Aatm samman [part 2]

विद्या ज़िंदगी को जितना आसान समझती थी , ज़िंदगी उतनी आसान नहीं थी। अब तक सब सही चल रहा था किन्तु उसकी नौकरी करने की ज़िद ने प्रतीक और उसके बीच दूरियाँ बढ़ा दी थीं। उसका कहना था -जब मैं पढ़ी -लिखी हूँ ,तो नौकरी क्यों नहीं कर सकती ?मेरी पढ़ाई -लिखाई का क्या फ़ायदा ?पढ़ -लिखकर भी घर ही संभालना है, तो पढ़ाई करने की क्या आवश्यकता है ?घर तो कम पढ़ी, हमारी माँ भी चला लेती है फिर उनमें और मुझमें क्या फ़र्क रहा। किन्तु उसके ससुर का तर्क था ,'पढ़ाई  करने  का मतलब ये नहीं कि नौकरी ही की जाये ,बुद्धिमान और ज्ञानवान होना अच्छी बात है ,उससे तुम्हें सही -ग़लत की जानकारी होती है ,एक शिक्षित महिला घर में हो तो कई लोगों को शिक्षित कर सकती है ,पता नहीं कब, कैसी परिस्थिति आ जाये? तो पीछे न हटे और फिर इतना बड़ा घर है ,उसके काम हैं ,वो ही कर पाए, ये ही क्या कम है ?वो आत्मविश्वास के साथ जीती है ,पैसे की हमें कोई कमी नहीं। शिक्षित महिला होने का अर्थ ये नहीं कि अपने संस्कारों को भुला दें ,अपने बड़ों की बात का मान न रखें। हमारे घर की बेटियाँ भी पढ़ी हैं किन्तु वो अपने परिवारों में व्यस्त हैं ,नौकरी के हम खिलाफ़ नहीं किन्तु अभी हमें घर में एक जिम्मेदार बहु की  आवश्यकता है। प्रतीक ने समझाया भी -धीरे -धीरे सब ठीक हो जायेगा ,अपनी ज़िद छोड़ परिवार को संभालो। विद्या को प्रतीक से उम्मीद थी कि वो उसका साथ देगा किन्तु वो भी अपने पिता  के विरुद्ध कुछ न कह सका। विद्या किसी भी तरह से समझौता करने के लिए तैयार नहीं थी। उसने प्रतीक से भी उम्मीद लगानी छोड़ दी और अपने -आप ही प्रयत्न करने लगी। 

                     एक दिन गांव के किसी व्यक्ति ने आकर बताया -अरे नंबरदार जी !क्या आपकी बहु नौकरी करती है ?ऐसी क्या जरूरत आन  पड़ी कि बहु से नौकरी करवा रहे हो ?अभी तो ब्याह को सालभर ही हुआ होगा ?नंबरदारजी ने अविश्वास के साथ उसकी तरफ देखा , वो व्यंग से मुस्कुरा रहा था। उसकी तरफ देख  गुस्से में भरकर वो बोले -बेघ्घा ,तू अपनी हरकतों से बाज नहीं आएगा। हम क्यों अपनी बहु को नौकरी करवाने भेजेंगे ?बेघ्घा मुस्कुराकर बोला -ना , ना नंबरदार ,इसमें मैंने अब क्या कर दिया ?जो देखा वही बताया। तूने क्या देखा ?अपने गुस्से को काबू में करते हुए नंबरदार ने पूछा। क्या तुम्हें कुछ नहीं पता, बेघ्घा ने अविश्वास से पूछा।क्या पता? तुम्हारे लड़के को पता होगा ,उसकी बहु है ,उससे तो पूछकर ही गयी होगी। हां, हो सकता है पर तू बता कि तूने बहू को कहाँ देखा ?नंबरदार ने पूछा। बेघ्घा बोला -मैंने उसे हमारे गांव के 'सरकारी विद्यालय'' में मास्टर रामलाल के साथ देखा। मैंने तो मासाहब से पूछा भी कि यहाँ नंबरदार की बहु क्या कर रही है? तो उन्होंने ही बताया  कि ये यहाँ नौकरी करती है ,सो पूछने चला आया। नंबरदार चुप थे ,बेघ्घा जानता था नंबरदार का गुस्सा, इसीलिए उसने वहां से धीरे से खिसकने में ही अपनी भलाई समझी ,आग तो वो लगा ही चुका था। शाम को प्रतीक ने घर आकर खाना खाया और अपने पिता के लिए घेर में ही खाना ले गया। पिताजी ,खाना खा लो !वो चुपचाप काम में लगे रहे, प्रतीक ने दुबारा कहा। वो जो इतनी देर से अंदर ही अंदर जल -भून रहे थे ,बोले -तूने रोटी खा ली। प्रतीक ने कहा- हाँ अभी खाकर आया हूँ। तब तू ये बता कि तू बहु को कहाँ भेज रहा है ?मैं कहाँ भेजूँगा उसे ?मैं तो अपने काम पर चला जाता हूँ ,सारा दिन घर में ही तो रहती है वो। 
                     तभी तड़ाक के साथ ,प्रतीक के एक पास पड़ा डंडा उठाकर नंबरदार ने उसकी कमर में दे मारा। प्रतीक बिलबिला गया और कुछ समझ पाता इससे पहले ही तीन -चार लट्ठ और उस पर पड़ चुके थे। प्रतीक को पता था जब पिताजी को गुस्सा आता है वो कुछ नहीं देखते ,उसने भागने में ही भलाई समझी किन्तु वो ये नहीं समझ पा  रहा था कि बहुत दिनों बाद उसकी इस तरह पिटाई क्यों हो रही है ?पिताजी गुस्से में बड़बड़ाते भी जा रहे थे कि अपनी औरत को भी क़ाबू में नहीं रख सकता और क्या करेगा ?वो भागकर जा रहा था और पिताजी पीछे -पीछे। रात के समय शोर सुनकर मौहल्ले वाले भी अपने घरों से बाहर आ गए। एक -दो ने तो नंबरदार को समझाना  चाहा और पूछा भी -क्या बात है ?क्यूँ सयाने बेटे को पिट रहे हो, अब तो उसका विवाह भी हो गया ,बहु क्या सोचेगी ?प्रतीक भागता हुआ घर के अंदर घुस गया और सांकल लगा ली। उसके माथे पर गुल्ला उभर आया था और कंधे दर्द कर रहे थे। उसकी ऐसी हालत देख विद्या घबरा गयी बोली -क्या हुआ ?प्रतीक बोला -पिताजी ने मारा ,क्या तुमने कुछ किया जो आज वो इतना गुस्से में हैं ?विद्या कुछ समझ नहीं पाई ,बोली -मैंने क्या किया ?तुम्हारी पिटाई से मेरा क्या मतलब ?मतलब है ,पिताजी मारते हुए कह रहे थे -अपनी ''औरत को काबू में नहीं रख सकता ''पहले तो विद्या घबरा गयी फिर सम्भलते हुए बोली -मैं तो सिर्फ पढ़ाने विद्यालय गयी ,उल्हाना देते हुए बोली -तुमने तो साथ दिया ही  नहीं ,मैं  स्वयं ही गयी वो ये बातें बड़ी आसानी से कह गयी। 

                  प्रतीक ने आश्चर्य से पूछा -क्या तुम पढ़ाने जाती हो ?मुझे पता भी नहीं ,न ही तुमने  बताने की  आवश्यकता महसूस की। पिताजी ने जब तक प्यार से समझाया ,तब तक ठीक था ,तुम पिताजी के गुस्से को नहीं जानतीं ,पूरा गाँव जानता है। किसी अनिष्ट की आशंका से घबराते हुए प्रतीक बड़बड़ाया -पता नहीं अब क्या होगा ?विद्या से बोला -ये तुमने अच्छा नहीं किया और ये बात यहीं पर खत्म नहीं होगी। अगले दिन प्रतीक पिता से मिलने नहीं गया ,उसे पता था कि पिताजी का गुस्सा अभी शांत नहीं हुआ होगा। वो अपने काम पर भी नहीं गया क्योंकि उसके चेहरे और कंधे पर चोट के निशान थे। मजबूरी में विद्या ने भी छुट्टी ले ली। दो दिन बाद विद्या के  पिता ने घर में प्रवेश किया। उनका अचानक इस तरह आना ,उसे कुछ अजीब लगा। जलपान के बाद पिता ने पूछा -क्या तुम परिवार में बिना किसी के बताये घर से बाहर नौकरी करने गयीं थीं ?विद्या बोली -पिताजी मेरी यही इच्छा है कि पढ़ -लिखकर मैं आत्मसम्मान के साथ जियूँ। पिताजी बोले -शिक्षा हमें शालीनता सिखाती है ,अपने पैरों पर खड़े होना सिखाती है किन्तु अपनी इच्छाओं के लिए दूसरे के मान -सम्मान को महत्व न देना भी तो सही नहीं है और जब दामाद जी ने समझाया कि सब  ठीक हो जायेगा तो थोड़ा इंतजार कर लेतीं। समय के अनुकूल होने का इंतजार कर सकती थीं। नौकरी के लिए इतनी जल्दी भागना कोई जरूरत आन  पड़ी थी क्या ?भगवान का दिया सब तो है तुम्हारे पास, फिर इस भरे -पूरे परिवार को क्यों नर्क बनाने पर तुली हो ?मुझे तुम्हारे ससुर ने बुलाया और तुम्हें समझाने के लिए बोला। उनके परिवार का मान -सम्मान ,रुतबा है ,उसे क्यों इस तरह बर्बाद कर देना चाहती हो ?विद्या को अपने पिता पर क्रोध आया कि मेरे ससुर को समझाने की बजाय, मुझे समझाने आ गए। पिता ने उधर विद्या के ससुर को समझाने का प्रयत्न  भी किया -देखिये भाईसाहब , विद्या अभी बच्ची है ,आप घर के बड़े -बुजुर्ग़ हैं ,आपको भी समझदारी से काम लेना होगा ,बच्चे बड़े हो गए इस तरह मारना -पीटना भी ठीक नहीं। किन्तु अपने समधि  के क्रोध की भी उन्हें जानकारी थी। बेटी ब्याही थी और उसने गलती भी की थी। वो किसी भी तरह बात को बढ़ाना नहीं चाहते थे बल्कि धैर्य से बातों को संभालना चाहते थे ताकि  बेटी का घर -परिवार बना रहे। धन -दौलत और रूतबे में ये लोग उनसे बहुत ज्यादा थे ,वो तो बेटी का अच्छा नसीब समझते थे कि ऐसी  अच्छी ससुराल मिली।उन्होंने बेटी को समझाना ही बेहतर समझा। जो कुछ भी है तुम्हारा ही तो है, तुम स्वयं भी खुश रहो और दूसरों को भी रहने दो, कहकर वो तो चले गए।
                कुछ दिनों तक तो सब शांत रहा किन्तु विद्या का मन उसे भीतर से कचोटने लगा -''मैंने क्या कुछ गलत किया ?परिवार का नाम बदनाम किया या कोई ग़लत कार्य कर रही हूँ।  कहने को तो ये घर मेरा है किन्तु मेरी अपनी इच्छा कोई मायने नहीं रखती ,अपनी इच्छा से कुछ नहीं कर सकती। अपनी तरह से जीवन भी नहीं जी सकती ,ये भी कोई ज़िंदगी हुई ?कहने को तो पति सुख -दुःख में साथ निभाते हैं किन्तु ये ऐसे हैं जो अपने पिता से सही और ग़लत की बात भी नहीं कर सकते। मैं इनके इशारों पर नाचने वाली कठपुतली नहीं ,मेरा भी अपना जीवन है ,मेरा अपना अस्तित्व है ,मैं इस तरह हाथ पर हाथ रखकर नहीं बैठ  सकती और उसने फिर से विद्यालय जाना आरम्भ किया। गांव में भी बात फैली कि बहु को किसी बात की कोई परवाह नहीं ,जब घरवालों ने मना कर दिया तो क्या जरूरत आन  पड़ी ? बात तो यहाँ तक फैली कि ग़रीब घर की है, अपने मायके पैसे भेजती होगी, उनके लिए कमा रही है। माता -पिता ने समझाया भी किन्तु वो अपने सपनों के लिए , किसी भी प्रकार का समझौता करने के लिए तैयार नहीं थी। माता -पिता ने बच्चे के जीवन का वास्ता भी दिया तो उसने कहा -जब मैं अपना जीवन ही न सँवार सकी तो इसका जीवन ही कैसे संवार लूँगी ?पहले अपने लिए तो खड़ी हो जाऊँ। अब तो वो प्रतीक से भी चिढ़ने लगी ,मन ही मन सोचती केेसा इंसान है, जो अपने बीवी बच्चों के लिए भी खड़ा नहीं हो सकता ,अपनी बात भी नहीं रख सकता।नंबरदार जी ने ,अबकी बार विद्या के पिता को बुलाया और विद्या को अपने संग ले जाने के लिए कह दिया। उसके पिता को भी बहुत बुरा -भला कहा , जिसे  सुनकर विद्या को भी क्रोध आ गया और तैश में आकर वो भी तैयार हो गयी ,उसने प्रतीक के आने का इंतजार भी नहीं किया। 

             शाम को जब प्रतीक घर आये ,विद्या और बच्चे को न पाकर बहुत परेशान हुए। घर में चम्पा ही थी जो काम कर रही थी उन्होंने उससे पूछा -विद्या और उत्तम कहाँ हैं ?तब उसने बताया कि उनके पिताजी आये थे दोनों उन्हीं  के साथ गए हैं। प्रतीक किसी गलत की आशंका से हिल गए।घर बिना  बीवी बच्चे के सू ना हो गया था और उनकी इतनी भी हिम्मत  नहीं  थी कि पिता से कुछ पूछ सकें अथवा उन्हें लाने की बात भी कर सकें। पिता के गुस्से ने और पत्नी की ज़िद ने घर को मसान बना दिया। दोनों में ही अहं भरा था कोई भी झुकने के लिए अथवा समझौते के लिए तैयार नहीं। इन दोनों के झगड़े में मुझ पर क्या बीत रही ?किसी ने भी जानने का प्रयत्न नहीं किया। माँ के जाने के बाद मैं अकेला ही अपने विचारों से अपने आपसे जूझता रहा। पिताजी से तो बचपन से ही डर लगता था। विवाह के बाद सोचा -कोई तो साथी मिला जो मुझे समझेगा, मेरा हमसफ़र होगा। हम मिलकर जीवन के सुनहरे सपने देखेंगे और उन्हें पूरा करेंगे किन्तु विद्या तो समय से आगे दौड़ना चाहती है ,जैसे उसे मेरी आवश्यकता ही नहीं ,वो तो अपने सपनों के साथ ही खुश है उसे मेरे साथ की कोई आवश्यकता नहीं , उसने तो मुझे सोचने समझने का समय ही नहीं दिया ,अभी तो जीवन शुरू ही हुआ है और इन झगड़ों के बीच उत्तम का क्या दोष ?वो वहां उसे कैसे संभालेगी ?ये सब सोचते हुए प्रतीक की आँखें नम हो गयी। किसी को क्या परवाह है ?कहते हुए प्रतीक ने वे अश्रु पोंछ लिए। क्रमशः 
            विद्या अपने घर चली गयी ,क्या वो वापस आई या नहीं इस बीच प्रतीक पर क्या बीती ?यह जानने के लिए अगले भाग में पढ़िए -[ आत्मसम्मान ३ ] 





















 
laxmi

मेरठ ज़िले में जन्मी ,मैं 'लक्ष्मी त्यागी ' [हिंदी साहित्य ]से स्नातकोत्तर 'करने के पश्चात ,'बी.एड 'की डिग्री प्राप्त करने के पश्चात 'गैर सरकारी संस्था 'में शिक्षण प्रारम्भ किया। गायन ,नृत्य ,चित्रकारी और लेखन में प्रारम्भ से ही रूचि रही। विवाह के एक वर्ष पश्चात नौकरी त्यागकर ,परिवार की ज़िम्मेदारियाँ संभाली। घर में ही नृत्य ,चित्रकारी ,क्राफ्ट इत्यादि कोर्सों के लिए'' शिक्षण संस्थान ''खोलकर शिक्षण प्रारम्भ किया। समय -समय पर लेखन कार्य भी चलता रहा।अट्ठारह वर्ष सिखाने के पश्चात ,लेखन कार्य में जुट गयी। समाज के प्रति ,रिश्तों के प्रति जब भी मन उद्वेलित हो उठता ,तब -तब कोई कहानी ,किसी लेख अथवा कविता का जन्म हुआ इन कहानियों में जीवन के ,रिश्तों के अनेक रंग देखने को मिलेंगे। आधुनिकता की दौड़ में किस तरह का बदलाव आ रहा है ?सही /गलत सोचने पर मजबूर करता है। सरल और स्पष्ट शब्दों में कुछ कहती हैं ,ये कहानियाँ।

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