मधु सुबह सवेरे ही उठ गयी ,प्रकाश को जल्दी ही कहीं जाना है ,वो तो अच्छा हुआ ,उसने फ़ोन पर उसे बातें करते हुए सुन लिया ,कि सुबह ही सात बजे तैयार होकर निकल जायेंगे। तब उसने ही पूछ लिया -क्या कहीं बाहर जा रहे हैं ? प्रकाश ने बताया कि- काम के सिलसिले में किसी से मिलने जाना है। यही बात तो उसे अच्छी नहीं लगती ,वो कभी भी आराम से बैठकर या पहले नहीं बताते ,जब तैयार होते हैं और मैं पूछती हूँ ,तभी बताते हैं। मधु ने जल्दी से आलू उबाले और पराठे बनाने की तैयारी में जुट गयी ताकि प्रकाश 'ख़ाली पेट ' बाहर न जायें तब तक वो नहाकर भी आ गए ,तैयारी करते देख बोले -ये तुम क्या कर रही हो ?
तुम्हारे लिए नाश्ता बना रही हूँ ,पता नहीं बाहर कितना समय लगे ?वो बोले -शाम को ही आना होगा किन्तु मैं सुबह -सुबह इतना भारी नाश्ता मैं नहीं करूँगा ,बना ही रही हो तो 'ओट्स' बना दो। मैं सुबह उठी ,मेहनत की ,गुस्सा आया कि जब देख रहे थे कि मैं रसोईघर में हूँ ,तभी बता सकते थे किन्तु सारी तैयारी के बाद कह रहे हैं ,ओट्स खाऊँगा। ये बात आप पहले भी तो बता सकते थे ,मधु ने पूछा। तुम्हें बनाना है , तो बना दो, वरना रहने दो ,कहकर जूते पहनने लगे। मधु चुपचाप ओट्स बनाने लगी और उन्हें पानी के बर्तन में रखकर जल्दी ठंडा करने लगी किन्तु प्रकाश ने इस ओर ध्यान नहीं दिया और अभी बहुत गर्म है कहकर चले गए। इतनी मेहनत व्यर्थ गयी,फिर भी ख़ाली पेट घर से निकल गए।
तुम्हारे लिए नाश्ता बना रही हूँ ,पता नहीं बाहर कितना समय लगे ?वो बोले -शाम को ही आना होगा किन्तु मैं सुबह -सुबह इतना भारी नाश्ता मैं नहीं करूँगा ,बना ही रही हो तो 'ओट्स' बना दो। मैं सुबह उठी ,मेहनत की ,गुस्सा आया कि जब देख रहे थे कि मैं रसोईघर में हूँ ,तभी बता सकते थे किन्तु सारी तैयारी के बाद कह रहे हैं ,ओट्स खाऊँगा। ये बात आप पहले भी तो बता सकते थे ,मधु ने पूछा। तुम्हें बनाना है , तो बना दो, वरना रहने दो ,कहकर जूते पहनने लगे। मधु चुपचाप ओट्स बनाने लगी और उन्हें पानी के बर्तन में रखकर जल्दी ठंडा करने लगी किन्तु प्रकाश ने इस ओर ध्यान नहीं दिया और अभी बहुत गर्म है कहकर चले गए। इतनी मेहनत व्यर्थ गयी,फिर भी ख़ाली पेट घर से निकल गए।
आज मन बहुत ही खिन्न हो गया ,समझ नहीं आ रहा ,न जाने ज़िंदगी क्या -क्या मोड़ ले लेती है ?कहाँ से कहाँ पहुंच जाता है इंसान ,आज उसे भूली -बिसरी सभी बातें किसी चलचित्र की तरह याद आ रही हैं। जिंदगी की ,न जाने कितनी अच्छी -बुरी घटनायें ,उसकी ऑंखों के सामने घूम रही हैं।क्या सोचती थी ?क्या करती थी और अब क्या से क्या हो गयी ?क्या इस जीवन की वो स्वयं जिम्मेदार है ,अथवा परिस्थिति या फिर मुझसे जुड़े रिश्ते। कहने को तो उसके परिवार में सब हैं ,पति -पत्नी बच्चे फिर भी अकेलापन क्यों हैं ?क्या किसी की जिंदगी में ,किसी के मन में मेरी अपनी कोई जगह है ,क्या कोई है ?जिसके लिए मेरा जीवन महत्वपूर्ण हो।सोचा था ,माता -पिता परेशान हैं 'नून तेल लकड़ी के फेर 'में पड़े रहते हैं ,उनके साथ उनका बेटा बनकर रहूंगी किन्तु उन्हें तो बेटों के साथ रहने में ही ख़ुशी मिलती है। मैं परिवार के लिए कुछ भी करूं तो उनके हिसाब से ये तो मेरा फ़र्ज बनता है ,बेटियाँ ऐसी ही होती हैं ,उनकी सोच ऐसी ही होनी चाहिए ,तभी तो अगले घर जाकर सामंजस्य बैठा पायेंगी। कुछ त्याग या कोई कार्य अपने परिवार के लिए किया तो कौन सा एहसान कर गया ?मैं अपनी परेशानी बाँटना चाहती किन्तु किसी को भी इतना समय नहीं ,जो मुझे सुन सके ,समझ सके ',बेटियों को सुना ,समझा नहीं जाता उन्हें बस समझाया जाता है।' परिवार का रवैया देखकर विवाह के लिए हामी भर दी।
अब मेरी दुनिया' प्रकाश' और उसका परिवार तक ही सीमित रह गयी ,उसने न ही कोई वायदा किया और न ही कभी प्यार का इज़हार ,बस फेरों के वचनों के आधार पर ,मैं यानि मधु उसकी ज़िंदगी में आ गयी। मैं चाहती थी कि उसके व्यवहार से उसकी बातचीत से मुझे आभास कराये कि वो मुझे प्यार करता है उसके जीवन में मेरा विशिष्ट स्थान है ,जो उसके दिल के करीब है। किन्तु वो तो अपनी भावनाओं के साथ स्वेच्छा से आता और अपना काम कर सो जाता। उसे किसी की भावनाओं से ,प्यार से ,अपनेपन से जैसे कोई मतलब ही नहीं। ऐसे प्रतीत होता जैसे वो अपनी ज़िम्मेदारी पूर्ण कर रहा हो। घर के अन्य कार्यो की तरह ,ये भी उसका एक कार्य अथवा ज़िम्मेदारी है। कभी -कभी लगता ये एक 'मशीनी मानव 'है। साथ रहते हुए ,कई वर्ष बीत गए ,साथ रहते। बच्चे हुए ,किन्तु हम कभी बाहर घूमने अथवा कोई चलचित्र देखने अथवा कभी साथ में घूमने नहीं गए। घर में ही रहे तो एक ख़ालीपन ,एक शून्य था हम दोनों के बीच। कभी एक -दूसरे के मन को पढ़ने का,समझने का प्रयत्न ही नहीं किया। आज तक भी न जान सकी कि वो क्या चाहता है ?क्या सोचता है ?कभी -कभी लगता -व्यक्ति कुत्ते को भी पालता है तो उससे भी प्यार हो जाता है और उसके प्यार के फ़लस्वरुप उसका मालिक भी उसे प्यार करता है ,दुलारता है ,फिर मैं तो उसकी पत्नी हूँ जिसने उसे भरा -पूरा परिवार दिया। मैंने तो कभी उससे बंगला ,गाड़ी और नौकरों की मांग भी नहीं की लेकिन अब लगता है ,जो प्यार करते हैं ,ख़ुशी -ख़ुशी उनकी तमन्नाओं को भी पूर्ण करते हैं।
घर में कभी किसी भी प्रकार का किसी से मनमुटाव हो भी जाता तो कभी उसे मैंने अपने साथ खडा नहीं पाया। मैंने अपनी हर लड़ाई अकेले लड़ी फिर चाहे वो मेरे अधिकार या स्वाभिमान की हो। इसे मैंने अपनी क़िस्मत समझ उसका स्वभाव समझ परिस्थितियों से समझौता किया। मैंने उससे किसी भी तरह की उम्मीद ही छोड़ दी। कई बार हताश हुई ,अकेली पड़ गयी, रोइ उसे बताया , तो भी लगता ,जैसे 'दीवार से सर पटक 'रही हूँ। स्वयं ही लहूलुहान होकर रह जाती। कभी लगता ,क्यों हूँ मैं ?यहाँ। किसलिए ,किसके लिए ?जो मेरा अपना है ,वो अनजाना लगता है। इतने वर्षों बाद भी मैं उसे समझ नहीं पाई या फिर एक गलतफ़हमी में ही जी रही हूँ। कभी -कभी इच्छा होती कि सहेलियाँ अपने पतियों के साथ घूमने जाती हैं ,मेरी भी इच्छा होती कि प्रकाश भी कभी प्यार से आकर कहे -सारा दिन काम में व्यस्त रहती हो आओ !चलो कहीं घूम आते हैं ?प्यार से उपहार लाकर दें ,प्यार की वो अनुभूति कभी महसूस नहीं हुयी। एक दिन मैंने ही उससे पूछ लिया -कभी प्यार के लिए भी समय निकाल लिया कीजिये ,मैं प्यार के दो शब्दों के लिए तरस जाती हूँ। उसने झुंझलाकर ज़बाब दिया -क्या चोंचले बाजी है ?प्यार दिखाया नहीं जाता। मैंने कहा -उसका एहसास तो हो। वो बोला -ये सब बेकार की चीजें हैं ,औरत की तो बस जरूरतें पूरी होनी चाहिए। उसकी ऐसी विचारधारा सुन मन को धक्का लगा। बच्चों के लिए भी तो उसका प्यार झलकता है ,अपने लिए नहीं ढूंढ़ पाई। आज भी उसके व्यवहार से मन अशांत रहा ,सोचते -सोचते' दम घुटने 'लगा। तैयार होकर बाहर निकल आयी ,पता नहीं मैं कहाँ और क्यों जा रही हूँ ?तभी एक आवाज़ से मेरा ध्यान भंग हुआ ,वो कोई सब्ज़ीवाला था, जो तेज़ आवाज़ में पुकार रहा था -ले लो जी ,ले लो ,गुस्से से हो गए लाल टमाटर। मैं उसकी बातें सुनकर मन ही मन मुस्कुराई और सोचा -आ ही गयी हूँ तो टमाटर भी ले लेती हूँ।
टमाटर लेते समय मेरी नज़र किसी जाने -पहचाने चेहरे पर पड़ी ,मैं याद करने का प्रयत्न करने लगी ,ये कौन हो सकता है ?उसने भी शायद मुझे अपनी ओर देखते देख लिया था और वो मेरे नज़दीक आकर बोला -मधु !मेरा स्वतः ही सर हिल गया ,मुझे सोचते देख बोला -मैं पराग ,कुछ याद आया। मैंने याद करते हुए कहा -ओह !पराग ,तभी मैं इतनी देर से सोच रही थी कि चेहरा तो जाना -पहचाना सा लग रहा है ,कौन हो सकता है ?इतनी जल्दी भूल गयीं ,तुम मुझे ,लगता है ,अब तुम्हारी उम्र हो गयी ,उसने मुझे छेड़ते हुए कहा। उम्र हो मेरे दुश्मनों की ,तुम बताओ ,तुम यहां कैसे ?मैंने उससे प्रश्न किया। मैं तो दो वर्षों से इसी शहर में नौकरी कर रहा हूँ ,दो गली बाद मेरा घर है। मुझे आश्चर्य हुआ कि इतने नज़दीक रहकर भी ,हम कभी मिल नहीं पाए। पराग बोला -तुम यहाँ रहती हो ?हां भई ,मेरा ससुराल है यहाँ ,मैंने उसे बताया,फिर उसे छेड़ते हुए कहा -तुमने यहां भी मेरा पीछा नहीं छोड़ा ,मेरा पीछा करते मेरी ससुराल आ गए। मेरी बातें सुनकर वो हंस दिया। बोला -यदि प्यार सच्चा हो तो पूरी क़ायनात भी उसे मिलाने की कोशिश करती है ,कहकर वो हँसा। मैंने कहा -बस रहने दो ,'शाहरुख़ खान 'बनने को। मैं टमाटर और कुछ सब्ज़ियाँ लेकर अपने घर की तरफ चल दी और वो अपनी राह गया। अभी वो कुछ कदम ही गयी होगी ,उसने ' दुपहिया वाहन 'मेरे सामने लेकर खड़ा कर दिया। मैं एकदम सहम गयी ,उसे देखकर पूछा -ये क्या है ?वो बोला -मैं ये कह रहा था ,कि जब हम मिल ही गए हैं और एक ही शहर में हैं तो कभी -कभार मिलने में क्या हर्ज़ है ?अपना फोन नंबर ,अपने घर का पता कुछ तो दे दो। उसकी बातें सुनकर मधु कुछ सोचने लगी।
क्रमशः -ये पराग कौन है ?मधु उसे देखकर खुश भी हुई ,मज़ाक भी किया किन्तु अपने घर का पता और फोन नंबर बताते हुए ,क्या सोचने लगी ?क्या रिश्ता था उससे ?क्या मधु -प्रकाश के रिश्ते ठीक हो पाए ?क्या उसका अकेलापन दूर हुआ ?क्या उसे वो प्यार मिल पाया जो वो इतने दिनों से प्रकाश में ढूंढ़ रही थी ?जानने के लिए पढ़िए-' विश्वास' का[ भाग २ ]