सीता आज बहुत परेशान है ,अभी बिमारी से उठी है किन्तु करने वाला कोई नहीं। बिमारी में भी उठकर अपनी गृहस्थी के काम संभालने हैं। क्या करें ?कुछ समझ नहीं आ रहा ,कहाँ से आरम्भ करे ?सब कुछ अस्त -व्यस्त हुआ पड़ा है ,करना तो उसे ही है। अंदर ही अंदर उसे क्रोध आ रहा है ,क्रोध का कारण कौन है ,क्या है ?उसे समझ नहीं आ रहा है कि वो किससे नाराज़ है ?अपने आपसे ,अपनी ज़िंदगी से ,इस संसार से या फिर उस प्रभु से जिसने उसे बनाया। समझ नहीं आ रहा , देखते ही देखते लोग मर रहे हैं ,ये कैसी आपदा है ?अपनी नज़रों के सामने ही ,अपने जा रहे हैं ये कैसी विडंबना है ?देखने भी नहीं जा सकते। कितना कठोर समय है ?इस महामारी ने तो एक -दूसरे से दूर कर ही दिया किन्तु दुःख -सुख के साथी भी न रहे। जो ज़िंदगी से जूझते अब उसे समझने लगे थे या यूँ कहें अब ज़िंदगी की मुश्किलों को झेलते सोच रहे थे ,अब आराम से जीवन व्यतीत करने का समय आया है ,उन्हें इस महामारी ने शीघ्र ही अपनी चपेट में लेकर पूर्णतः आराम दिला दिया और पीछे छोड़ गए ,रोते -बिलखते परिवार वाले और उनके अंदर समाया डर। सीता भी आज अपने रिश्तेदार की मृत्यु का समाचार सुन वो अंदर तक हिल गयी।
वो समझना चाह रही थी ,क्या है ये जीवन ?इसका क्या उद्देश्य है ?समझने का प्रयत्न कर रही थी ,बाल्यवस्था बचपने में निकल जाती है युवावस्था परेशानी में कष्ट झेलते हुए निकल जाती है। ज़िंदगी का गणित समझ ही नहीं आ रहा, कि ये परमात्मा क्या चाहता है ?वो रोये जा रही थी और बड़बड़ाये जा रही थी उसे समझ नहीं आ रहा था कि दोष किसका है ?जीवन तो जैसे व्यर्थ ही जा रहा है ,सुबकती हुयी ,वो उठी और उसने बच्चों के लिए खिचड़ी बनाई ,अभी उसके तन में इतनी भी जान नहीं पड़ी थी कि वो उठकर घर का काम संभाल सके। वैसे तो किसी का भी खाने का मन ही नहीं कर रहा किन्तु बच्चों को खिचड़ी खाते देख वो किलस उठी, फिर मन ही मन बुदबुदायी -'क्या दिन आ गए हैं ?,बच्चों ने भी बहुत दिनों से ठीक से खाना भी नहीं खाया। ऐसा नहीं ,कि उसके घर में पैसों की तंगी है किन्तु महामारी के चलते उसने नौकरों को छुट्टी दे दी फिर भी पता नहीं, किस लापरवाही के चलते वो महामारी उसके घर में भी घुस गयी? इस बिमारी से बच तो गयी किन्तु परेशानियां हैं कि घटने का नाम नहीं ले रहीं ,वो भी थोड़ी खिचड़ी खाकर वापस अपने बिस्तर पर लेट गयी।
अगले दिन वो उठी और नहाकर मंदिर पहुँच गयी ,मंदिर में भी कोई नहीं था ,मंदिर का प्रांगण खा ली था ,वो तो पहले से ही परेशान थी ही ,सोचा ,लोग भगवान के द्वार पर भी कैसे आयें ?छुपे बैठे हैं या अपनों के दुःख से दुखी हैं अथवा बीमारी ने जकड़ रखा होगा। सोचते हुए रोने लगी ,अब तुम कहाँ हो ?प्रभु !आते क्यों नहीं ?अपनी सन्तानों पर कृपा करो। वो घुटनों पर सिर रखकर वहीँ बैठ गयी। तभी दूर कहीं से उसे आवाज़ सुनाई दी -----यदा ,यदा हि धर्मस्य , ग्लानिर्भवति भारत।
अभियुत्थानं धर्मस्य तदात्मानम सृजाम्यहम।।
पवित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम।
धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे।।
सीता ने पलटकर देखा ,कोई सफ़ेद वस्त्रों में साधु कहें या संत थे ,उनके चेहरे पर तेज़ था। शायद वे ही इस श्लोक को बोल रहे थे। उस श्लोक का अर्थ जानते हुए भी वो बोली --बाबा! आप ऐसा क्यों कह रहे हैं ?वे बोले -क्या तुम इसका अर्थ नहीं जानतीं ?कि जब -जब धर्म का नाश होता है ,उस धर्म की स्थापना के लिए मुझे आना ही पड़ता है। बाबा, क्या ये अनर्थ नहीं हो रहा ?अब तो उसे, इस महामारी का नाश करने के लिए आना ही चाहिए ,सीता बोली। बाबा बोले -बेटी !वो तो कब का आ चुका है ,ये महाभारत का युद्ध ही तो चल रहा है ,वो तो किसी भी रूप में आ सकता है। ये कैसा महाभारत है ,बाबा ?सीता ने पूछा- इस महामारी में हमारे अपने खोते जा रहे हैं। बाबा बोले -तो क्या ,महाभारत में मारकाट नहीं मची थी ,उन लोगों ने अपने ही लोगों को खोया था ,वे भी उनके अपने ही थे ,उसमें भी किसी का भाई, किसी का पति , किसी का बेटा गया था।बस अब थोड़ा रूप बदल गया है ,अब ये संसार ही कुरुक्षेत्र बन गया है और उस महाभारत में सब कुछ सुलग रहा है। कुछ आहत होकर बचे भी हैं ,कुछ जा चुके है। अमर होकर कोई नहीं आता ,हर किसी को एक न एक दिन जाना होता है ,हर किसी के जाने का समय भी निश्चित है , ये जो मनुष्य के अहंकार का हवनकुंड प्रज्वलित हो रहा है इसमें न जाने कितने रिश्ते स्वाहा होंगे ?ये मानव अपने अहंकार में ही तो इस 'विषाणु' का आविष्कार कर बैठा और मर रहा है। बाबा ,इसमें निर्दोषों की क्या गलती ?मरना तो उन्हें चाहिए जो इसके दोषी हैं ,सीता ने प्रश्न किया।बेटी , वो तो जायेंगे ही ,जब उन्होंने ''काल ''को निमंत्रण दिया है किन्तु वे निर्दोष भी जायेंगे जो ग़लत कार्यों में लिप्त रहे अथवा जिनके जाने का माध्यम ही'' विषाणु'' है ,सबके जाने का समय निश्चित है।'' भीष्म पितामह '' का क्या दोष था ?जबकि उन्हें तो ''इच्छा मृत्यु ''का वरदान प्राप्त था किन्तु उन्होंने गलत लोगों का ही साथ तो दिया था। कुछ ऐसे लोग भी तो हैं जो इस महामारी की चपेट में आकर भी बच भी गए , इस महामारी की भट्टी में न जाने कितने भस्म हो गए ?किसी न किसी रूप में महाभारत तो होती ही रहती है फिर भी मनुष्य अपनी हरकतों से बाज नहीं आ रहा। यदि उसे मृत्यु का भय न हो तो वो तो उपरवाले को भी चुनौती दे डाले।
सीता बोली -बाबा ,ऐसा क्या पापाचार फैल रहा है ?जो इतना बड़ा दण्ड हमें भुगतना पड़ रहा है।
बाबा -क्या तुम नहीं जानती ?इंसान ही इंसान पर विश्वास नहीं कर पाता ,किसी के भी अंदर प्रेम और अपनापन का भाव ही नहीं रहा। महिलाएं शिक्षित हैं ,आगे बढ़ रही हैं किन्तु दुरूपयोग भी तो हो रहा है। अपने संस्कार ,बड़ों का मान -सम्मान भूलते जा रहे हैं। भ्र्ष्टता अपनी चरम सीमा पर है ,अपने स्वार्थ के लिए कोई भी किसी से भी ,किसी भी तरह काम निकलवाता नज़र आता है। माँ अन्नपूर्णा ''का अपमान आये दिन होता है। आज का समय बदल चुका है ,पति -पत्नी दोनों मिलकर गृहस्थ जीवन का पालन करते हैं ,दोनों ही गाड़ी के मजबूत पहिये हैं ,कंधे से कंधा मिलाकर चलते हैं किन्तु कुछ महिलाओं ने तो जैसे अपने कर्म त्याग ही दिए। भोजन बाहर से आता है ,घर का ,और बच्चों का ख्याल बाहर के लोग रखते हैं। पूजा -पाठ तो धारावाहिकों में या बुजुर्गों के नाम ही है। मनुष्य को जितनी सुविधाएँ मिल रहीं हैं ,उतना ही आलसी होता जा रहा है। पैसा कमाने के लिए अथवा उन्नति के लिए एक दूसरे को नीचे गिरा अथवा छल से आगे बढ़ रहा है। एक शिक्षित और जागरूक महिला होना अच्छा है। प्राचीन समय में महिलाएं शिल्प कला ,पाक कला ,हस्त शिल्प ,चित्रकारी ,गृहसज्जा ,नृत्य कला ,धनुष और तीर -तलवार चलाना जैसे कार्यों में पारंगत होती थीं किन्तु अब ज्यादातर लड़कियां ये सब त्याग साजोसज्जा में अंग प्रदर्शन में और किसी भी तरह से पैसा कमाने में लिप्त हैं।चलचित्रों का बच्चों पर अधिक प्रभाव नज़र आता है। समाज की अर्थव्यवस्था ही बिगाड़कर रख दी ,विवाह जैसे पवित्र संस्कार को, उस रिश्ते की पवित्रता का आज की पीढ़ी में कोई सम्मान नहीं। तुम देखती या सुनती नहीं ,जो बड़े शहर हैं उनमें स्त्रियों और बच्चियों का इस्तेमाल हो रहा है और वे हो रही हैं ,कुछ मजबूरी में ,कुछ इच्छा से ,क्योंकि सभी 'ऐशो आराम 'की ज़िंदगी के पीछे दौड़ते नज़र आते हैं। वो भी किसी को मिल भी जाती है ,कुछ पूरी ज़िंदगी उसके लिए भटकते ही रहते हैं। क्या तुम देखती नहीं ?हमारे समाज में जिन बातों से बच्चों को दूर रखा जाता था या उनसे गुप्त रखा जाता था। उसका आजकल सरेआम प्रदर्शन होता है ,बातें होती हैं। ब्रह्मचर्य की एक उम्र निश्चित थी लेकिन पुरानी बातें कहकर हमारी मान्यताओं और परम्पराओं को भूलते जा रहे हैं। पाश्चात्य रंग में रंगते जा रहे हैं। आधुनिकता की दौड़ में उनका मौलिक पतन होता जा रहा है।बच्चे में संस्कार अपनी माँ-और पिता से मिलते हैं ,माँ अपने बच्चों को संस्कारों से अवगत कराती है किन्तु उसके लिए माँ का भी संस्कारी होना आवश्यक है। आज के हालात देखते हुए ,तुम्हें क्या लगता है ?
प्राकृतिक आपदा के रूप में अथवा किसी बिमारी के रूप में परमात्मा सचेत भी करता है किन्तु इंसान ने अपने को रोबोट बना लिया है जो उसे करना है ,करता है। उसका किसी की भावनाओं या किसी के सुख -दुःख से कोई मतलब नहीं। कुछ लोग अभी भी नियमों को मानते हैं ,अपने संस्कारों को भूले नहीं , इस बिमारी को मात दे ,बच भी रहे हैं। इसी तरह जैसे चिकित्सक को सभी भगवान का दर्ज़ा देते हैं ,किन्तु सभी चिकित्सक तो ऐसे नहीं होते। कुछ परिस्थितियों का लाभ उठाते हैं ,इंसान की मजबूरियों का लाभ उठा, उसे गिद्ध की तरह नौचने से बाज नहीं आते ,और तो और इंसान की बिमारी का ही लाभ उठा लिया, जिनकी मृत्यु का समय ही नहीं आया था, उनके अंग निकाल कर व्यापार आरम्भ कर दिया और उन्हें बेचारों को मृत्यु प्राप्त हुयी। इसमें भी भगवान को दोष देते हैं उन्हें तो जबरदस्ती की मौत प्राप्त हुई। दवाइयाँ दोगुने दाम पर बेच इंसान ही इंसान को नोच रहा है। परिस्थितियों का लाभ उठाना कोई इस इंसानी जीव से सीखे। मैं जानता हूँ तुम परेशान हो, दुःखी हो तुम्हारे ससुर गए तुम्हें दुःख है किन्तु उनका समय आ गया था तो उन्हें जाना ही था ,ये महामारी तो बस उनके जाने का माध्यम बनी ,वो अपनी उम्र जी चुके। अब तुम अपने आपको ही देखो तुमने भी तो इस महामारी को मात दी। तुम्हारा अभी जीवन शेष है ,तुम्हें कुछ कार्य अभी करने हैं। मैंने इस संसार की रचना की ,मैं क्यों किसी का बुरा चाहूंगा या करूंगा ?क्या कोई अपनी ही बनाई रचना को बिगाड़ता है ?तुम्हारा परिवार अब ठीक है ,स्वस्थ है ,मैं तो हर किसी को मौक़ा देता हूँ ,सम्भल गया तो ठीक, वरना वो अपने कर्मों द्वारा स्वयं ही उस गर्त में गिर जाता है। मैं किसी को क्यों मारना चाहूँगा ? माता -पिता क्या अपने बच्चे को परेशान या दुःखी देखना चाहते हैं ?किन्तु उसकी उड्डंदता पर उसे दंड अवश्य देते हैं। मनुष्य अपना दुश्मन स्वयं ही बन जाता है। जब -जब प्रकृति के साथ छेड़छाड़ करता है ,प्राकृतिक आपदाएँ उसे सचेत करती हैं किन्तु फिर भी वो सम्भलता नहीं और फिर मुझे दोष देता है। मैं तो हमेशा से ही तुम्हारे अंदर तुम्हें सचेत करता रहता हूँ किन्तु मेरी अनसुनी कर अपनी मर्ज़ी करते हैं ,और जब हानि होती है ,तो मुझे दोष देता है।
सीता देर से दुःख में गोते खाते हुए सिर झुकाये ,बाबा की बातें सुन रही थी किन्तु जब बाबा ने बोला -कि मुझे दोष देते हैं तब उसने नज़र उठाकर देखा तो उसे बाबा के ही अंदर कृष्णा ,कभी शंकर ,कभी विष्णु रूप दिखे ,जो उनमें ही समाहित होते गए। ये तुम्हारा ''नवजीवन ''है ,बेटा इसे भरपूर प्रेम से जियो। जो बीत गया, उसे भूल जाओ। जिस तरह पेड़ अपने पुराने पत्तों को त्यागकर ,नई कोंपलों द्वारा 'नव जीवन' प्राप्त करता है और हरा -भरा हो जाता है ,उसी प्रकार तुम भी अपने इस ''नवजीवन ''का उपयोग करो। अब तुम सोचो !तुम्हें क्या करना है ?इस ''नवजीवन ''का। सीता उनका वो रूप देख मूर्छित गयी। जब उसकी आँखें खुली तो वो अपने बिस्तर पर ही थी। उसने अपने चारों ओर देखा तब उसकी चेतना को एहसास हुआ कि ये सब जो उसके साथ घटा, वो उसका सपना था जो उसके कुछ प्रश्नों का जबाब दे गया। अब वो शांत थी ,उसके मन की हलचल शांत हो चुकी थी ,अब कोई प्रश्न शेष नहीं था।