कभी -कभी लोगों को कहते सुना होगा -'ये कार्य हमारी सात पुश्तों से चला आ रहा है। ''अथवा ये हमारी सात पीढ़ियां हैं।अथवा '' ये रीति -रिवाज़ ,परम्परा हमारे परिवार में'' पीढ़ी दर पीढ़ी ''चली आ रही है। प्राचीन समय में तो अपने बुजुर्गों के चित्र रखते थे और बताते हुए गौरवान्वित होते थे कि ये हमारे दादा जी ,ये उनके दादाजी ,इस तरह उन्हें अपनी सात पुश्तों की जानकारी होती थी। आज के समय में तो किसी को अपनी चार पुश्तें भी याद रह जाएँ तो ग़नीमत मानिये। और किसी परिवार में चार पीढ़ियां भी एक साथ रह जाएँ तो चर्चा का विषय बन जाता है, क्योंकि तीन -चार पीढ़ियां भी आज के समय में एक साथ नहीं रह पातीं। इसका एक कारण तो बच्चों का देर से विवाह भी है ,जब तक तीसरी पीढ़ी आती है तब तक एक पीढ़ी जा चुकी होती है। अब तो दादा -दादी भी किसी परिवार में मिल जाएँ तो, वहाँ आ जाता है ''जनरेशन गेप ''यानि की उम्र का ही नहीं सोच का भी अंतर् आ जाता है, यानि पीढ़ी की सोच का अंतर्, और ये अंतर् ही दो पीढ़ियों में टकराव पैदा करता है। हर पीढ़ी अपनी आने वाली पीढ़ी को अपने 'अनुभव' और अपने' संस्कार' देना चाहती है ,और नई पीढ़ी कुछ नया अनुभव करना चाहती है ,वो अपनी सोच के आधार पर आगे बढ़ना चाहती है। ऐसी स्थिति में दो अथवा तीन पीढ़ियों में टकराव की स्थिति उत्पनन होती है। ये नहीं कि आने वाली पीढ़ी के लिए ,दूसरी पीढ़ी अपनी सोच नहीं बदलती। वो भी बदलती है किन्तु कुछ न कुछ ऐसा हो ही जाता है कि टकराव पैदा हो ही जाता है।
जब मैं छोटा था ,तब हमारी दादी और माँ दोनों ही पर्दा करती थीं। कुछ धनाढ्य परिवार की महिलायें बाहर ही नहीं निकलतीं थीं। तब ये जुमले सुनने को मिलते चौधरियों और जमींदारों की बहुएँ दहलीज़ नहीं लांघतीं। मैं पढ़-लिखकर बाहर नौकरी करने लगा और परिवार की परम्परा को निभाते हुए ,मैंने भी विवाह कर लिया। पत्नी पढ़ी -लिखी थी ,परम्पराओं को मानती और निभाती भी थी किन्तु पर्दे को लेकर थोड़ी कुंठित भी रहती थी। हमने उसकी परेशानी को समझते हुए ,एक वर्ष पश्चात ठीक से भोजन न मिल पाने का कारण बता ,उसे अपने साथ शहर ले आये। इस तरह उसे पर्दे से निज़ाद तो मिली किन्तु चेतावनी भी। ''माँ -बाबूजी ''के सामने पर्दा हटने न पाए। न चाहते हुए भी कामिनी ने हमारे विश्वास को टूटने नहीं दिया। उस समय हम जैसे लोग माता -पिता की आज्ञा का उलंघन करने की सोच भी नहीं सकते थे। कभी -कभी माँ आ भी जाती ,तो जो काम हमारी माताजी आसानी से कर लेतीं थीं ,कामिनी नहीं कर पाती या यूँ कहें, करना नहीं चाहती। माताजी सिखाने का प्रयत्न भी करतीं ताकि बहु घर के कार्यों और रीति -रिवाज़ों को सही से समझ ले किन्तु कामिनी मुझसे आकर शिकायत करती कि आजकल ये सब कौन करता है ?ये सब पुराने समय की बातें हैं। मैं समझ सकता था कि ये वो ही दो पीढ़ियों की सोच का अंतर् है।
किन्हीं बातों से मैं भी अपने पिता से असहमत होता किन्तु'' संस्कार और सम्मान ''दोनों ही उनकी बात का विरोध करने के लिए मना करते।किन्तु कभी -कभी कह भी जाते -''अब ज़माना बदल गया है। ''ज़माना कैसे बदलता है ?ये आज समझ आ रहा है।'' ज़माना हमारी सोच और पीढ़ियों के अंतर् से बदलता है।''मैं कभी -कभी अपने पिता को समझाने का प्रयत्न भी करता -थोड़ा तो समय के साथ बदलाव आना भी चाहिए। पिता का जबाब होता -''हमने तो अपने बचपन में ही हल थाम लिया था ,स्वयं न पढ़ पाए किन्तु तुम्हें पढ़ाया। ये सोचा -'' जीवन के जो रंग हम न देख सके ,वो हमारा बेटा देख ले ''तुझे पढाया -लिखाया शहर भेजा ,उसके बदले हमने क्या चाहा ?कि हमारा बेटा उन्नति करें और हमारा मान -सम्मान बना रहे। क्या हमने ग़लत किया ?आज भी बिरजू का बेटा ,अपने बाप के साथ उसका हाथ बंटाता है ,तेरे ही साथ का है। हमने तो ये ही चाहा -हमारी आने वाली पीढ़ी आगे बढ़े ,तब भी कमी हममें है ''बात तो उनकीअपनी जगह सही थी। किन्तु हमारी भी अपनी समस्याएँ हैं ,उनकी बातें सुनकर चुप रहना ही बेहतर समझा। हम वरुण और दिया दो बच्चों के माता -पिता हो गए। दादा -दादी तो दोनों झूम उठते और जब वो अंग्रेजी में ''गिटर -पिटर ''करते तो समझ न आने पर भी अपनी तीसरी पीढ़ी को देख बलाएँ लेते। हमारी भी अपने बच्चों से कुछ अपेक्षाएँ थीं ,या यूँ कहें ,थीं नहीं, हो जाती हैं।
हमने तो समय के साथ अपने को बदलने का पहले ही मन बना लिया था कि हम पढ़े -लिखे माता -पिता होने के नाते अपनी कोई इच्छाएँ अपने बच्चों पर नहीं थोपेंगे ,बहु से कोई पर्दा ,घूंघट भी नहीं कराएंगे और नौकरी करना चाहे तो कर सकती है। इसी सोच के साथ हम अपने को'' आदर्श माता -पिता '' समझे बैठे थे। किन्तु वही पीढ़ी की सोच का अंतर् ,हम कितना भी नई पीढ़ी के साथ दौड़ें ,पीछे रह ही जाते हैं। बेटी ने ''लव मैरिज ''की इच्छा जाहिर की। उसकी बातें सुनकर दिमाग में सन्नाटा छा गया ,हमारी पीढ़ी में न ही किसी ने की और न ही सोचा। किसी तरह समझा - बुझाकर ,डांट -डपटकर उसका विवाह किया। लेकिन बेटे ने तो इतना मौका भी नहीं दिया ,पूछा भी नहीं और ''क़ानूनी विवाह ''करके आ गया। माँ -बाबूजी और परिवार के अन्य सदस्यों का सोचकर ,इज्ज़त की खातिर ,उनका बाकायदा विवाह करवा दिया। बाबूजी को थोड़ा शक़ भी हुआ ,पुराने अनुभवी जो ठहरे। तब हमने समझदारी दिखाते हुए कहा -क्या करें बाबूजी ?आजकल के बच्चे हैं ,पढ़े -लिखे हैं ,जीवन इन्हें व्यतीत करना है हमें नहीं ,इनका आपस में मन मिलना चाहिये। करते भी क्या ?हमें ही समझदारी दिखानी थी ,वरना बेटा भी हाथ से जाता। इसे समझदारी कहें या वक़्त के साथ समझौता अथवा बदलाव, कुछ भी कह सकते हैं।इतने समझौते के बाद भी हमने अपनी समझदारी का परिचय देते हुए ,बहु से कहा -बेटा !सर पर पल्ला ही रख लेना ,घूँघट वगैहरा की कोई आवश्यकता नहीं। कुछ समय पश्चात उसने नौकरी की इच्छा ज़ाहिर की। पिताजी ने तो सुनते ही मना कर दिया किन्तु समय की मांग को देखते हुए हमने उन्हें ही समझाना बेहतर समझा ,महंगाई का वास्ता दिया और बहु को नौकरी की इजाज़त मिल गयी। कुछ वर्ष तो साड़ी में रही ,समय बीतते सूट में आ गयी। हमने अपने मन को समझाया कि इसमें कोई बुराई नहीं ,पूरा तन ढकता है ,काम में सुविधा रहती है। हम भी समय के परिवर्तन को देखते हुए अपने आपको ही बदलने का प्रयत्न करते रहे। एक दिन हम बाहर बैठे समाचार -पत्र पढ़ रहे थे ,तभी बराबर में से कोई निकलकर गया। और जब हमने अपनी नज़रें उठाकर देखा तो बहु जींस में जा रही थी और जींस पर तो दुपट्टा ओढ़ते ही नहीं।
हमने अपने आप को नई पीढ़ी के साथ कितना बदलने का प्रयत्न किया ?किन्तु ये लोग तो चल नहीं दौड़ते नज़र आ रहे हैं। हमने घूंघट हटवाया ,सूट पहनने दिया ,नौकरी करवाई फिर भी हम पिछड़ गए। तब हमने कहा - कि जब ज़रूरी हो तो जींस और पजामी पहनना ,वो भी बाहर घर में नहीं ,हमारे इतना कहने पर ,बहु को क्रोध आना स्वाभाविक था और बोली -दुनिया कहाँ से कहाँ पहुंच गयी ?और ये लोग अभी पहनावे में ही अटके हैं। हम नई पीढ़ी के साथ दौड़ नहीं सके न ही इच्छा थी। बहु -बेटा दोनों सास -ससुर के घर में रह रहे थे और महंगाई के चलते इतनी सुविधाओं के साथ , अलग घर लेकर रह भी नहीं सकते थे। इस तरह मजबूरी में दो पीढ़ियों के बीच समझौता हुआ। वरुण के बेटा -बेटी भी बड़े प्यारे और चंचल थे। अब हम दादा -दादी की श्रेणी में आ गए किन्तु मैं अपनों की छत्र -छाया खो चुका था। प्रियांशु और ऑलिविया कैसे नाम रखे हैं ? नाम लेते हुए भी जोर पड़ता है। अनिल -सुनील ,अरुण -वरुण इतने नाम हैं। ख़ैर मूल से ब्याज़ प्यारा होता है ,जैसे भी हैं हमारे हैं। बच्चे सारा दिन फोन पर रहते ,समय के साथ उम्र और अनुभव दोनों ही बढ़ रहे थे। सोचा -पति -पत्नी दोनों नौकरी करते हैं ,बच्चे फ़ोन चलाते रहते हैं ,न कहीं आना न जाना ,न ही खेलते। फोन पर ही पढ़ाई करते ,हमने फिर अपनी सोच को बदला और बच्चों से दोस्ती की। उन्हें कहानियाँ सुनाते, उनके साथ खेलने जाते ,पढ़ने में मदद करते। प्रयत्न यही रहता कि बच्चे अपने संस्कारों से परिचित हों ,अपने रिश्तों को पहचाने उनका मान करें ,अब इसी उद्देश्य के तहत हम अपने कार्यो को अंजाम देने का प्रयत्न करने लगे किन्तु बाहरी परिवेश उन्हें अपनी ओर खींचता ,उन्हें दादा -दादी की बातें ,उनका समझाना ,उन्हें अब बोर करता। अब वो अपने हम उम्र दोस्तों के साथ रहना ,घूमना चाहते।
हमारी मेहनत कितनी सफल हुई? ये तो नहीं पता किन्तु पोती की जींस कटकर निक्कर बन गयी [जिसे वो शॉर्ट्स ]कहती । कपड़ों की बाजू नहीं रही ,जो फ्रॉक वो दस -बारह वर्ष की पहनती थी उसे अब भी पहनने का प्रयत्न करती।एक दिन अपने बेटे से पूछ ही लिया -ये केेसे कपडे पहने हैं ,इसने ?इससे पहले कि वो कुछ कहता ,पीछे से बहु बोल उठी- आजकल सब ऐसे ही कपड़े पहनते हैं। बेटी ऐसे कपड़े पहनेगी तो , बहु से क्या उम्मीद रखते हो ?वरुण बोला -पापा आप सठिया गए हैं ,आजकल लड़कियाँ ऐसे ही कपड़े पहनती हैं ,ऐसे में यदि ये सूट -सलवार पहनती है तो क्या अच्छा लगेगा ?पहनाये भी ,तो इसे 'बहनजी' कहकर चिढ़ाते ,तब मैंने ही इसे इजाज़त दी। वे बोले -सब क्या पहनते हैं ?मुझे इस बात से कोई फ़र्क नहीं पड़ता किन्तु मेरे घर में कैसे वस्त्र पहने जाते हैं ?इससे फ़र्क पड़ता है। कल को सब नंगे घूमने लगे तो क्या तुम भी नंगे घूमोगे ?हर घर -परिवार की एक मर्यादा होती है ,बड़ों की शर्म -लिहाज़ कुछ होती है कि नहीं। आधुनिकता के नाम पर ,दूसरों के कहने मात्र से तुमने अपना पहनावा बदल दिया। जब हमारी बेटी ऐसे वस्त्र पहनेगी तो क्या बहु सूट -साड़ी में आयेगी? या फिर इससे भी छोटे कपड़ों वाली लाओगे। कपड़ों से नहीं व्यक्ति की सोच उसे आगे बढ़ाती है,और ये शुरुआत सबसे पहले हमें अपने घर से करनी चाहिए। मैंने तुम्हारी पत्नी को जींस पहनने के लिए मना नहीं किया किन्तु पहनने वाले को भी तो देखना चाहिए ,जो तुम पहनावा पहन रहे हो वो तुम्हारे व्यक्तित्व को निखार रहा है या दबा रहा है। लज्जा औरत का गहना है ,तुम इसे बच्ची समझ इसे कब तक बढ़ावा देते रहोगे ?क्या सादगी में सुंदरता नहीं ?और वो अपनी पत्नी की तस्वीर लाकर उसे दिखा ते हैं ,तस्वीर में सिर पर पल्ला रखे उसकी माँ की गरिमामयी तस्वीर थी ,आज उसने माँ को नज़र भरकर देखा कितनी सौम्य और सरल लग रही हैं ?
बड़े -बड़े घर की बहुयें -बेटियाँ ,राजकुमारियाँ कितने वस्त्र पहनती थीं ?क्या वो सुंदर नहीं लगती थीं। यदि तुम्हारी सोच सही और सुंदर होगी तो तुम्हारा सम्पूर्ण व्यक्तित्व खिल उठेगा। इस अंधी दौड़ में कहाँ तक दोड़ोगे ?थक जाओगे। हाथ कुछ नहीं लगेगा ,मैंने तो आज तुम्हें समझा दिया। मैंने तीन पीढ़ियां देखीं -घूँघट से आजादी मिली तो पल्लू भी नहीं रहा और अब कपड़े भी छोटे हो गए। क्या इसे ही ''नारी सशक्तिकरण ''कहते हैं ?मैं मानता हूँ ,हर पीढ़ी की सोच में अंतर् आता है। यदि तुम्हारे मन में अपने संस्कारों के प्रति तनिक भी सम्मान है ,तभी तुम अपनी आने वाली पीढ़ी को सम्मान करना सिखा पाओगे। आगे बढ़ते जाने की एक सीमा होती है ,उस सीमा को मत लाँघो। फिर बाहर की और घर की महिलाओं में क्या अंतर् रह जायेगा ?ये जीवन तुम्हारा ,तुम्हारे बच्चों का है ,मैं तो अपना जीवन काट चुका,अब तुम्हें देखना है कि तुम अपने परिवार को किस ओर ले जाते हो ? ये मेरी कुछ यादें थीं जो मैं आप लोगों में बाँटना चाहता था। हर पीढ़ी में अंतर् तो आता ही है किन्तु हमारा भी कर्त्तव्य बनता है कि उन्हें उनके हाल पर न छोड़कर उनका सही मार्गदर्शन करना।