Aaina

                      '' आईने के सौ टुकड़े करके हमने देखे हैं ,एक में भी तन्हा थे ,सौ में भी अकेले हैं। ''

ये गाना बड़ी ही तेज़ आवाज़ में चल रहा था ,उसके समाप्त होते ही दूसरा गाना  प्रारम्भ हो गया। 
                   
                        '' आईना मुझसे मेरी पहली सी सूरत माँगे ,मेरे अपने मेरे होने की निशानी माँगे। 


अब तक भीड़ भी काफी हो चुकी थी ,तभी पर्दा उठता है और एक लड़की का स्टेज़ पर आती है और बोलना प्रारम्भ करती है --आप सभी का स्वागत है ,आज हम आपको कुछ झलकियाँ दिखायेंगे जो हमारे  ही जीवन का पहलू हैं। हमारे नाटक का नाम है -''आईना ''.वो 'आईना 'जो हमें हमारा अक्श दिखाता है ,हमें सजाता है ,हमारी अपने आपको  संवारने में मदद भी करता है किन्तु वो आइना तो बाहरी है जो हमारे बाहरी आकार ,रंग -रूप ,हमारी शक़्ल -सूरत से हमारी पहचान कराता है लेकिन आज मैं उस आईने की बात कर रही हूँ जो हमारी अच्छी -बुरी सब यादें संजोता है ,रिश्तों को दिल से जोड़ता है और जब वही रिश्ते दगा दे जाते हैं तो ये ही टूटता है और जब ये टूटता है तो इसके साथ ही विश्वास ,अपनापन लोगों का साथ ,सब टूटता नज़र आता है और इंसान इस भरी दुनिया में अपने को अकेला पाता है। उसे  पता है, कि रिश्ते हैं किन्तु यही रिश्ते बेगाने हो जाते हैं। ये आईना हमें हमारी पहचान कराएगा। मैं एक बेटी के रिश्ते से आपको परिचित कराऊँगी ,जिसके दिल के ''आईने ''में माता -पिता और बहन -भाई की तस्वीर होती है और विवाह के पश्चात उसका पति और उसका परिवार। बस इतनी बड़ी दुनिया तो होती है उसकी। इन्हीं रिश्तों से रूबरू होती है किन्तु ये रिश्ते ही उसे सारी दुनिया दिखला देते हैं। जीवन के कटु सत्य से परिचित करा देते हैं ,आइये देखते हैं -
फोन की घंटी बजती है -बालाजी फोन उठाती हैं ,हैलो। दूसरी तरफ  से रुआँसी आवाज़ आती है -मम्मी !बालाजी, बेटी की आवाज़ से ही समझ जाती हैं कि बेटी किसी न किसी बात से परेशान है। सोचते हुए कहती हैं -कैसी है बेटा ?दामाद जी ठीक हैं। बेटी अपनी बात को छुपा बोली -हाँ सब ठीक है। इससे पहले कि वो कुछ और कहती ,बालाजी बोलीं -हाँ ,ठीक है, ऐसे ही रहो। तेरे पापा की तबियत थोड़ी ठीक नहीं। पापा का नाम सुनकर प्रिया थोड़ी विचलित सी होकर, अपनी परेशानी भूल पूछती है -क्यों ,क्या हुआ पापा को ?अरे ,वो ही 'शुगर 'और क्या मीठे से  परहेज़ करते ही नहीं। तेरा भाई ,उसका काम थोड़ा मंदा चल रहा है ,सारा दिन मेहनत करता है फिर भी बात नहीं बन रही।अच्छा तू तो ठीक है सुनकर अच्छा लगा। अच्छा अब फोन रखती हूँ ,अपना ख़्याल रखना।जी अच्छा, ही कह पाई और फोन कट गया।  
 प्रिया ने अपनी परेशानी बताने के लिए अपनी मम्मी को फोन किया ताकि वो उसकी परेशानी समझें या सुन ही लें तो मन हल्का हो जाये किन्तु बालाजी ने तो उसे बताने का मौका ही नही दिया। अपना रोना अपनी परेशानी सुनाकर फ़ोन  बंद कर दिया। मैंने क्यों फोन किया ?मम्मी ने  ये भी जानने का प्रयत्न नहीं किया। कहते हैं -माँ को तो अपने बच्चों की परेशानी का आभास हो जाता है। क्या वो मेरी परेशानी  समझती नहीं या समझना नहीं चाहतीं? वो जानती तो हैं कि मेरी सास का मुझसे और मेरे परिवार के प्रति उनकी क्या सोच है ?

           आज प्रिया  की सास ने उस पर हाथ उठाया है ,कारण -उसके किसी नेग का कपड़े और सामान देखकर वो बिफ़र गयीं, बोलीं -तेरी माँ को इतनी भी अक़्ल नहीं, कि बेटियों को कैसे दिया जाता है ?और किसी को तो क्या देगी ?उसने तो अपनी बेटी को ही ठीक से सामान कपडे नही दिए इन्हें आजकल कौन पहनता है ?सुनकर प्रिया  को बुरा लगा  और बोली -जैसा भी है मुझे दिया है ,मैं संभाल लूँगी। प्रिया  का इस तरह पलटकर जबाब देना ,उनके क्रोध को बढ़ा गया ,जो क्रोध उसके मायके वालों पर था वो उस पर उतर  गया। और उन्होने  आव देखा न ताव उसके चेहरे पर दो तमाचे जड़ दिए और बोलीं -आइंदा मेरे सामने ज़बान मत चलाना। आये दिन, कोई न कोई ताना देती ही रहतीं हैं ,जब उनकी बातें सुनती हूँ तो लगता है कि ठीक ही तो कह रहीं है। मैंने भी, कितनी बार मम्मी से कहा  भी ,कि यदि मुझे देना ही है ,तो चाहे कम दो किन्तु मैं उसे पहन सकूँ या अपने किसी काम में ला सकूँ। न ही उधर मम्मी सुनती हैं न ही इधर सास समझने का प्रयत्न करती है। मैं कहाँ जाऊँ ,क्या करूँ ?सभी रिश्तों को समझने और निभाने का, जैसे मैंने ही ठेका ले लिया हो। तब तो कह देतीं थीं कि तेरे पिता अकेले कमानेवाले हैं ,अभी और भी ज़िम्मेदारियाँ हैं।सुनकर प्रिया  चुपचाप जैसे भी माँ सामान देती ,ले आती। 
                  विवाह का दृश्य -,ये प्रिया के भाई का विवाह हो रहा है ,खूब क़ीमती जेवर और साड़ियों से भरा स्थान। ये सब सामान उसकी भाभी के लिए है। प्रिया  भी खुश है ,तभी उसकी सास उसके कंधे पर हाथ रखती है ,और बोली -देख लिया ,अब तेरी माँ को साड़ियाँ सामान कैसे खरीदने आ गए ?ये सब भाभी के लिए हैं ,अच्छा ही देंगे न ,अब तो भाई भी कमाने लगा ,अब तो ख़र्चे बढ़ेंगे ही ,देखना !अब  तो मैं भी बढ़िया ही लाऊँगी। मेरे माता- पिता की नियत माड़ी [कम ] नहीं। सास मुस्कुराकर चली गयी , जाते -जाते  बोली -पता नहीं ,ये कब समझेगी ?शादी के बाद प्रिया  बोली -मम्मी ,अब तो कोई कमी नहीं ,मुझे भी सामान ,साड़ी अच्छी ही देना ,मैं भी अपनी सास को गलत साबित कर दूँगी कि उनकी सोच ग़लत है। प्रिया  की बातें सुनकर ,बालाजी सोच में पड़ गयीं, फिर बेटी से बोलीं -न बेटा ,कल को मैं बहु के उलहाने न लूँगी ,कल को उसने कह दिया कि मेरी साड़ी या सामान अपनी बेटी को क्यों दे दिया ?ये तो नेग होता है बेटियों का ,इसमें भाभी क्या कहेगी ?और प्रिया  को वो साड़ी दे दीं ,जो न स्वयं पहने, बहु का तो प्रश्न ही नहीं उठता। प्रिया कितनी प्रसन्न थी कि अबकि बार मैं अपनी सास की सारी शिकायतें दूर कर दूँगी किन्तु उन्हें तो वो स्वयं ही न पहने ,भाई के विवाह में  से क्या लाई ?क्या दिखाऊँगी ?प्रिया ने अटकते हुए कहा -मम्मी ,मेरी सास। उसके वाक्य पूर्ण करने से पहले ही बोलीं -उसे कहने दे ,उसे तो आदत है बकवास करने की ,तू उसकी बातों पर कम ध्यान दिया कर। 
                  प्रिया की ससुराल का दृश्य -प्रिया  ने वे साड़ी चुपचाप छुपाकर रख दीं ,किसी को दिखाए भी तो क्या ?किन्तु सास कहाँ मानने वाली थी और बोलीं -ले आई ,अपने भाई के विवाह के नेग की साड़ी। प्रिया  का मन रो रहा था , उसने चुपचाप वे साड़ी लाकर रख दीं, फिर बोली -अभी विवाह किया है न ,अभी उनका हाथ तंग है, वैसे लेने -देने में कोई कमी नहीं रखेंगे। भाभी की साड़ियों में से देना नहीं चाहते थे ,आजकल की बहुओं का तो आपको पता ही है ,ताना न मार दें- कि मेरी साड़ी अपनी बेटी को दे दी।सास बोली - अरे !तू भी तो आजकल की बहु है ,पर तू निरी मूर्ख ,यदि उन्हें तुझे देना ही था तो जब विवाह में इतना पैसा खर्च किया तो क्या तेरे लिए अलग से दो साड़ी नहीं ले सकते थे। क्या हमने  तेरी शादी में अपनी बेटी को नहीं दीं ?उसके लिए अलग से दो साड़ी लाये थे। हमें पता था ,भाई के विवाह में अपनी बेटी आयेगी तो उसको भी तो देना बनता है।ऐसा लग रहा था ,जैसे वे उसे समझाकर थक चुकी हैं , प्रिया  की तरफ देखते हुए बोलीं -मुझे क्या ?मैं तो वैसे ही बुरी बन रही हूँ ,जो भी देंगी ,अपनी बेटी को देंगी।दहेज़ की तो हमने कभी मांग नहीं की किन्तु मैं चाहती थी कि तुम जो भी पहनों ,अच्छा पहनों।,पहनती भी हो तो फिर उनके यहॉँ से लाने का क्या लाभ ?जब तुम वहां से लाई साड़ी पहनती ही नहीं। मेरे लिए तो तेरे विवाह में एक साड़ी आयी थी वो ठीक थी ,मैंने पहनी भी। जब उनकी बहु लाई ,तो ख़ुशी -ख़ुशी रख लीं, जब वो लेना जानती हैं तो देना क्यों नहीं ?तुम भी तो उन्हीं का खून हो किन्तु उनके मन में लड़के -लड़की का भेद है। तुझे देंगे ,तो दूसरे घर जायेगा ,उनकी ऐसी सोच है।  
                 लता जी तो कहकर चली गयीं किन्तु प्रभा को लगा ,जैसे आज उसके' ज्ञान चक्षु 'खुले हों। उसे अपने बचपन से लेकर अब तक की सभी बातें याद हो आयीं। मुझे पाला -पोसा ,भाई को कोर्स करवाया ,मुझे नहीं ,मुझसे ही त्याग क्यों करवाया ?और विवाह के बाद जैसे खानापूर्ति ,उस घर पर जैसे मेरा अधिकार रहा ही नहीं। उस दिन भी मैं फोन पर अपनी समस्या बताना चाहती थी किन्तु अपनी समस्याएं गिनाकर फ़ोन काट दिया। भाई का तो काम भी अच्छा चल रहा है फिर भी मेरे सामने उसके काम न चलने का रोना रो दिया। अब तो भाई -भाभी देश -विदेशों की यात्रा करते। जिस भाई के लिए उसने अपनी पढ़ाई का बलिदान दिया ,उसने कभी ये भी नहीं पूछा -कि दीदी कैसी हो ?सोचा था -भाभी की सखी बन जाऊँगी ,एक दूसरे का सुख -दुःख बाँट लेंगे ,किन्तु दुःख तो उन्हें था ही नहीं और सुख वो किसी से बाँटना नहीं चाहतीं। एक फोन करके भी कभी पूछा नहीं -दीदी कैसी हो ?या किसी त्यौहार या जन्मदिन पर शुभकामनायें भी भेजी हों। उनका परिवार मेरा भाई और उनका मायका ही तक सीमित था। कभी लगता भाई बेबस ,बेचारे ,लाचार जिनका कार्य भाभी को ख़ुश रखना ,वो परिवार जिसमें साथ खेले ,पले -बढ़े वो तो न जाने कहाँ गुम हो गया ?
               प्रिया  के मैके का दृश्य -मम्मी -पापा उनके बच्चों को खिला रहे हैं ,कभी कपड़े पहनाते हैं ,कभी घुमाने ले जाते हैं। यानि कि भाई के बच्चों को पाल रहे हैं वरना हालात देखते हुए तो लगता है कि ये लोग भी तब तक हैं जब तक बच्चों को पाल रहे हैं। माता -पिता ने कैसा भी व्यवहार किया हो ?किन्तु जब तक वो दिख रहे हैं ,लगता है ,अभी मायका है। किन्तु इतने व्यवहार पर भी उन्हें  बेटों की परेशानी नज़र आती है। पिता भी कह देते -अपने परिवार को संभालो ,अपनी ज़िंदगी में व्यस्त रहो ,किसी से कोई उम्मीद मत रखो। प्रिया पहले तो समझ नहीं पाती  थी किन्तु धीरे -धीरे अब रिश्तों की उलझनें, उनमें छुपे दर्द को ,स्वार्थ को समझने लगी थी। अब वो बेटी ही नहीं, एक माँ ,पत्नी ,बहु ,भाभी भी थी और वो जिंदगी का एक पड़ाव जी चुकी थी। इस बीच उसने बहुत कुछ झेला और समझा भी था। कभी -कभी एकांत में बैठकर सोचती -वे कैसे माता -पिता होते थे  ?जिनके मन में बेटी के दर्द -दुःख में मन में हिलोरे उठती थीं। कैसी थीं ,वो बेटियाँ ?जो अपने मायके को याद कर कल्पनाओं में खो जाती थीं। मायके की दहलीज़ लाँघते ही सुखानुभूति होती थी ,उसके साथ उसकी मीठी -प्यारी यादें होती थीं ,दिलों में प्रेम होता था। 

                तभी रंगमंच पर वो लड़की उपस्थित होती है और कहती है - ये प्रिया की ही दुविधा नहीं ,न जाने कितनी बेटियों की दुविधा है ,आजकल  तो बेटियों को पालते हैं ,ये क्या कम एहसान है ?वरना पेट में या पैदा होते ही मार देते थे, किन्तु बहुएँ कहाँ से आयेंगी ?बेटी पाली भी ,तो बोझ की तरह उतार दीं।  माँ ने क्यों नहीं सोचा ?तुम भी तो किसी की बेटी हो। बहुओं ने भी नहीं सोचा कि तुम भी किसी की बेटी ही हो ,तुम्हारी भाभी भी ऐसा ही करे तो, कौन. किसका दर्द समझे ?बेटी कमाती -कमाती तीस -पैंतीस वर्ष की हो गयी ,पिता के पास दहेज़ जुटाने को पैसा नहीं। बेटी कमाती -कमाती अधेड़ हो जायेगी ,घर के ख़र्चे उठायेगी और जो कमाया है, विवाह में उसी को उपहार में  दे ,एहसान जताते हैं। और वही बेटी ससुराल में जाने के बाद भी मायके की चिंता करती है ,उनके लिए सोचती है। वही बेटी , बहु बनकर ,ससुराल वालों पर कमाई का एहसान जताती है ,अपने ख़र्चे भी बढ़ा लेती है। सास -ससुर को छोड़कर उनके बेटे ,उनकी सम्पत्ति पर  अधिकार जताती है, कर्त्तव्य अपने परिवार से निभाती है। ससुराल वाले विरोध करें ,तो उनका नारीशक्ति से पाला पड़ता है ,मुक़दमें और जेल भी हो जाती है। सीधी लड़की हो तो बर्दाश्त करती है और वो न ही मायके वालों को भाती है ,न ही ससुराल में अधिकार जता पाती हैं । माता -पिता से अपनी परेशानी बतायें भी तो उन्हें अच्छा नहीं लगता और कह ही देते हैं ,तेरे तो हर बार के यही किस्से। अपनी लड़ाई उसे स्वयं ही लड़नी होती है। किससे लड़े ?असमंजस में रह जाती है ,जिन्होंने पैदा किया। उन्होंने पाला ,ये ही क्या कम है ?जो वे दुःख -सुख के भी साथी बने अथवा उन अजनबियों से जिनके यहां ब्याहकर आयी उन पर या तो हावी होती है या फिर दबाई  जाती है। है तो बेटी ही, किन्तु रिश्ते बदलते ही उसका रूप भी परिवर्तित हो जाता है। औरत हो या पुरुष उनके जितने भी रूप होते हैं ,निभाने में भी उतना ही अंतर् आ जाता है। भाभी बनकर कुछ और हो जाती है  तो माँ -बहन बन कुछ और। उसे भी रिश्तों के इन विभिन्न रूपों से रूबरू होना पड़ता है। कभी -कभी खून के रिश्ते भी वो साथ नहीं निभा पाते ,जो पराये रिश्ते साथ निभा जाते हैं।बात इस कहानी में माँ -बेटी की ही नहीं वरन हर रिश्ते की है कि हम उन रिश्तों को कितनी सच्चाई और ईमानदारी से निभा पाते हैं ? 
            मैं ये जानना चाहती हूँ ,कौन परेशान है ?इस आईने की आवश्यकता किसको है ?एक माँ को ,बेटी को या फिर बहु को या विभिन्न रिश्तों में उलझी एक औरत को। इस आईने की आवश्यकता हर उस व्यक्ति को है जो अपने ही स्वार्थ में उलझा है ,अपने लिए ही सोचता है ,किसी की भावनाओं से ,किसी की परेशानी से कोई मतलब नहीं। जीवन भर बेबसी और लाचारी का लबादा ओढ़े रहता है ,मैं मानती हूँ ,जीवन में कुछ परेशानियां होती हैं और कुछ हम बना लेते हैं। एक -दूसरे  के सुख -दुःख को समझना ही ज़िंदगी है। आइये सोचिये तो सही ,हम कहाँ ग़लत हैं ?




















                  

 
laxmi

मेरठ ज़िले में जन्मी ,मैं 'लक्ष्मी त्यागी ' [हिंदी साहित्य ]से स्नातकोत्तर 'करने के पश्चात ,'बी.एड 'की डिग्री प्राप्त करने के पश्चात 'गैर सरकारी संस्था 'में शिक्षण प्रारम्भ किया। गायन ,नृत्य ,चित्रकारी और लेखन में प्रारम्भ से ही रूचि रही। विवाह के एक वर्ष पश्चात नौकरी त्यागकर ,परिवार की ज़िम्मेदारियाँ संभाली। घर में ही नृत्य ,चित्रकारी ,क्राफ्ट इत्यादि कोर्सों के लिए'' शिक्षण संस्थान ''खोलकर शिक्षण प्रारम्भ किया। समय -समय पर लेखन कार्य भी चलता रहा।अट्ठारह वर्ष सिखाने के पश्चात ,लेखन कार्य में जुट गयी। समाज के प्रति ,रिश्तों के प्रति जब भी मन उद्वेलित हो उठता ,तब -तब कोई कहानी ,किसी लेख अथवा कविता का जन्म हुआ इन कहानियों में जीवन के ,रिश्तों के अनेक रंग देखने को मिलेंगे। आधुनिकता की दौड़ में किस तरह का बदलाव आ रहा है ?सही /गलत सोचने पर मजबूर करता है। सरल और स्पष्ट शब्दों में कुछ कहती हैं ,ये कहानियाँ।

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