आज फिर उसकी कविता छपी है ,उसकी कविता लयात्मक होती हैं ,शब्द जैसे दिल से उभरकर आते हैं ,कविता पढ़कर लगता जैसे मेरे ही दिल से जुड़े शब्द हों। एहसास होता मेरे लिए ही लिखती है ,मैं उसके सपनों का राजकुमार हूँ ,वो मेरे दिल का मर्म समझती है। जो मेरी सोच से उभर कर निकलता ,उसके शब्दों में समाहित हो जाता। शब्द उसके मर्म मेरा ,क्या वो मुझे जानती है ?जो इतना समझती है। नहीं ऐसा नहीं ,मैं भी उसे उसकी कविताओं द्वारा ही जानता हूँ। मैं भी थोड़ा बहुत लिख लेता हूँ ,अपने अंदर के द्व्न्द को अपने लेखों ,कहानियों में प्रस्तुत करता हूँ। मैं चाहता भी हूँ कि वो भी मेरी कविताओं की कल्पना हो किन्तु बिन ,रस अलंकार काव्य कैसे लिखा जाये ?मैंने प्रयत्न भी किया किन्तु शब्द न जाने कहाँ विलुप्त हो जाते हैं
?उसकी कल्पना में मैंने अपने भावों को अपनी कहानियों में व्यक्त किया किन्तु कभी उस नाम की लड़की का कभी कोई प्रशंसक नहीं मिला परन्तु उसे भी मेरे जैसा प्रशंसक नहीं मिलेगा। काश !कि वो कभी मेरे सामने आ जाये और मैं उससे अपने दिल का हाल बयाँ कर सकूँ। उसकी कविताओं के साथ कभी उसकी तस्वीर भी नहीं छपी , एक पल उसे निहार ही लेता। पता नहीं कैसी होगी ?तभी मयंक ने घर में प्रवेश किया और पत्रिका मेरे हाथ में देखकर बोला -आज भी शायद मेरी काल्पनिक भाभी की कविता छपी है। हाँ ,यार !वो कविताएं तो लिखती है किन्तु अपनी तस्वीर नहीं डालती। आज के समय में ऐसा कौन होगा ?जो अपनी इतनी अच्छी कविताओं के साथ अपनी पहचान छुपाना चाहेगा।मयंक को शरारत सूझी ,बोला -कहीं हमारी काल्पनिक भाभीजी कोई अधेड़ या बुजुर्ग महिला तो नही। उसके मज़ाक पर कपिल एकबारग़ी सिहर उठा। बोला -कुछ अच्छा नहीं कर सकते तो बुरा तो मत बोलो। और उसने पुनः पत्रिका की तरफ नज़र दौड़ाई ,उसके कुछ शब्द उसकी नज़रों के सामने घूम रहे थे।
?उसकी कल्पना में मैंने अपने भावों को अपनी कहानियों में व्यक्त किया किन्तु कभी उस नाम की लड़की का कभी कोई प्रशंसक नहीं मिला परन्तु उसे भी मेरे जैसा प्रशंसक नहीं मिलेगा। काश !कि वो कभी मेरे सामने आ जाये और मैं उससे अपने दिल का हाल बयाँ कर सकूँ। उसकी कविताओं के साथ कभी उसकी तस्वीर भी नहीं छपी , एक पल उसे निहार ही लेता। पता नहीं कैसी होगी ?तभी मयंक ने घर में प्रवेश किया और पत्रिका मेरे हाथ में देखकर बोला -आज भी शायद मेरी काल्पनिक भाभी की कविता छपी है। हाँ ,यार !वो कविताएं तो लिखती है किन्तु अपनी तस्वीर नहीं डालती। आज के समय में ऐसा कौन होगा ?जो अपनी इतनी अच्छी कविताओं के साथ अपनी पहचान छुपाना चाहेगा।मयंक को शरारत सूझी ,बोला -कहीं हमारी काल्पनिक भाभीजी कोई अधेड़ या बुजुर्ग महिला तो नही। उसके मज़ाक पर कपिल एकबारग़ी सिहर उठा। बोला -कुछ अच्छा नहीं कर सकते तो बुरा तो मत बोलो। और उसने पुनः पत्रिका की तरफ नज़र दौड़ाई ,उसके कुछ शब्द उसकी नज़रों के सामने घूम रहे थे।
दिल के आईने में ,वो हमारी तस्वीर छुपाये बैठे हैं ,
हम यूँ ही अनजान राहों से, उम्मीद लगाए बैठे हैं।
नहीं ,ऐसा नहीं हो सकता ,उसे मेरी तलाश है और मुझे उसकी। लगता है ,जैसे वो कविताओं द्वारा मेरे दिल पर अपना अधिकार करती जा रही है। वो लिखती ही इसीलिए है ताकि मेरे दिल की गहराइयों में अपनी कविताओं की सीढ़ी बनाकर उतर सके। उससे मिलने की इच्छा बलवती होती जा रही थी। मैं उस पत्रिका के सम्पादक महोदय से मिलने की इच्छा से चल पड़ा। वैसे तो मैं उन्हें जानता हूँ किन्तु यहां तो दिल का मामला है। किसी तरह उसके घर का फोन नंबर प्राप्त किया। मेरा मन ख़ुशी के कारण 'बल्लियों उछल रहा था ''काँपते हाथों से और धड़कते दिल से मैंने फोन किया। अभी घंटी बज रही थी कि मेरा दिल जोर -जोर से उछलने लगा। मैंने उसे बहुत ही नियंत्रित करने का प्रयास किया किन्तु वो तो जैसे मुझसे पहले उससे मिलने को आतुर था सीने से बाहर आ जाने को आतुर था। सोचा ,फोन रख दूँ ,तभी उधर से आवाज़ आयी -हैलो !मैं दिल की धड़कनों पर नियंत्रण रखने में असमर्थ ,ये भी नहीं पूछा -वो ही थी ,या कोई और।कुछ शब्द ही नहीं निकले उधर से हैलो !हैलो !आवाज़ आती रही और मैंने फोन रख दिया।गला सुख गया था ,पानी पिया और बिस्तर पर लेटकर अपनी श्वासें संयत करने का प्रयत्न करने लगा।
अगले दिन उसकी कविता की पहली पंक्ति ही मुझे हिला गयी। -
उनका दिल मेरे दरवाज़े पर ,दस्तक़ देता है बार -बार ,
दरवाज़ा तो उसकी आहट पर ही खुलता है ,पता नहीं ,
ऐसे लग रहा था ,जैसे वो मेरे ही इंतजार में है ,उसे मेरी ही तलाश है ,वो भी बेचैन है ,मैं भी ,आग दोनों तरफ बराबर लगी है। मैं भी न क्या -क्या सोचने लगता हूँ ?वो तो मुझे जानती भी नहीं ,अबकि बार इस दिल की नहीं सुनुँगा। यही सोचकर फिर से फोन घुमा दिया। उधर से बहुत ही कर्कश आवाज़ ने मेरा ध्यान भंग हुआ। कौन है ?बार -बार फोन करता है ,कहता कुछ नहीं। हिम्मत कर मैंने कहा -जी इससे पहले तो मैंने फोन किया ही नहीं ,मैंने तो पहली बार ....... इससे पहले मैं अपना वाक्य पूर्ण कर पाता ,उधर से आवाज़ आई तो कोई और होगा। क्षमा कीजिये ,आपने किसलिए फोन किया ?उस महिला ने अपनी वाणी में मधुरता लाते हुए कहा। जी मैं ,वो कवियत्री 'रूपलेखा 'जी से। हाँ बताइये ,क्या काम है ?क्या आप ही........ ?नहीं मैं उसकी चाची बोल रही हूँ ,मैंने गहरी और लम्बी साँस ली। लड़कियाँ विवाह से पहले कितना मधुर बोलती हैं ?और ये ही विवाह के बाद ,पता नहीं कैसे बदल जाती हैं ?अभी मैं ये सब सोच ही रहा था ,उधर से आवाज़ आयी जी कहिये !की आवाज़ जैसे कानों में मधुर घंटियाँ बजने लगीं। जी ,आपकी कविता पढ़ी ,ह्रदय में उतर गयी। जी धन्यवाद ,उधर से आवाज़ आई। बात आगे बढ़ाते हुए मैंने पूछा -क्या आप जानना नहीं चाहेंगी ?कि मैं कौन ?जी मैं किस -किसका परिचय पूछूँगी ,जिसे मिलना या बातें करनी होती हैं ,वो मेरा पता अवश्य ही निकाल लेता है। मैं आपकी नज़र में एक कवियत्री हूँ ये मेरी पहचान है और आप एक प्रशंसक ये आपकी पहचान है। जी नहीं ,मैं प्रशंसक होने के साथ -साथ एक छोटा -मोटा लेखक भी हूँ। लेखक सिर्फ एक लेखक होता है ,ये छोटा या मोटा क्या ?शायद उसे मजाक सूझा ,बोली -क्या आप अपने व्यक्तित्व की बातें कर रहे हैं ?जी नहीं दिखने में तो मैं बड़ा ही सजीला नौजवान हूँ। माफ़ कीजिये ,क्या मैं आपका नाम जान सकती हूँ ?अजी नाम में क्या रखा है ?काम से पहचान कराते हैं ,मैने कहा। जी बताइये क्या काम करते हैं ?आपने मेरी कहानियाँ -कहानी ग़रीब की ,मुक्ति ,एक कवि की मौत तो पढ़ी ही होंगी तो मुझे जान जाएँगीं। जी नहीं मैंने ,इन नामों की कोई कहानी नहीं पढ़ी ,सुनकर लगा ,इतनी बेइज़्जती तो आज तक कहीं नहीं हुई। फिर भी बात को संभालते हुए मैंने कहा -तभी तो मैं कह रहा था कि मैं एक छोटा लेखक हूँ साथ ही उसे ताना भी मार दिया -हम तो आपकी कोई कविता बिना पढ़े नहीं छोड़ते और आपने अभी इधर का रुख़ भी नहीं किया। क्षमा कीजिये ,मुझे ज्यादा समय नहीं मिल पाता ,मैं नौकरी भी करती हूँ उसके पश्चात जो भी समय मिल पाता है उसमें कोई छोटी सी कविता लिख डालती हूँ ,आपको अच्छी लगती हैं ,उसके लिए धन्यवाद ,जैसे उसने बातों का सिलसिला समाप्त करना चाहा।
मैं भी इतने अल्प समय में इतनी बातें कर गया ,मुझे स्वयं पर ही आश्चर्य हो रहा था। मैंने भी बातों को विराम देते हुए कहा -मेरी कहानियाँ पढ़िए तो मेरा नाम भी जान जायेंगी और मुझे फोन भी कीजियेगा। जी अवश्य ,कहकर उसने फोन रख दिया। चाची तब से वहीं आसपास घूम रही थी ,उसके फोन से हटते ही बोली -कौन था ?पता नहीं ,मेरी कविताओं की प्रशंसा कर रहा था और अपनी कहानियों, लेखों का प्रचार रूपलेखा ने जबाब दिया।क्या नाम था उसका ? चाची ने पूछा। पता नहीं ,कह रहा था-' मेरी कहानियाँ पढ़ोगी तो जान जाओगी , कहकर वो अपने कमरे में आ गयी। पीछे से चाची कहती रही -मैंने सोचा तुम्हारे रिश्ते के लिए आया है कहकर मुस्कुरा दीं किन्तु रूपलेखा ने नज़र अंदाज कर दिया। चाची तो ऐसी ही हैं। अपने कमरे में जाकर सोचने लगी -कौन हो सकता है ?अगले दिन उसने अपने साथ काम करनेवाली लड़की शिवानी से उन कहानियों के लेखक के विषय में जानना चाहा किन्तु उसने अनभिग्यता जाहिर की।
रूपलेखा की जिज्ञासा बढ़ती गयी और वो परेशान हो उठी ,वो कहानियाँ पढ़ना चाह रही थी। उसने किताबों की दुकान पर जाकर उन कहानियों के नाम बता पुस्तक माँगी। तब दुकानदार ने उसे एक पत्रिका उठाकर दी। उसमें उसने उस व्यक्ति का नाम जानना चाहा। कहानी के अन्त में देखा ,डॉक्टर ज्ञानेंद्र साथ में उसकी तस्वीर भी छपी थी। देखने में ये डॉ 0 ज्ञानेंद्र भला सजीला व्यक्ति लग रहा था। आकर्षक
रूपलेखा की जिज्ञासा बढ़ती गयी और वो परेशान हो उठी ,वो कहानियाँ पढ़ना चाह रही थी। उसने किताबों की दुकान पर जाकर उन कहानियों के नाम बता पुस्तक माँगी। तब दुकानदार ने उसे एक पत्रिका उठाकर दी। उसमें उसने उस व्यक्ति का नाम जानना चाहा। कहानी के अन्त में देखा ,डॉक्टर ज्ञानेंद्र साथ में उसकी तस्वीर भी छपी थी। देखने में ये डॉ 0 ज्ञानेंद्र भला सजीला व्यक्ति लग रहा था। आकर्षक
व्यक्तित्व था उसका। क्षणभर को रूपलेखा उसे देखती रह गयी ,उसने उसकी बतायी कहानियाँ पढ़ीं। तो ज़नाब ,ने भावनाओं का गहराई से अध्ययन किया है ,गरीबों की गरीबी उनकी मजबूरी का भी एहसास है। लिखते समय लगता है जैसे उसी चरित्र को जिया है ,महसूस किया है। जो भी है अच्छा ही लिखा है ,कॉलिज में लेक्चरर भी हैं , सोचा- उसे फोन करूं या नहीं ,और फिर भी फोन नहीं किया। तीन -चार दिन बाद उसी का फोन आया। बोला -महोदया ,लगता है ,आप तो हमें भूल ही गयीं। जी नहीं ऐसी कोई बात नहीं रूपलेखा ने हिचकिचाते हुए कहा -वैसे आपकी कहानियां अच्छी हैं। बस अच्छी हैं ,वैसे बताइये आप कहाँ काम करती हैं ?जी इससे आपको क्या ?मैं अजनबी लोगों से ज्यादा बात नहीं करती। वो तो आप मेरी कविताओं के प्रशंसक हैं इसीलिए -----अजी हम भी कोई मौहल्ले के उठाईगिरे नहीं। आपने मेरा परिचय तो पढ़ा ही होगा। हम सभ्य और ज़िम्मेदार व्यक्ति हैं ज्ञानेंद्र बोला। जी मेरा वो मतलब नहीं रूपलेखा बोली। हमारी दो बार बातचीत हो चुकी और दोनों के शौक़ भी एक जैसे ही हैं ,अब हम अजनबी कहाँ हुए ?ज्ञानेंद्र बोला। रूपलेखा मन ही मन सोच रही थी, क्या मुसीबत है ?ज़बरदस्ती जान-पहचान बना रहा है। तभी ज्ञानेंद्र बोला -क्या हम मिल सकते हैं ?क्यों ?रूपलेखा अचानक बोली। मैं आपको समझना चाहता हूँ और जान -पहचान भी बढ़ाना चाहता हूँ। जी ,बस फोन तक ही ठीक है कहकर उसने फोन रख दिया।
रूपलेखा क्या डॉक्टर ज्ञानेंद्र से मिली या नहीं? मिली तो क्या उनकी मुलाकातें बढ़ीं प्यार हुआ या नहीं और उनकी मुलाकातें किस हद तक पहुंच पायीं ? जानने के लिए पढ़िए -काव्य -लेखन का भाग २