कुरूप देखकर चले जाते। अब तो माँ की भी उम्मीद टूटने लगी और एक दिन अचानक अपनी इस कुरूप बेटी के लिए चिंतित रहने के कारण ,ह्रदयाघात के कारण चल बसी। पता नहीं ,क्या सोचकर माँ ने मेरा नाम' रूपलेखा 'रखा था ?अब मैं उसके जाने के पश्चात नितांत अकेली रह गयी थी। पिता को तो मैं पहले ही पसंद नहीं थी किन्तु माँ के समझाने पर शांत रहते। भाई छात्रावास में रहता ,पिताजी और मैं घर में अकेले -अकेले रहते। न ही उन्होंने कभी मुझसे कुछ कहा ,न ही कुछ पूछा। मैं खाना भी देती तो कह देते ,-मैं खाना खाकर आया हूँ। '
                    एक दिन बोले -मेरा तबादला किसी दूसरे ज़िले में हो गया है और तुम्हारी शिक्षा अभी अधूरी है ,तुम अपने चाचा के पास रहकर अपनी शिक्षा पूर्ण करना। जी ,कहकर वो शांत हो गयी। किससे कहे ,क्या कहे ?जो उसकी बातें सुनती थी उसको समझती थी ,उसकी दोस्त उसकी माँ तो उसके पास है ही नहीं। पता नहीं, ज़िंदगी किधर ले जाएगी ?बस उसे तो हवा के रुख़ की तरफ़ ही जाना है ,विपरीत दिशा में जाने पर उसे पता नहीं क्या  कुछ झेलना पड़े? झेलती तो वो बचपन से ही आ रही है ,चाचा के यहाँ भी उसने व्यंग्य के सिवा  कुछ नहीं पाया। अपने खर्चे के लिए वो उन पर बोझ नहीं बनना चाहती थी इसीलिए नौकरी भी कर ली। उसका दुःख ,उसकी कल्पनायें अब भी उड़ान लेती हैंऔर वे कल्पनायें उसका दुःख उसकी कविताओं के शब्दों से होकर गुजरता।  माँ के बनाये, विश्वास पर उसका विश्वास आज भी कायम है।लोग उसे नहीं उसके शब्दों उसकी भावनाओं को तो समझते हैं और इतने लोगों की भीड़ में कोई एक तो होगा जो उसे सूरत और सीरत दोनों के साथ अपनाएगा। उसे डॉ 0  ज्ञानेंद्र पसंद तो आया वो किसे पसंद नहीं आएगा ?वो है ही इतना सजीला ,आकर्षक व्यक्तित्व का व्यक्ति किन्तु जब तक ही वो मुझसे मिलना चाहेगा जब तक मुझे देख नहीं लेता। जिस दिन मुझे देख लेगा उसी दिन मेरे प्रशंसक होने का जो दावा कर रहा है ,वो भी नहीं कर पायेगा। उसकी कहानियों से तो लगता है कि वो एक गंभीर और समझदार व्यक्ति है किन्तु ये भी तो नहीं कह सकते जो उसने लिखा हो उसकी सोच भी ऐसी ही हो। तभी उसने सोचा -मैं भी तो लोगों से अपना दुःख -दर्द और तन्हाईयाँ बांटती हूँ। क्या मालूम वो भी अपनी कहानियों के किसी नायक की तरह ही हो ?उसके अंदर एक विश्वास जागा और वो बिस्तर से उठ बैठी और लिखने लगी एक नई कल्पना ,एक नई काव्य रचना। 

                     उधर मयंक के समझाने पर ज्ञानेंद्र भी एक नई उम्मीद से भर गया। ज्ञानेंद्र ने एक बार फिर से प्रयत्न किया ,रूपलेखा ने बातें तो कीं किन्तु मिलने की सहमति नहीं दी। मयंक उसका मनोबल बढ़ाता रहा और एक दिन रूपलेखा ने कहा -आप  यूँ ही  ,मुझसे मिलने को आतुर हो रहे हैं ,एक बार मिलने के पश्चात मुझसे पुनः कोई नहीं मिलता। ज्ञानेंद्र ने उसकी बातों पर ध्यान न देकर अपनी झोंक में कहता चला गया -अजी आप हमसे मिलेंगी तो बार -बार मिलने का मन करेगा और हम जीवनभर यूँ ही मिलते रहेंगे। उसकी बातें सुनकर रूपलेखा मन ही मन हँसी। तुम्हारा तो नाम भी कितना रूपवान है और जिसके  नाम में ही रूप हो,वो  कितनी रूपवान होगी ?आज उससे मेरी पहली मुलाक़ात होगी ,उसने मयंक को फोन किया- तू भी आजा यार !मयंक बोला -ये तुम दोनों की पहली मुलाक़ात है ,इसमें मैं तुम दोनों के बीच में ''क़बाब में हड्डी ''नहीं बनना चाहता। ज्ञानेंद्र के ज्यादा ज़िद करने पर वो आने के लिए तैयार तो हुआ बोला -मैं तुम लोगों से थोड़ी दूर पर ही बैठूंगा। आज रूपलेखा फिर से अपने को  अपमानित होते देखने के लिए अपने को तैयार कर रही थी। ज्ञानेंद्र के बताये स्थान पर पहुँच गयी ,उसने साथ में किसी सहेली या अपने साथ काम कर रही किसी भी लड़की को नहीं लिया। सहेली तो उसकी माँ ही थी उससे आज्ञा लेकर आयी  थी। एक व्यक्ति उसकी और बढ़ा उसे देखकर नज़रअंदाज कर बैठकर इंतजार करने लगा। रूपलेखा उस व्यक्ति को पहचान गयी क्योकि उसकी तस्वीर रूपलेखा ने पहले ही देख ली थी। वो और कोई नहीं ज्ञानेंद्र ही था। उसने उससे पूछा -क्या आप किसी का इंतज़ार कर  रहे हैं ?इतनी काली और भद्दी लड़की  ज्ञानेंद्र ने शायद ही पहले कभी देखी  हो ,वो तो सुंदरता का पुजारी था। उसने रूपलेखा की बातों का ज़बाब देना उचित नहीं समझा। तभी वो इधर -उधर देखने लगा। उसे मयंक भी दिख गया और उसने हाथ हिलाकर उसका  अभिवादन किया। 
                 रूपलेखा ने देखा, कि ज्ञानेंद्र तस्वीर से भी ज़्यादा आकर्षक है फिर उसने सोचा -इसके साथ तो मेरी मित्रता कभी नहीं हो सकती। वो बार -बार इधर -उधर देख रहा था काफ़ी देर बाद भी कोई आता नहीं दिखा तो उसकी बेचैनी बढ़ने लगी। वो बार -बार अपनी घड़ी देख रहा था किन्तु उसने एक बार भी रूपलेखा की तरफ नहीं देखा। वो अपना परिचय देकर अपमानित नहीं होना चाहती थी उसने अपना धैर्य बनाये रखा थोड़े इंतजार के पश्चात वो चली गयी। उधर ज्ञानेंद्र को रूपलेखा पर क्रोध आ रहा था। मयंक भी उसके पास आ गया। उसे देखकर ज्ञानेंद्र बोला -देखा ,उस लड़की में कितना अहंकार है ?मुझे बुलाया भी और आई नहीं। मयंक कुछ समझने का प्रयास कर रहा था किन्तु बोला कुछ नहीं। अगले दिन ज्ञानेंद्र ने फोन किया ,बहुत देर बाद फोन  उठा भी ,उसने आव  देखा न ताव बोला -क्या तुम मुझे ,मूर्ख और बेवकूफ़ समझती हो ?क्या हमारे समय का कोई मूल्य नहीं ?मुझे बुलाया और स्वयं नहीं आयी। उधर से बड़े ही शांत स्वर में आवाज़ आयी। मैं अपना वायदा कभी नहीं तोड़ती ,मैं आई भी थी और आपके पास बैठी भी थी ,मैंने आपसे बात भी की किन्तु आपने कोई उत्तर नहीं दिया। आप मुझसे बात के लिए इच्छुक नहीं थे ,आप मुझसे नहीं बल्कि अपनी सुंदर कल्पना से मिलने आये थे। आपकी कल्पना वहां नहीं मिली तो आपने मुझसे भी बात नहीं की। अब ज्ञानेंद्र को उस काली और भद्दी लड़की की याद आयी  वो अपना सिर पकड़कर बैठ गया। मयंक आया तो उसने उससे सारी बातें बताई ,मयंक बोला -मुझे भी लगा था कि ये लड़की हो सकती है क्योंकि जब वो वापस जा रही थी उसकी आँखों में अश्रु थे। अब क्या करना है ?उसने ज्ञानेंद्र से पूछा। ज्ञानेंद्र तो अपने निर्णय पर पहुंच चुका था ,बोला -अब क्या ?यदि ये वो ही लड़की थी तो बात यहीं समाप्त हो जाती है। मयंक बोला -ये तो उसने पहले ही कह दिया था कि जो मुझसे एक बार मिलता है पुनः प्रयत्न नहीं करता। 

                 लगभग एक माह पश्चात मयंक के विवाह का निमंत्रण पत्र ज्ञानेंद्र को मिलता है। जब वो उसे पढ़ता है तो आश्चर्य से भर जाता है। उसे यकीन नहीं होता ,वो उसकी दुल्हन का नाम दोबारा पढ़ता है. ,अविश्वश्नीयता के साथ वो उसे फोन करता है किन्तु उससे बात नहीं हो पाती। बेचैन सा वो इधर -उधर घूमता है। सोचता है- कहीं उसका दिमाग़ तो ख़राब नहीं हो गया। शाम को मयंक का फ़ोन आता है और कहता है -बड़े भाई ,विवाह में तो आ रहे हो न ?मैं इंतजार करूंगा। ज्ञानेंद्र बोला -मैं सुबह से ही परेशान हूँ और तुम्हें ही फोन लगा रहा था। क्या घर में सब ठीक हैं ?हाँ, घर में सब ठीक है ,किन्तु ये आप क्यों पूछ रहे हो ?क्या तुम नहीं जानते ?ज्ञानेंद्र ने पूछा। दुल्हन कौन है ?मयंक हंसकर बोला -मेरा विवाह है ,क्या मैं नहीं जानूंगा ?दुल्हन प्रसिद्ध कवियत्री ''रूपलेखा ''है। ज्ञानेंद्र बोला -कहीं तुम्हारा मानस पटल विक्षिप्त तो नहीं हो गया। उस लड़की में ऐसा क्या है ?जो तुम ये ख़ुदकुशी करने चले हो। मयंक बोला -उसमें क्या नहीं है ?बाहरी रूप के सिवा ,उसकी माँ का आज विश्वास जीत गया कि कोई तो होगा ?जो उसकी सूरत से नहीं सीरत से प्यार करेगा। वो जो लिखती है झूठ नहीं ,उसे जीती भी है। आप जो लिखते हैं उसके विपरीत सोचते हैं, जैसा लेखन वैसी सोच नहीं इसीलिए आप लोग एक न हो सके।  

     विशेष - कृपया कहानी पढ़ने के पश्चात अपनी टिप्पणी और लाइक भी करें तो मेरे लेखन के प्रोत्साहन के लिए अच्छा होगा ,आप लोगों का एक लाइक ही हमें प्रोत्साहित करता है। और मेरी कहानियां यदि आप पढ़ते रहना चाहते हैं तो मुझे फॉलो भी कर सकते हैं -धन्यवाद। 






















laxmi

मेरठ ज़िले में जन्मी ,मैं 'लक्ष्मी त्यागी ' [हिंदी साहित्य ]से स्नातकोत्तर 'करने के पश्चात ,'बी.एड 'की डिग्री प्राप्त करने के पश्चात 'गैर सरकारी संस्था 'में शिक्षण प्रारम्भ किया। गायन ,नृत्य ,चित्रकारी और लेखन में प्रारम्भ से ही रूचि रही। विवाह के एक वर्ष पश्चात नौकरी त्यागकर ,परिवार की ज़िम्मेदारियाँ संभाली। घर में ही नृत्य ,चित्रकारी ,क्राफ्ट इत्यादि कोर्सों के लिए'' शिक्षण संस्थान ''खोलकर शिक्षण प्रारम्भ किया। समय -समय पर लेखन कार्य भी चलता रहा।अट्ठारह वर्ष सिखाने के पश्चात ,लेखन कार्य में जुट गयी। समाज के प्रति ,रिश्तों के प्रति जब भी मन उद्वेलित हो उठता ,तब -तब कोई कहानी ,किसी लेख अथवा कविता का जन्म हुआ इन कहानियों में जीवन के ,रिश्तों के अनेक रंग देखने को मिलेंगे। आधुनिकता की दौड़ में किस तरह का बदलाव आ रहा है ?सही /गलत सोचने पर मजबूर करता है। सरल और स्पष्ट शब्दों में कुछ कहती हैं ,ये कहानियाँ।

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