प्राचीन समय में ऋषि -मुनियों को ज्ञानी कहा जाता था।''वैदिक काल ''में वेदों की चर्चा होती थी ,वेद का अर्थ है -ज्ञान। ज्ञान ब्राह्मणों के हिस्से में आता था ,उन्हें ही वेद ,पुराणों को पढ़ने की इजाज़त थी। ऋषि -मुनियों का ज्ञान आध्यात्मिक होता था ,ब्राह्मण कर्मकांडी होते थे। उन्हें ही शिक्षा ग्रहण करने की आज्ञा थी।ये ज्ञान ब्राह्मणों तक ही सीमित था। धीरे -धीरे समय के साथ -साथ शिक्षा का प्रचार -प्रसार हुआ ,अन्य लोग भी शिक्षा ग्रहण करने लगे। और आज के समय में हालात ये हैं कि हर कोई ज्ञान लिए फिरता है। किसी से भी मिलो ,कुछ न कुछ ज्ञान तुम्हें दे ही जायेगा। तब हमें लगता है कि ये हमने पहले क्यों नहीं सोचा अथवा किया ?जब हमारा ज्ञान किसी को समझ नहीं आता ,अथवा हमें उसका समर्थन प्राप्त नहीं होता। उसकी समझ से बाहर होता है ,तो वो कहते हैं -'बड़ा आया ज्ञानी ,ज्ञान की गठरी लिए बोझ मर रहा है ,हमें समझा रहा है। ऐसे न जाने कितने, हमने समझा - समझाकर छोड़ दिए ?उनके लिए हमारा वो ज्ञान व्यर्थ होता है। ज्ञान भी तभी सफल है ,जब वो किसी के काम आये।
बचपन , पुराने समय में परिवार में ही खेलते -कूदते बीतता था और जब बच्चा थोड़ा बड़ा होता ,तब उसे 'अ ,आ 'की पुस्तक लेकर देते किन्तु आजकल तो बच्चे को ठीक से बोलना ,समझना भी नहीं आता और उसे विद्यालय में डाल दिया जाता है। उसका बचपन ज्ञान के बोझ तले दबकर रह जाता है। ज्ञान का बस्ता उसके नाजुक़ कंधों पर लद जाता है। बचपन से लेकर जीवनपर्यन्त उस ज्ञान को बढ़ाता और ढोता फिरता है। माता -पिता प्रसन्न होते हैं ,बेटा अथवा बेटी आगे बढ़ रहे हैं किन्तु इनमें से कितना ज्ञान किसके काम आता है ?शिक्षा द्वारा ही नहीं वरन समाज में रहकर भी वो अपने अनुभवों द्वारा, लोगों द्वारा भी व्यवहारिक ज्ञान प्राप्त करता रहता है। इसके पश्चात भी यदि किसी अन्य व्यक्ति से हम मिलते हैं और वो अपनी समझ और ज्ञान द्वारा मात दे जाता है तब हमें लगता है कि ये तो हमसे ज्यादा जानता है ,उसके सामने हम अपने को बौना महसूस कर, फिर से अपनी हीनभावना को संतुष्ट करने के लिए फिर से ज्ञानार्जन में जुट जाते हैं। ज्ञान कोई सीमित नहीं , इस संसार में ज्ञान का तो ख़जाना भरा पड़ा है।किन्तु हम उसमें से कितना ज्ञान ग्रहण कर पाते हैं ? हमारा ज्ञान सामाजिक ,राजनैतिक ,ऐतिहासिक ,भौतिक -रसायन किसी भी विषय से संबंधित हो सकता है। हम जितना भी इसकी गहराई में जायेंगे उतना ही ये ज्ञान गहरा होता जायेगा। हम बहुत बड़े राजनीतिज्ञ बन सकते हैं ,कोई कलाकार भी बन सकते हैं ,अर्थशास्त्री अथवा वैज्ञानिक भी बन जाते हैं ,इसी में सारी उम्र निकल जाती है किन्तु सम्पूर्ण ज्ञान हमें तब भी नहीं हो पाता।अभियन्ता ,वैद्य ,शिक्षक ,इत्यादि सभी अपने -अपने विषयों में ज्ञानी ही होते हैं।
एक विषय में जानकारी होने के बावजूद दूसरे विषयों में कमजोर व उससे अनभिज्ञ रह जाते हैं फिर भी मन को समझा ही लेते हैं जो भी जानकारी है औरों से बेहतर है ,इसी से प्रसन्न रहते हैं। किन्तु एक समय ऐसा आता है ,अपने इस ज्ञान की गठरी हमें या तो बोझ लगने लगती है अथवा अपने अहंकार संग ढोनी पड़ती है क्योंकि हम अपने को ज्ञानी समझने लगते हैं। फिर एकाएक हमें एहसास होता है कि ये ज्ञान तो हमारा कुछ भी नहीं, बस ''जीवन याचिका ''चलाने का माध्यम था।जब हमें एहसास होता है कि एक समय हमें ये सब छोड़कर जाना है ,तब हम डर जाते हैं और दौड़ते हैं ,आध्यात्म की ओर। क्या गीता ,कुरान ,महाभारत इत्यादि ग्रन्थ पढ़ने से ज्ञान हो जाता है ? असल ज्ञान तो जीवन का सार समझने में है। हमारा ये ज्ञान तो व्यर्थ ही जाता है ,जीवन के साथ -साथ ये भी समाप्त हो जाता है। हम क्यों हैं ?हमारे जीवन का उद्देश्य क्या है ?तब ये ऊपरी ज्ञान गौण नज़र आने लगता है। तब हम उम्र के एक पड़ाव पर आकर आध्यात्म की ओर दौड़ने लगते हैं -गीता पढ़ेंगे ,महाभारत और वेद इत्यादि की जानकारी लेंगे। कुछ क्षण तो हम इसमें खो जाते हैं किन्तु सामाजिक कार्यों में हम ये सब भूल जाते है। जीवन का उद्देश्य क्या है ,क्या पता लग पाता है ?कुछ लोगों का सम्पूर्ण जीवन ,गुफाओं -कंदराओं में अथवा हिमालय की वादियों में बीत जाता हैं इसी ज्ञान की ख़ोज में किन्तु अपने क्रोध ,अहंकार ,लालच इत्यादि विषय - वासनाओं पर विजय प्राप्त नहीं कर पाता।जो भी ज्ञान उसे होता है वो अपने अनुभवों द्वारा महसूस करता है। कुछ शक्तियां भी आ जाती हैं लेकिन फिर भी वो ये नहीं समझ पाता कि वो ये सब क्यों कर रहा है ?वो स्वयं क्या चाहता है ?जिम्मेदारियों से भागता है। ज्ञान तो क्या ?वो जीवन का उद्देश्य भी नहीं समझ पाता। एक गूढ़ रहस्य है ,जो इसके नज़दीक पहुंच जाता है अथवा थोड़ा -थोड़ा उसे समझने लगता है तो उसे अहंकार आ दबोचता है।
'' फ़ेसबुक ''यानी '' वो चेहरा जो पुस्तक की तरह पढ़ा जा सके '',उस पर भी लोग एक से एक ज्ञान की वस्तुएं डालते हैं ,जिन्हें पढ़कर लगता है कि हमारे समाज में एक से एक ज्ञानी भरे पड़े हैं। किन्तु ये उनका ज्ञान नहीं नजरिया और जीवन के अनुभव हैं जो उनकी सोच के माध्यम से उभर आते हैं ,किन्तु यही सोच ,यही नजरिया जो हमें ज्ञान देता प्रतीत होता है। जब हमारे ऊपर क्रोध ,स्वार्थ हावी होते हैं। सारा का सारा ज्ञान धरा रह जाता है। अंत में वो एक साधारण मानव की तरह अपने अधिकार अपने जीवन की लड़ाई लड़ता नज़र आता है। यह नहीं, कि ज्ञान ब्राह्मणों की ही बपौती है ,ज्ञान प्राप्त करने का अधिकार सभी को है। कभी -कभी ज्ञान तो हमें एक छोटा बच्चा भी दे जाता है। ज्ञान की कोई सीमा नहीं। जिस प्रकार अज्ञान बहुत गहरा और अंधकारमय है उसी प्रकार ज्ञान भी विस्तृत और प्रकाशवान है।