बचपन में जब भी अपने गांव जाते , तब वहां गांव देखना और खेलना -कूदना ही काम रह जाता था ,जब भी गाँव जाती तो दादी जी गाँव घुमाने ले जातीं ,कहतीं --ये शहर में रहते हैं ,ये क्या जाने गाँव की ''आवो हवा ''इसीलिए सारे गांव में रिश्तों की पहचान करातीं और वहाँ के वातावरण से परिचित करातीं। गाँव में एक चौपाल भी थी, जिसके बीचोंबीच नीम का पेड़ था उसके नीचे बैठकर, गाँव ज़्यादातर बड़े- बुजुर्ग़ हुक्का गुड़गुड़ाते ,गाँव की आती -जाती महिलाओं को ताकते रहते। कभी अपने देश पर ,कभी अपने गांव के होनहार लड़कों पर और कभी गाँव की किसी भी महिला पर चर्चा करते कि किसकी मेहरारू तेज़ है ,कौन अपनी पत्नी का गुलाम है ?गाँव के बड़े -बुज़ुर्ग [घूंघट में भी ]अपने अनुभव से ताड़ लेते थे कि किसके घर की बहु जा रही है ?घेरों में [मर्दाना स्थान ]घरेलू जानवर बंधे होते ,हर घेर में एक नीम का पेड़ होता जिसके इर्द -गिर्द हम बच्चे खेलते। सड़कें कच्ची अथवा ईंटों से बनी होतीं जिन्हें 'खड़ंजा 'कहते। उनके मनोरंजन का साधन ताश खेलना ,रेड़ियो पर गाने और समाचार सुनना था। किसी भी बच्चे से मुँहज़बानी कुछ भी प्रश्न पूछ लेते थे,अथवा कोई पहेली भी। गांव में इतने साधन नहीं थे , फिर भी लोग खुश नज़र आते थे। दादीजी और मैं टहलते हुए, एक बड़े से घर में पहुंचे ,मैंने सवालिया नजरों से उन्हें देखा ,तो उन्होंने बताया -ये भी रिश्ते में ताऊजी लगते हैं। हम अंदर गए ,बहुत ही शांत वातावरण था ,घर के एक कोने में बहुत ही विशाल 'पीपल का पेड़ 'था।
गाँव में ज्यादातर नीम के पेड़ देखे किन्तु उनके यहां' पीपल का पेड़ 'था। मैंने मन में उठ रहे इसी प्रश्न को उनसे पूछा ?तब वो बोले -बेटे ,इसकी छाँव ठंडी होती है ,और मुझे बहलाते हुए बोले -इस पर झूला ड़ालकर झूल भी सकते हैं ,तब तक ताईजी 'नीबू -पानी 'ले आईं ,उसे पीकर मैं तो झूला झूलने लगी। दादीजी उनसे बातें करने लगीं। लौटते समय मैंने उनके सामने यही प्रस्ताव रखा कि हम भी' पीपल का पेड़' लगा लें।किन्तु दादीजी ने कठोरता से इंकार कर दिया। मेरे बार -बार पूछने पर ,वो बोलीं -घर में पीपल का पेड़ नहीं लगाते हैं ,क्यों नहीं लगाते ?पूछने पर बोलीं -ये शुभ नहीं होता। किन्तु उन्होंने तो लगा रखा है ,मैंने प्रश्न किया। उनकी बात मत करो ,कहकर दादीजी अपने काम में लग गईं। अब तो मैं रोजाना ही उन झूले वाले ताऊजी के घर जाती और झूला झूलती रहती ,जब मन भर जाता अपने घर आ जाती। एक दिन बुआजी ने पूछा -तुम प्रतिदिन कहाँ जाती हो ?इतने शीघ्र किससे दोस्ती हो गयी ?मैंने ताऊजी के विषय में बताया तो ,वो गंभीर स्वर में बोलीं -उनके यहाँ मत जाया करो ,क्यों ?मैंने प्रश्न किया। जहाँ 'पीपल का पेड़' होता है ,वहाँ बच्चों को नहीं जाना चाहिए। क्यों नहीं जाना चाहिए ? मैंने फिर से प्रश्न किया। देखा नहीं ,उनके कोई बच्चा नहीं है ,जहाँ पीपल का पेड़ होता है ,वहां बच्चे नहीं होते ,बुआ ने समझाते हुए कहा। मैं तो रोज ही जाती हूँ ,मुझे तो कुछ नहीं हुआ ,वो लोग भी तो वहीं रहते हैं। उन्हें मालूम था ,कि ये जिद्दी है ,नहीं मानेगी। तब वो बोलीं -उस पेड़ पर चुड़ैल रहती है और बच्चों को ले जाती है ,उनके बच्चे भी ले गयी। अभी उसकी नज़र तुम पर नहीं गयी ,जिस दिन भी नजर पड़ेगी उसी दिन चुपचाप ले जाएगी। उन्होंने मुझे डराते हुए ऐसे दिखाया ,मैं डर गयी ,फिर वहां नहीं गयी।
कुछ दिन वहाँ रहकर मैं अपने माता -पिता के पास शहर में आ गयी किन्तु मेरे मन से वो 'पीपल की चुड़ैल 'वाली बात नहीं गयी। एक दिन गांव से एक भइया आये ,मैंने उनसे भी पूछा -क्या घर में 'पीपल का पेड़ 'नहीं लगाते हैं ?उन्होंने भी इसी बात का समर्थन किया ,बोले -घर में कौन पीपल का पेड़ लगाता है ?मेरा दूसरा प्रश्न था ,क्या उस पर चुड़ैल रहती है ?वो मुस्कुराते हुए बोले -हाँ ,!क्या आपने उसे देखा है ?मैंने पूछा। वो बोले -हाँ ,मैंने देखा है ,पेड़ की ऊँची डाली पर बैठी थी ,उसके पैर उल्टे थे और पीला लहँगा पहने बैठी थी ,जब मैंने पूछा -तू कौन है ?तो नाक में बोली -क्या तू मुझे नहीं जानता ?उन्होंने अपना अनुभव सुनाया। यूँ तो उन्होंने अनेक किस्से सुनाये किन्तु मेरे मष्तिष्क में ये बात घर कर गयी कि ''पीपल के पेड़ ''पर चुड़ैल होती है। मैं जब भी कहीं , किसी 'पीपल के पेड़ 'को देखती तो उसमें उस पीले लहंगे वाली चुड़ैल को ढूंढने का प्रयत्न करती किन्तु कभी कुछ दिखा नहीं। हाँ ,इतना अवश्य ही पता चला कि 'पीपल के पेड़ 'को न ही काटते हैं ,न ही घर में लगाते हैं। किन्तु समय के साथ इतना अवश्य ज्ञान हुआ कि 'पीपल के पेड़ 'को कोई काटे नहीं इसीलिए डराकर रखते होंगे। इनकी उम्र भी सैकड़ों वर्षों तक होती है और ये पेड़ प्रचुर मात्रा में 'ऑक्सीजन 'देता है जो हमारे जिन्दा रहने के लिए आवश्यक है। घर में क्यों नहीं लगाते ?इस प्रश्न का जबाब भी मैंने ढूँढा ,इसका कारण इसकी जड़ों का विस्तृत होना क्योंकि इसकी जड़ें घर की नींव को हिलाने की क्षमता रखती हैं और इसमें' भगवान विष्णु 'का वास मानते हैं। इसी से इसे मंदिरों में अथवा बाहर लगाते हैं।
समय के साथ -साथ लोग जागरूक हुए और अपनी पुरानी मान्यताओं को ,धारणाओं को निर्मूल साबित कर जगह बनाने के लिए ,पेड़ कटवाते चले गए। चुड़ैल वाला डर भी समाप्त हो गया। इसके साथ ही अन्य पेड़ भी कटने लगे। हमारे आस -पास की हरियाली भी समाप्त होने लगीं।इंसान अपनी उन्नति और स्वार्थ में पेड़ काटता गया , कंकड़ -पत्थरों के जंगल तैयार होने लगे। अब मुझे एहसास होने लगा कि उन ताऊजी को उस पेड़ की खूबियों के विषय में मालूम था किन्तु तब मुझे बच्चा समझ, समझा न सके। उस पेड़ ने पंछियों को बसेरा दिया ,छाया दी ,भरपूर ऑक्सीजन भी दी किन्तु उसके अहसानों का कोई लाभ नहीं हुआ ,उस पेड़ को लगाने वाले ही चले गए तो उसे भी दर्दनाक तरीक़े से काट डाला गया। उनकी तीन पीढ़ियों की उसने रक्षा की किन्तु आनेवाली 'अहसान फ़रामोश ' पीढ़ी ने तनिक भी तरस नहीं खाया और उसकी एक -एक टहनी काटकर उसे मनहूस कहकर बाहर फ़ेंक दिया। बड़े -बूढ़े इसलिए डराकर रखते थे ताकि कोई पेड़ों को किसी भी तरह की हानि न पहुंचा सके, इसका एक उदाहरण 'वटवृक्ष 'भी है ,उसकी पूजा भी की जाती है। पेड़ की चुड़ैल का न ही डर रहा ,न ही पेड़ रहे ,जिसका परिणाम आज हमारी नज़रों के सामने है। वातावरण में 'आक्सीजन ' की कमी होती गयी और वायुमंडल में गर्मी भी बढ़ गयी। पक्षियों को बसेरा नहीं मिला वे भी कम होते जा रहे हैं। जब प्रकृति अपना बदला लेती है तब इंसान भगवान को दोष देता है। अपनी गलतियों से सीखता नहीं ,वैसे अभी कुछ लोग जागरूक हुए हैं किन्तु जो हानि हो चुकी उसको संभालने में अभी समय लगेगा।