ब्याही भरी बेटी घर में आकर बैठ गयी ,क्या करें ?यहाँ तो कोई किसी की सुनता ही नहीं ,मैंने कितना कहा था ?बेटी को अधिक पढ़ाना ठीक नहीं , अधिक पढ़ने का हश्र देख लिया। अपनी पत्नी की तरफ देखकर बोले -हमारे बड़े -बूढ़े यूँ ही नहीं कहते थे, कि बेटियों को कम शिक्षित करो ,फिर अपने अधिकार और आत्मसम्मान ,स्वाभिमान की बातें करने लगतीं हैं। तो क्या अपने अधिकार के लिए न लड़ें ?अपनी बात न उठायें और घुटती रहें ,विद्या की माँ ने गुस्से से कहा। रामलाल जी बोले -मैंने कब कहा, कि अपने अधिकार की लड़ाई न लड़ें ?किन्तु हर चीज का एक समय होता है ,पढ़ -लिख जाने के बाद तुमने उसमें क्या देखा ?
ज़िद करना ,अपनी बात मनवाना ,किसी की भावनाओं से उसे कोई मतलब नहीं ,धैर्य तो उसमें कतई नहीं। उस दिन दामाद जी ने भी समझाया था कि समय के साथ सब ठीक हो जायेगा तो मेरे सामने ही उन पर चिल्ला उठी और बोली -वो समय कब आएगा ?अब क्या होगा ?वे चिंतित स्वर में बोले -दामाद जी से बिना मिले ही आ गयी ,वे क्या सोचेंगे ?विद्या की माँ बोली -आप चिंता न करें ,मैं विद्या से बात करूंगी ,सब ठीक ही होगा। ये बात सारे गांव में आग की तरह फैल गयी ,रामलाल की बेटी विवाह के डेढ़ साल बाद ही घर आकर बैठ गयी। माँ ने समझाया -हमेशा जोश से नहीं ,होश से काम करना चाहिए ,वहां ऐसी क्या कमी थी ?जो तुझे नौकरी करने की आवश्यकता पड़ गयी। अभी उत्तम भी बड़ा हो जाता ,अपनी घर -गृहस्थी समझ लेती ,तभी कुछ आगे कदम बढ़ाती ,नहीं माँ, मुझे ये चूल्हे -चौके में नहीं पड़ना। आप क्या चाहती हो ?मैं भी ज़िंदगी भर रसोई में घुसी रहती ,उन लोगों की ख़ुशी के लिए अपना जीवन बर्बाद कर लेती। उसकी ऐसी सोच सुनकर वो बोलीं -क्या तुम लोगों की देखरेख में मैंने अपना जीवन बर्बाद कर लिया ?क्या तुम लोग मेरे अपने नहीं हो ?अपने लोगों के साथ रहना उनकी ख़ुशी के लिए कार्य करना जीवन बर्बाद करना है। यदि मैं भी तुम्हारी तरह सोचती तो क्या ये परिवार बसता ?मैंने सोचा था, पढ़ने के बाद तुम्हारी सोच का विस्तार होगा ,और मुझसे बेहतर कुछ कर पाओगी। तेरे पापा की हालत तो ऐसी नहीं थी कि नौकर -चाकर लगा सकें ,हमने तो तिनका -तिनका जोड़ ये घर बसाया है कि जैसी परिस्थिति में हम लोग रहें वो दिन तुम्हें न देखने पड़ें। तुम्हारी ससुराल में तो पहले से ही इतना धन है कि तुम्हें तो कुछ सोचने और करने की आवश्यकता ही नहीं थी। चूल्हे -चौके में भी नहीं खपना पड़ता ,तुमने तो'' भरी थाली में लात मार दी ''माँ ने दुःखी होते हुए कहा। माँ की बात का समर्थन करते हुए बोली -वैसे तो आप सही कह रहीं हैं किन्तु मेरी अपनी भी कुछ इच्छाएं हैं ,मेरी अपनी भी एक सोच है। मन ही मन माँ की बातों से वो सहमत थी।
ज़िद करना ,अपनी बात मनवाना ,किसी की भावनाओं से उसे कोई मतलब नहीं ,धैर्य तो उसमें कतई नहीं। उस दिन दामाद जी ने भी समझाया था कि समय के साथ सब ठीक हो जायेगा तो मेरे सामने ही उन पर चिल्ला उठी और बोली -वो समय कब आएगा ?अब क्या होगा ?वे चिंतित स्वर में बोले -दामाद जी से बिना मिले ही आ गयी ,वे क्या सोचेंगे ?विद्या की माँ बोली -आप चिंता न करें ,मैं विद्या से बात करूंगी ,सब ठीक ही होगा। ये बात सारे गांव में आग की तरह फैल गयी ,रामलाल की बेटी विवाह के डेढ़ साल बाद ही घर आकर बैठ गयी। माँ ने समझाया -हमेशा जोश से नहीं ,होश से काम करना चाहिए ,वहां ऐसी क्या कमी थी ?जो तुझे नौकरी करने की आवश्यकता पड़ गयी। अभी उत्तम भी बड़ा हो जाता ,अपनी घर -गृहस्थी समझ लेती ,तभी कुछ आगे कदम बढ़ाती ,नहीं माँ, मुझे ये चूल्हे -चौके में नहीं पड़ना। आप क्या चाहती हो ?मैं भी ज़िंदगी भर रसोई में घुसी रहती ,उन लोगों की ख़ुशी के लिए अपना जीवन बर्बाद कर लेती। उसकी ऐसी सोच सुनकर वो बोलीं -क्या तुम लोगों की देखरेख में मैंने अपना जीवन बर्बाद कर लिया ?क्या तुम लोग मेरे अपने नहीं हो ?अपने लोगों के साथ रहना उनकी ख़ुशी के लिए कार्य करना जीवन बर्बाद करना है। यदि मैं भी तुम्हारी तरह सोचती तो क्या ये परिवार बसता ?मैंने सोचा था, पढ़ने के बाद तुम्हारी सोच का विस्तार होगा ,और मुझसे बेहतर कुछ कर पाओगी। तेरे पापा की हालत तो ऐसी नहीं थी कि नौकर -चाकर लगा सकें ,हमने तो तिनका -तिनका जोड़ ये घर बसाया है कि जैसी परिस्थिति में हम लोग रहें वो दिन तुम्हें न देखने पड़ें। तुम्हारी ससुराल में तो पहले से ही इतना धन है कि तुम्हें तो कुछ सोचने और करने की आवश्यकता ही नहीं थी। चूल्हे -चौके में भी नहीं खपना पड़ता ,तुमने तो'' भरी थाली में लात मार दी ''माँ ने दुःखी होते हुए कहा। माँ की बात का समर्थन करते हुए बोली -वैसे तो आप सही कह रहीं हैं किन्तु मेरी अपनी भी कुछ इच्छाएं हैं ,मेरी अपनी भी एक सोच है। मन ही मन माँ की बातों से वो सहमत थी।
विद्या को अपने मायके आये हुए , एक माह हो गया ,उधर से किसी का कोई जबाब नहीं आया ,अब उसकी नौकरी भी न रही और जगह इसीलिए नहीं गयी , माँ ने कहा था -शायद ,दामाद जी कभी भी लेने आ जाएँ। विद्या के दिन बढ़ते ही जा रहे थे और ससुराल की तरफ से कोई सूचना नहीं थी। माता -पिता की चिंता दिन ब दिन बढ़ती जा रही थी ,उन्होंने विद्या से ही कहा भी , कि वो ही पहल करके अपनी ससुराल चली जाये तो वो इसके लिए तैयार नहीं हुयी ,बोली -जब तक लेने नहीं आएंगे ,मैं नहीं जाउंगी। उधर प्रतीक के दोस्तों ने भी कहना आरम्भ किया -भाभीजी ,को घर कब ला रहे हो ?उसकी भी इच्छा थी कि विद्या घर आ जाये ,बहुत दिन हो गए ,उत्तम का चेहरा देखे किन्तु पिता के डर से कुछ नहीं बोले। एक दिन किसी ने पूछ ही लिया- नंबरदार बहु को कब ला रहे हो ?तब उन्होंने जबाब दिया -अपनी इच्छा से गयी है ,हमसे नहीं पूछकर गयी तो आयेगी भी अपने आप। पिता की मंशा जान प्रतीक की हिम्मत जबाब दे गयी किन्तु प्रतीक ने किसी के द्वारा एक पत्र विद्या को भेजा -विद्या,,,,
जब से तुम गयी हो, घर सूना लगता है। तुमने तो न ही मुझे अपना समझा न ही विश्वास किया और मुझसे बिना मिले ही चली गयीं ,मेरा इंतजार भी नहीं किया। तुम्हारी ज़िद में उस बेचारे उत्तम का क्या दोष ?उसे तो अपने पिता की याद आती होगी ,मेरा उससे मिलने का बहुत ही मन है ,ये घर तुम्हारा है ,जब जी चाहे आ सकती हो।,,,,,,,,,,तुम्हारा प्रतीक।
पत्र पढ़कर विद्या ने जबाब में कहा -जब तक मुझे लेने वो नहीं आएंगे ,मैं नहीं जाऊँगी। एक उम्मीद बंधी थी ,उसकी बात सुनकर माता -पिता ने माथा पीट लिया। उन्हें उम्मीद नहीं लग रही थी कि उसके ससुर के रहते ,उनकी बिना इजाजत के कोई यहां आ पायेगा। विद्या ने पास के ही किसी गांव में नौकरी कर ली। रामलाल जी परेशान थे ,पता नहीं ,इसकी किस्मत में क्या लिखा है ?पिता बीमार रहने लगे ,उन्हें तो बेटी का ग़म खाये जा रहा था। बेटे को छोड़कर वो नौकरी पर जाती। एक वर्ष बाद पिता चल बसे ,अब माँ और भाई ही खेती संभालते। उत्तम अमीर बाप की औलाद होने पर भी ,ग़रीब बच्चों की तरह पल रहा था। घर में भाभी ही होती जो घर की और अपने बच्चों की देखभाल करती। विद्या दो पैसे कमाकर ला ती इसीलिए चुप थी। तीन -चार वर्ष बाद उन्हें सूचना मिली कि प्रतीक का दूसरा विवाह होने जा रहा है। एक उम्मीद में वो जी रही थी कि कोई दिन तो ऐसा होगा जब उसकी ससुराल से कोई लेने आएगा ,थोड़ी ना नुकुर के बाद मैं चली जाऊँगी। ये ख़बर सुन, वो अंदर तक हिल गयी ,आज उसे कुछ खोने का एहसास हो रहा था। माँ बोली -हमने तुझे ग़लत ही पढ़ाया ,तूने तो अपने घर में स्वयं ही आग लगा दी। थोड़ा झुक जाती तो अपने घर को तो बचा लेती ,तेरा ये कैसा आत्मसम्मान है ?जो अहंकार में बदल गया और तू अपने घर को ही न बचा सकी। उस दिन घर में मातम रहा। विद्या के आत्मसम्मान के ,उसके स्वाभिमान के टुकड़े -टुकड़े हो चुके थे ,वो पूरी रात रोती रही और सुबह अपनी नौकरी पर चल दी ,जैसे उसे कुछ फ़र्क ही नहीं पड़ा। अब वो और कठोर हो गयी, किसी के कहने का उस पर कोई असर नहीं होता।बेटा अब छः वर्ष का हो गया ,अभी तक उसे पढ़ने नहीं भेजा। भाभी ने भी साफ जबाब दे दिया -मैं कब तक करती रहूँगी ?यदि दो पैसे कमा भी रहीं हैं तो खर्चा भी तो हो रहा है ,कौन से हमें कमाकर दे रहीं हैं ?इन माँ -बेटों के अपने भी ख़र्चे हैं। विद्या को गुस्सा तो बहुत आया किन्तु इतनी आमदनी भी नहीं थी कि अलग रह सकें। बेटे को विद्यालय में डाला तो वहां से भाग आता ,जब तक माँ जिन्दा थी ,उसका ख़्याल रखती किन्तु माँ के जाने के बाद कोई उत्तम का ख़्याल नहीं रखता। पढ़ाई में मन नहीं लगता ,मामा अपने साथ खेतों पर ले जाता। विद्या का मन दुःखी होता रोती ,करे भी तो क्या ?''अपने पॉँव पर उसने खुद ही तो कुल्हाड़ी मारी थी '' कुछ न कर पाने की स्थिति में उसके मन में प्रतीक के प्रति आक्रोश भर गया। बेटा अब बड़ा होता जा रहा था। एक बार विद्या इतनी बीमार पड़ी कि बचने की उम्मीद न रही। नौकरी भी गयी ,अब माँ -बेटा खेतों में काम करके अपने वहां रहने की क़ीमत चुकाते।
एक दिन उत्तम बोला -माँ मेरा दोस्त बता रहा था कि मेरे पिता के पास तो बहुत पैसा है फिर हम यहाँ क्यों हैं ?मेरे और भी भाई -बहन हैं ,मुझे भी वहां जाना है ,उनसे मिलना है। तब विद्या के मन में प्रतीक के प्रति जो आक्रोश भरा था, सब निकाल दिया -उसे तो हमारी परवाह ही नहीं ,मुझे छोड़कर दूजा ब्याह रचा लिया। तेरे अधिकार पर किसी दूसरी के बच्चे पल रहे हैं। उसने मुझे धोखा दिया वरना आज हम इस तरह मजदूरों की तरह न रहते, तेरी मामी की बातें न सुनते। उत्तम के मन में अपने पिता को देखने का उत्साह था किन्तु माँ की बातें सुनकर उसे क्रोध आया। क्या इतने दिनों से पिता को हमारी सुध नहीं लेनी चाहिए थी ?मैं पिता के होते हुए अनाथों की तरह रह रहा हूँ ,मेरी माँ रात -दिन मेहनत करती है ,इसके लिए मैं उन्हें कभी माफ़ नहीं करूंगा। उसने मन ही मन एक फैसला लिया और अपने दोस्त से पता ले अपने गाँव की ओर बढ़ चला। वहां जाकर अपनी हवेली देखी तो उसकी आखें 'फटी की फटी ''रह गयीं। अपने हालत देखकर तो उसे लगा जैसे वो भिखारियों वाली स्थिति में रह रहा था। उसका क्रोध अपने पिता के प्रति बढ़ गया। मेरी और माँ की ऐसी स्थिति के लिए मेरा पिता जिम्मेदार है उसे नहीं छोडूंगा। हवेली में किसी नौकर की हैसियत से वो काम में लग गया ,कोई भी उसे जानता नहीं था। वो अपने पिता को मारने उद्देश्य से वहां रहने लगा। घर के अन्य सदस्यों की भी जानकारी ली सभी अच्छे और सरल व्यवहार के थे जिस औरत ने उसकी माँ की जगह ली वो सभ्य महिला थी सबका ख़्याल रखना ,सबकी इच्छाओं का मान रखतीं। नौकरों को भी वही मान देतीं ,उसे कोई भी व्यक्ति चालाक या लालची नहीं लगा। अब उसने अपने पिता को परखा ,देखा वो तो एकांत में घंटों बैठे रहते हैं ,कभी -कभी उदास हो जाते हैं। एक दिन पूछा - क्या बात है ?आप कुछ परेशान रहते हैं ?कुछ नहीं कहकर उन्होंने टाल दिया। एक दिन गाड़ी चलाते हुए उसने पूछ ही लिया -साहब ,मैंने सुना है ,आपके एक बेटा और है ,वो आपके पास नहीं रहता। उन्होंने ठंडी आह भरी और बोले -उसी की याद तो मुझे परेशान करती है ,पता नहीं केेसा होगा ?क्या करता होगा ?इतने वर्ष हो गए मैं उसे आज तक देख भी नहीं सका। फिर आपने उसे अपने पास क्यों नहीं रखा ?नौकर बना उत्तम बोला। आज तो वे बेहद परेशान थे ,बोले -आज मेरे बेटे का जन्मदिन है ,आज के दिन मैं 'अनाथ आश्रम''जाकर बच्चों को खाना और कपड़े बांटता हूँ। उत्तम ने सोचा -माँ ने तो आज तक मेरा कोई जन्मदिन नहीं मनाया। लौटते समय उसने पूछा -किस कारण से वो आपसे दूर हुआ ?जो उन्होंने बताया वो कहानी तो माँ की कहानी से बिल्कुल अलग थी। उस आधार पर माँ की जिद के कारण उसके अहम के कारण वो ऐसा जीवन जीने को विवश था।
कुछ दिनों बाद उत्तम अपने घर लौट आया। उसने किसी को भी नहीं बताया था कि वो अपने पिता को देखने किस उद्देश्य से गया था ?माँ ने सोचा था -किसी काम के लिए गया होगा। अपने घर की हालत देख उसके आँसू आ गए ,अपनी माँ की तरफ देख बोला -कभी -कभी अपनी ज़िंदगी में अपनी नासमझी से हम ऐसी ग़लतियाँ कर बैठते हैं कि उसका ख़ामियाजा स्वयं तो भुगतते ही हैं उससे जुड़े लोगों को भी झेलना पड़ता है। उसकी बात सुन विद्या ने उसकी तरफ देखते हुए पूछा -तू किसकी बात कर रहा है ?मैं तुम्हारी बात कर रहा हूँ ,तुमने अपनी ज़िद और अहम के चलते अपना जीवन तो बर्बाद किया ही ,मेरा भी कर दिया। इसमें मेरी क्या ग़लती थी ?न ही मैं लिख -पढ़ सका , जीवन में मैं वो आनंद ले सका जिसका मैं हक़दार था।क्या आपको याद है ?मेरा जन्म कब हुआ ?या कभी मेरा जन्मदिन मनाया।और मैं यहाँ नौकरों की तरह जीवन काट रहा हूँ ,मुझे बताओ ,इन सब में मेरी क्या ग़लती है ?माँ ने उसकी तरफ देखते हुए पूछा -ये सब बातें आज तेरे दिमाग़ में कैसे आयीं ?क्या किसी ने कुछ कहा ?मैंने बताया न तेरे पिता के कारण ही आज हम ये दुःख झेल रहे हैं। उत्तम भड़क गया ,बोला -पिता ने कहा था, कि तुम घर छोड़कर चली जाओ। पिता ने कहा था, कि तुम नौकरी करो। अपनी गलतियों को दूसरे पर मत थोपो। क्या तुम्हें बुलाने के लिए पिता ने पत्र नहीं भेजा था ?उसके प्रश्न सुनकर वो निरुत्तर हो गयी। बोली -तू ये सब क्या कह रहा है ?हाँ !मैं अपने उसी पिता से मिलने गया था जो आज भी हमें याद कर एकांत में रोता है ,मेरे जन्मदिन पर ग़रीब बच्चों को खाना और कपड़े बाँटता है। मैं उस पिता को मारने गया था ,उनकी और हमारी इस हालत की ज़िम्मेदार तुम हो।उनकी जो दूसरी पत्नी है ,वो भी पढ़ी -लिखी है लेकिन अपने परिवार के लिए लगी -लगाई नौकरी त्याग दी। परिवार यूँ ही नहीं बसते, उनमें किसी का प्यार ,किसी की मेहनत ,किसी का त्याग शामिल होता है ,तब जाकर एक ख़ुशहाल परिवार बनता है। अब विद्या को एहसास हो रहा था कि उससे गलती तो हुयी है वे दिन अब लौटाए तो नहीं जा सकते थे किन्तु बेटे के बहाने इस उम्र में वहाँ जाकर बुढ़ापा तो कट ही सकता है। कुछ माह बाद उसकी ससुराल से बेटी के विवाह का'' निमंत्रण पत्र'' आया। उत्तम की छोटी और सौतेली बहन के विवाह का। माँ को भी यही मौका ठीक लगा, बोली -उत्तम मैं अपनी गलतियों के लिए क्षमा माँग लूंगी ,मैं भी तेरे साथ चलती हूँ और वो उत्तम के साथ आज छब्बीस वर्ष बाद अपनी ससुराल आयी। तभी एक महिला ने अंदर प्रवेश कर कहा -चलिये दुल्हन की हल्दी की रस्म में आपको बुलाया है।
विद्या उठकर महिलाओं के बीच जा बैठी ,उसे देखकर महिलाओँ में खुसर -पुसर होने लगी ,ये भी अज़ीब है ,भला अपनी बेटी के विवाह में सौतन और उसके बेटे को कौन बुलाता है ?जब ज्यादा देर तक ये बातें होती रहीं तो प्रेमा बोली -बहनजी !ये तो सबको पता है कि इनका एक बेटा और है और उसका अपने पिता और बहनों पर अधिकार भी बनता है तो मैं कौन होती हूँ इन खून के रिश्तों को अलग करने वाली। रही बात सौतन की ,जब सब कुछ उसका ही था वो उसे न संभाल सकी तो अब क्या बिगाड़ लेगी ?विवाह के बाद अपने घर जाएगी। किन्तु विद्या तो कुछ और ही सोचकर आयी थी ,अभी वो चुप थी। विवाह के बाद विद्या प्रतीक से बोली -तुम तो पहले से ही मेरे थे ,मैं अपनी मूर्खता से सब छोड़ गयी ,मैं अब आ गयी हूँ ,यहीं किसी कोने में रह लूँगी ,बेटे के बिना मेरा कौन है ?उसकी बातें सुन प्रतीक बोले -अब बहुत देर हो गयी ,मैंने तो कभी बेटे पर भी अधिकार नहीं जताया ,जिसमें तुम ख़ुश रहो ,यही सोचा किन्तु तुमने उसकी क्या गत बना दी ?वो अपना जीवन कैसे गुजरेगा ?कभी सोचा तुमने। प्रतीक ने उत्तम से बात की और उसे व्यापार कराया और विद्या को भी उसके साथ ही भेज दिया। अपनी गृहस्थी में किसी भी कड़वाहट का बीज़ उन्होंने बोने नहीं दिया।उत्तम से माफ़ी माँगी कि मैं उसके बचपन को न संवार सका किन्तु अब जो भी मेरे बस में होगा ,करूँगा। कुछ वर्षों बाद जब उत्तम का काम जम गया तो एक अच्छी सी लड़की देख उसकी गृहस्थी बसा अपने दायित्व का निर्वाह किया।