बहुत दिनों से कोई संन्यासी इस क़स्बे में आये हैं , पहले तो किसी ने ध्यान नहीं दिया ,कोई इक्का -दुक्का आ जाता अपनी समस्या बताता और अपनी जिज्ञासा शांत कर चला जाता। उन सन्यासी को वहां रहते -रहते काफ़ी समय हो गया ,वहीं एक खुले स्थान पर उन्होंने एक छोटी सी कुटिया बना ली। लोग आते -जाते उन्हें देखते ,धीरे -धीरे वहाँ छोटी सी फुलवारी भी हो गयी। अब वहां का दृश्य मनोरम लगता। लोगों में उनकी चर्चा होने लगी'' कि ये महात्मा बड़े ही ज्ञानी हैं ,अच्छा ज्ञान देते हैं ''धीरे -धीरे लोगों की भीड़ बढ़ने लगी। भजन -कीर्तन और प्रवचन का समय भी निर्धारित हो गया। संध्या में भजन -कीर्तन के समय कुछ लोग आकर बैठ जाते और प्रवचन का लाभ भी लेते। हालाँकि महात्मा कुछ भी लेने से इंकार करते किन्तु भक्तजन कुछ न कुछ अवश्य ही दे जाते जिससे उनका खाने -पीने का सहारा लग जाता ,सब कुछ अच्छे से चल रहा था। वो दिनभर अपनी पूजा -पाठ और पौधों की देखभाल करते किन्तु कुछ समय से लोगों की भीड़ कम होने लगी। महात्मा ने अपने चेले गंगाधर से पूछा -गंगाधर ,क्या कारण है ?जो अब लोग कम आने लगे। एकदम से तो ऐसे भक्ति समाप्त नहीं होती ,कुछ न कुछ खुसर -पुसर तो हो रही थी मैंने पूछने का प्रयत्न भी किया किन्तु कोई कुछ नहीं बोला। गंगाधर बोला -ये तो मैंने भी महसूस किया किन्तु पता नहीं लोग अब कम आने लगे। अगले दिन जो भी इक्का -दुक्का लोग आये तो गंगाधर पूछ बैठा -क्या कारण है ?अब भजन के समय भी कम ही लोग आते हैं। रामदास पहले तो चुप रहा फिर बोला -जो आ रहे हैं ,वे भी धीरे -धीरे आने बंद हो जायेंगे। क्यों ?गंगाधर ने प्रश्न किया। क्या तुम नहीं जानते ?श्रीकांत ने पूछा। मैं कोई अन्तर्यामी हूँ जो लोगो की सोच पढ़ लूँ गंगाधर बोला।
तब रहस्य खोलते हुए ,रामदास बोला -उस स्त्री के कारण। कौन सी स्त्री ?गंगाधर ने पूछा। यहां तो अनेक स्त्रियां आती हैं। श्रीकांत झुँझलाते हुए बोला -अरे!वही जो नीम के पेड़ के नीचे बैठी थी। मैंने तो ध्यान ही नहीं दिया ,कौन है ?वो स्त्री गंगाधर ने पूछा। वो महिला कोई पारिवारिक महिला नहीं ,वो रातों को रंगीन करती है और यहां आकर महात्मा जी के प्रवचन सुनती है ,''मुँह में राम ,बगल में छुरी ''रामदास ने रहस्यात्मक अंदाज में व्यंग्य करते हुए कहा। गंगाधर उस समय चुप हो गया और कीर्तन के समय उनके बताये हुलिए के आधार पर उस महिला को देख ,महात्मा के पास दौड़ा गया और प्रातःकाल की सम्पूर्ण वार्ता का वृतान्त उन्हें बतलाया। सुनकर महात्मा शांत हो अपनी कुटिया में चले गए। वो महिला प्रतिदिन आती और प्रवचन सुनकर चुपचाप चली जाती किन्तु उसे देखकर अन्य लोग बचते और नाक -मुँह सिकोड़ते। एकाएक महात्मा जी ने ऐलान किया अबकि पूर्णिमा पर हम अपना आख़िरी प्रवचन देंगे उसके बाद हम ये स्थान त्याग देंगे। उनकी ऐसी घोषणा के बाद सब लोगों में उत्सुकता जागी कि आज का आख़िरी प्रवचन केेसा होगा ?और उससे ज्यादा उत्सुकता ये जानने की थी कि इतने वर्षो पश्चात वो ये स्थान क्यों त्यागना चाहते हैं ?आज तो बहुत भीड़ थी ,पता नहीं महात्मा क्या उपदेश देने वाले हैं। ये भी चर्चा थी कि क्या कारण है ? जो ये स्थान छोड़कर जा रहे हैं।कहीं उस कुलटा का उन्हें पता तो नहीं चल गया उसके कारण ही जा रहे होंगे। नियत समय पर महात्मन अपने स्थान पर विराजमान हो गए ,गंगाधर ने लोगों को शांत रहने का इशारा किया। सब लोग चुप थे ,तभी महात्मा जी की आवाज़ गूँजी -
बच्चा जब पैदा होता है एक कोरे कागज़ की तरह होता है अथवा मिटटी के कच्चे घड़े की तरह होता है किन्तु उस घड़े पर समाज और परिवार के लोग अनेक अच्छी -बुरी आकृतियाँ उकेरते हैं ,तब जाकर वो इंसानी रूपी कलश पककर तैयार होता है। व्यवहार से अथवा रहन -सहन से व्यक्ति अपने को 'नबाब साहब ,'और बड़े साहब कहलवाना पसंद करते हैं ,किन्तु मनुष्य 'सफ़ाई कर्मी 'के सिवा कुछ नहीं।उसका सम्पूर्ण जीवन अपने मन और तन की गंदगी को साफ़ करने में चला जाता है किन्तु गंदगी साफ़ ही नहीं होती। तभी एक श्रोता ने उठकर पूछा -ये कैसी गंदगी है ?हम जीवनभर कैसे सफ़ाई करते हैं ?महात्मा ने समझाते हुए कहा -हमारा बचपन नई -नई चीज़ें सीखने में जाता है। इसमें शिक्षक का काम है ,विद्यार्थी के अशुद्ध विचारों को स्वच्छ कर उस पात्र के अंदर सुयोग्य विचारों को भरकर उन्हें चरित्रवान और श्रेष्ठ नागरिक बनाना। तब जाकर अन्य शिक्षित ,जागरूक कामगार पैदा होते हैं। डॉक्टर ,वैद्य ,हक़ीम मनुष्य के तन की सफ़ाई में पारंगत होकर निकलते हैं। मनुष्य के तन के अंदर बीमारियों के रूप में ,कितनी गंदगी उत्प्नन होती है। दिल की बीमारी ,नसों की गंदगी ,इसी तरह के इस तन के अनेक सफाईकर्मी ,डॉक्टर के रूप में तैयार होते हैं। किन्तु उन्हें हम डॉक्टर ,वैद्य ,हक़ीम कहकर सम्मनित शब्दों द्वारा पुकारते हैं उन्हें हम तन के'' सफाईकर्मी'' या' कामगार' तो नहीं कहते। अभियंता भी अनेक तरह के होते हैं किन्तु इनका कार्य भी देश और समाज में कहीं भी हो रही टूट -फूट को दूर करना ही है। भावनाओं से जुड़े ,तो दिल ,मन आत्मा का प्यार वो उनकी कविताओं में ,लेखों में उभर आता है। जब कोई दिल दुखाता है तो दर्द शब्दों द्वारा बह निकलता है।
समाज की गंदगी पर लेखक की क़लम ही चोट करती है और आगे बढ़ती जाती है ,कलम ही लेखक -कवि द्वारा समाज को आइना दिखाती हैं कि कचरा बढ़ता जा रहा है, इसे वक़्त रहते रोक लो। हर व्यक्ति का अपना -अपना किरदार होता है। कुछ लोग अपने मन और घर का कचरा साफ़ न कर दूसरे के घर के कचरे पर टिप्पणी करते हैं। ये तो जीवन है ,इस जीवन को चलाने के लिए अच्छे -बुरे ,सच्चे- झूठे ,न जाने कितने लोगों से पाला पड़ता है ?उसी के अनुरूप हम भी न जाने कितने जाने -अनजाने ,चाहे - न चाहे कितने अच्छे और बुरे कर्म कर बैठते हैं। कई लोग तो इस खेल में इतने माहिर हो जाते हैं ,उन्हें पता है कि वो ग़लत कर रहे हैं फिर भी अपनी अंतरात्मा को मार स्वार्थपूर्ण जीवन जीना पसंद करते हैं। कुछ परिस्थितिवश अथवा मजबूरी में ग़लत काम कर बैठते हैं किन्तु सबका अपना -अपना नजरिया होता है जो हमारी नज़रों में ग़लत है उसकी नज़र में सही न भी हो तो ,मजबूरी भी हो सकती है। अपना और अपने परिवार के जीवनयापन के लिए भी कभी -कभी मनुष्य स्वार्थी हो जाता है ,इसके लिए कभी -कभी गलत राह भी चुन बैठता है। मानव अपनी आवश्यकताएं अथवा इच्छाएं इतनी बढ़ाता ही क्यों है ?कि उस े ग़लत राह चुनने के लिए मजबूर होना पड़े अथवा अपनी अंतरात्मा को झुठलाना पड़े। पहले तो इस कचरे को इकट्ठा करते रहते हैं ,जब उसमें बास [बदबू ]आने लगती है तब उसकी सफाई के लिए किसी आध्यात्मिक गुरु की तलाश करते हैं। गुरु भी तो सफाईकर्मी ही है। तुम्हारे अंदर जो छल ,कपट ,धोखा -बेईमानी की मैल परत दर परत जमी है ,उसको गुरु अपने वचनों द्वारा धीरे -धीरे गलाते हैं। वर्षों की जमी गंदगी एक दिन में दूर नहीं होती। तेज़ चोट अथवा प्रहार से तो इंसानी रूपी मूरत के टूटने का ड़र है। जिस प्रकार ये गंदगी धीरे -धीरे चढ़ी है उसी प्रकार सफ़ाई भी होती है। एक उम्र आने के बाद कोई भी कितना बड़ा खिलाड़ी क्यों न हो ?वो भी एक समय आने पर लोभ ,मोह, लालच ,छल का बोझ इतना बढ़ जाता है कि उसे महसूस होने लगता है कि सफ़ाई की आवश्यकता है। तब वो किसी मंदिर ,मस्ज़िद अथवा किसी संत -महात्मा की तलाश करता है जहाँ वो अपने इस कचरे का बोझ उतार सके। अपने बोझिल जीवन को हल्का महसूस कर सके।अब महात्मन उस बात पर आते हैं जिसके कारण लोगों का प्रवचन में आना कम हो गया।
एक महिला जो किसी की बेटी किसी की पत्नी किसी की माँ होती है ,उसके अनेक रूप होते हैं ,उसके ये रूप सम्मानिनीय होते हैं किन्तु महिला का एक रूप वो भी है जिसे लोग घृणा से देखते हैं ,उसे दुराचारिणी बुलाते हैं किन्तु समाज में उसका भी अपना योगदान है ,हालाँकि उसके कारण कई घर बर्बाद भी हो जाते हैं इस कारण उसे सम्मान नहीं दिया जाता किन्तु वो भी समाज की एक कामगार है ,वो भी सफाई का कार्य करती है ,जिसे देखकर दिन के उजाले में'' नाक -भौं सिकोड़ते'' हैं किन्तु वो ही लोग अकेले में अपनी वासना की गंदगी उड़ेलकर चले जाते हैं। वो न जाने कितने लोगों के मन और दिमाग की गंदगी अपने ऊपर ओटती है ? क्या सारी ग़लती उसी महिला की है ?उन लोगों की नहीं जो दिन में सज्जन बने रहने का स्वाँग करते हैं और रात के अँधेरे में उतने ही वहशी और क्रूर नज़र आते हैं।ये औरतें उस अग्नि को अपने ऊपर ले सारी रात जलती हैं कुछ महिलायें तो ख़ुशी से नहीं, विवशता में ये कार्य करने पर मजबूर हो जाती हैं।हमारे घरों की बहु -बेटियों का तो निकलना ही दूभर हो जाये यदि ये महिलायें न हों। मैं इस बात का समर्थन नहीं करता किन्तु आप ही सोचिये, यदि ये लोग इतनी गंदगी साफ न करें तो इन वहशियों की गिद्ध जैसी नज़र हमारी बहु -बेटियों को न छोड़े उनका गली में निकलना दूभर हो जाये। तब भी ये गंदगी कहीं न कहीं नज़र आ ही जाती है। रात के अंधेरों में ,सुनसान गलियों में न जाने कितनों की पिपाशा शांत होती है सफाईकर्मी तो लोगों के तन और भौतिक गंदगी ही साफ करता है किन्तु मेरी नज़र में हर व्यक्ति ही इस'' सफाई अभियान'' में कहीं न कहीं अपना सहयोग देता है। पापाचार इतना अधिक बढ़ जाता है तब ईश्वर स्वयं ही' प्राकृतिक आपदाओं 'द्वारा गंदगी को साफ करने का प्रयास करते हैं।
मैंने छोटी सी उम्र में ही अपना गृह त्याग किया ताकि मैं समझ सकूँ हमारे जीवन का उद्देश्य क्या है ,इस जीवन का सार क्या है ?मैं यहाँ आया, ताकि अपने ज्ञान को लोगों में बाँट सकूँ ,उनके जीवन का भी उद्धार हो सके किन्तु इतने प्रवचन सुनने के बाद भी आप लोग इस जीवन को नहीं समझ सके मैं प्रवचन देता हूँ ये मेरा कर्म है ,आप लोग उसका लाभ लेते हैं किन्तु इस कान से सुन दूसरे से निकाल देते हो उसे व्यवहार में नहीं लाते। ये समाज है और समाज तो हम लोगों के मिलने से ही तो बनता है, हमारी सोच से। यदि कोई व्यक्ति सुधरना चाहता है ,अपने जीवन को काँटों से निकालकर सही राह चुनना चाहता है तो आप लोग उसे सुधरने का मौका नहीं देते या देना चाहते उसे अपने कर्मों अथवा सोच ,व्यवहार द्वारा उसे उसी स्थान पर फ़ेंक देना चाहते है। क्या इस समाज में गलतियों का कोई सुधार नहीं ,उस व्यक्ति को सुधरने का एक मौका नहीं देना चाहिए। जहाँ तक मैं जानता हूँ ,हर गलती को सुधारा जा सकता है ,वो भी एक इंसान है। तुम लोग यहाँ आते हो मन शांत करने के लिए ,अपने मन का बोझ उतारने के लिए किन्तु इतना ज्ञान प्राप्त करने के बाद भी तुम लोग वहीं के वहीं हो ,तुम्हारी सोच मैं नहीं बदल सका तो मेरे यहां रहने का कोई लाभ नहीं ,इसीलिए मैं ये स्थान त्यागकर जा रहा हूँ। शायद मेरे ज्ञान में,भक्ति में कोई कमी रह गयी जो मैं तुम लोगों के मन के मैल को साफ न कर सका। ये शब्द कह वो तुरंत उठे और अंदर चले गए।