बसंत में तो मौसम वैसे ही सुहावना रहता है ,चारों ओर हरियाली और दिन सुहावने होते हैं , उसके बाद फाल्गुन भी रंगों में सराबोर होकर अपनी मदमाती चाल से इठलाता सा आ धमकता है ,चारों ओर फूलों की बहार होती है। प्रकृति अपने पूरे शबाब पर धानी चुनर ओढ़े रहती है ,जिसमें रंग -बिरंगे फूल खिले होते हैं ,मानों क़ुदरत ने अपने हाथों से उस चुनर पर रंग -बिरंगे फूल काढ़े हों ,तभी फाल्गुन मास में ''फुलैरा दोज ''आ जाती है। गाँव की सभी लड़कियां सुबह ही फूल इकट्ठे करने लग जाती हैं शाम को सभी रंग -बिरंगे वस्त्र पहनकर और हाथों में फूल लेकर निकलती हैं और घर -घर जाकर सबके घरों के दरवाजों पर फूल बिखेरती जाती हैं और फाल्गुन के गीत गाती जाती हैं ,सारे वातावरण में अज़ीब सी मस्ती छाई होती है।
मस्ती में कभी एक -दूसरे के ऊपर भी फूल बिखेर देती हैं। सबके दरवाज़े के आगे जाकर पुकारती हैं -लो दादीजी फूल ,लो ताईजी फूल! जिस घर में जिससे जो रिश्ता होता पुकारतीं ,तभी अंदर से महिलायें आकर अपना आँचल फैलाती और उसमें बेटियों के दिए फूलों को समेट लेतीं और उन्हें बदले में अपना आशीर्वाद देतीं। शादी -शुदा लड़कियां, जिनकी पहली होली अपने मायके में होती वे भी सजधजकर इस भीड़ में शामिल होतीं। शरारतों और चुहलबाज़ी के बीच मस्ती से 'फुलैरा दोज ''मनता। उसके बाद से ही रात में घर की सभी महिलायें खाना बनाकर ,खाकर ,सभी घरों के बीच में जो चौक होता उसमें उनकी महफ़िल जमती।वहां घर की बहु -बेटियाँ सभी हमउम्र आकर बैठ जातीं ,तब रात में हल्की ठंड भी रहती तो बीच में एक अलाव भी जला लेते। अपने -अपने कट्टों -बोरी पर उस अलाव के चारों ओर बैठ जातीं और फाल्गुन के गीतों से वहां का वातावरण गूँज उठता ,अपनी क्षमतानुसार कुछ न कुछ कार्यक्रम पेशकर ,हँसा- हँसा कर लोट -पोट कर देती , कई तरह के अभिनय और हंसी -ठिठौली के साथ वो कार्यक्रम देर रात तक चलता।ये कार्यक्रम होली तक रोज़ाना होता।
मस्ती में कभी एक -दूसरे के ऊपर भी फूल बिखेर देती हैं। सबके दरवाज़े के आगे जाकर पुकारती हैं -लो दादीजी फूल ,लो ताईजी फूल! जिस घर में जिससे जो रिश्ता होता पुकारतीं ,तभी अंदर से महिलायें आकर अपना आँचल फैलाती और उसमें बेटियों के दिए फूलों को समेट लेतीं और उन्हें बदले में अपना आशीर्वाद देतीं। शादी -शुदा लड़कियां, जिनकी पहली होली अपने मायके में होती वे भी सजधजकर इस भीड़ में शामिल होतीं। शरारतों और चुहलबाज़ी के बीच मस्ती से 'फुलैरा दोज ''मनता। उसके बाद से ही रात में घर की सभी महिलायें खाना बनाकर ,खाकर ,सभी घरों के बीच में जो चौक होता उसमें उनकी महफ़िल जमती।वहां घर की बहु -बेटियाँ सभी हमउम्र आकर बैठ जातीं ,तब रात में हल्की ठंड भी रहती तो बीच में एक अलाव भी जला लेते। अपने -अपने कट्टों -बोरी पर उस अलाव के चारों ओर बैठ जातीं और फाल्गुन के गीतों से वहां का वातावरण गूँज उठता ,अपनी क्षमतानुसार कुछ न कुछ कार्यक्रम पेशकर ,हँसा- हँसा कर लोट -पोट कर देती , कई तरह के अभिनय और हंसी -ठिठौली के साथ वो कार्यक्रम देर रात तक चलता।ये कार्यक्रम होली तक रोज़ाना होता।
'फुलैरा दोज ''की तरह ही होली वाले दिन भी वे तैयारी करतीं बल्कि कई दिन पहले ढ़ाल और बुरकले बनातीं [गोबर से बनते हैं ]उनमें छेद करके उनकी माला तैयार करतीं। नए -नए वस्त्र पहनकर इकट्ठा होतीं और गोल घेरा बनाकर घूम -घूमकर , नाचतीं और फगुआ गातीं -
कोरे -कोरे कलश मँगाये ,उसमें घोला रंग ,
भर पिचकारी मेरे टीके पे मारी ,टीका हो गया तंग ,
रंग मैं होली कैसे खेलूँ रे सांवरियां ,तोरे संग ,रंग मैं।
ढोलक बजे ,मंजीरा बाजे और बाजे मृदंग ,
कान्हा जी की मुरली बाजे ,राधा जी के संग।
अथवा
आज बिरज में होली रे रसिया ,होली रे रसिया बरज़ोरी रे रसिया
जैसे गीतों से वातावरण गूंज उठता ,बच्चे भी कूद -फांद करते। सभी का मन होली के रंग में सराबोर हो जाना चाहता।सुबह को सभी के घरों में खीर -पूरी ,पूड़े ,मीठी पूड़ी बनती ,शाम को सभी लड़कियाँ तैयार होकर जहाँ होली के जलाने की तैयारी होती है ,वहां जाती हैं और उसके चारों ओर घूम -घूमकर गीत गातीं और बुरकले की तैयार माला होली में डाल देतीं और महिलायें पूजन करतीं ,उसके बाद गीत गाती हुई वापस घर लौटते समय फूलों की तरह ही बुरकले घर -घर डालती जातीं। अगले दिन रंग से होली खेलतीं ,पानी ,गुलाल ,पक्के रंग से हर कोई होली का मज़ा लेता नज़र आता। बच्चा क्या और बूढ़ा क्या ?बच्चे तो जैसे शरारतों के पुतले बन जाते ,उन पर पंद्रह दिन पहले ही होली की मस्ती चढ़ी होती। नई -नई शरारतें करते, कभी गुब्बारे में पानी भरकर किसी पर भी फेंक देते अथवा एक लम्बी डंडी में धागा बांधते और मछली पकड़ने के तरीके से उस कांटे में किसी की भी टोपी या पगड़ी फ़ंसाकर ऊपर खींच लेते ,जब तक वो व्यक्ति पीटने या पकड़ने आता भाग जाते। पूरा गांव अपना होता ,गांव के लोग भी अपने ताऊ -चाचा होते ,गांव में कोई बच्चा खो भी जाता तो उसके पिता अथवा बाबा का नाम पूछ उसके घर छोड़ आते ,पूरे गाँव की एक ही होली होती थी और 'होलिका दहन '' पर पूरा गांव एक साथ होता और पिता अपने-
अपने बच्चों को कंधों पर बिठाकर 'होलिका दहन ''दिखा ,अपनी परम्पराओं में शामिल करते आज तो हर मौहल्ले की अलग -अलग होली होती है। बच्चों के पिता को इतना समय ही नहीं मिल पाता कि पिता बच्चे को अपने रीति -रिवाज़ों और परम्पराओं से उन्हें अवगत कराये ,स्वयं भी त्यौहार का आनंद लें और बच्चों को भी मस्ती करने दें। त्योहारों का अब इतना मज़ा नहीं रहा ,पिता को समय नहीं ,बच्चा भी इतनी रूचि नहीं लेता और चलचित्र पर या मोबाइल पर अपना समय व्यतीत करता है। त्यौहार का भी तभी एहसास होता है जिस दिन घर में कढ़ाई चढ़ती है ,कुछ मध्यवर्गीय महिलायें अपने रीति -रिवाज़ और परम्परायें आज भी निभाने का प्रयत्न करती हैं किन्तु कुछ नौकरी -पेशा महिलायें इन सबसे बचना चाहती हैं उनके लिए तो बाहर घूमने जाना और बाहर ही खाना- खाना ही त्यौहार है। 'फुलैरा दोज ''क्या होती है ?वे नहीं जानतीं। कुछ 'संयुक्त परिवार ''अभी ऐसे हैं जो अपनी परम्पराओं को आज भी निभाने का प्रयत्न करते हैं किन्तु कुछ ''एकाकी परिवार ''अपनी रस्मों को भुला देते हैं। कुछ तो रंग भी ठीक से नहीं खेल पाते ,कोई लगाए भी तो संवाद सुनने को मिलेंगे -''मेरी त्वचा खराब हो जाएगी ',मेरे चेहरे पर मुँहासे आ जायेंगे ,''मेरे बाल ख़राब हो जायेंगे'बस ज़रा सा टीका लगाना ''क्योंकि आजकल प्राकृतिक रंग तो रहे नहीं और लोग अपने रंग -रूप को लेकर ज़्यादा जागरूक हो गए हैं। पहले अचानक ही किसी को घेर लेते थे ,रंग के साथ -साथ पानी में ही भिगो देते थे। उस हंसी -ठिठौली में सब एक रंग हो जाते थे और वो था 'प्रेम का रंग ''
अपने बच्चों को कंधों पर बिठाकर 'होलिका दहन ''दिखा ,अपनी परम्पराओं में शामिल करते आज तो हर मौहल्ले की अलग -अलग होली होती है। बच्चों के पिता को इतना समय ही नहीं मिल पाता कि पिता बच्चे को अपने रीति -रिवाज़ों और परम्पराओं से उन्हें अवगत कराये ,स्वयं भी त्यौहार का आनंद लें और बच्चों को भी मस्ती करने दें। त्योहारों का अब इतना मज़ा नहीं रहा ,पिता को समय नहीं ,बच्चा भी इतनी रूचि नहीं लेता और चलचित्र पर या मोबाइल पर अपना समय व्यतीत करता है। त्यौहार का भी तभी एहसास होता है जिस दिन घर में कढ़ाई चढ़ती है ,कुछ मध्यवर्गीय महिलायें अपने रीति -रिवाज़ और परम्परायें आज भी निभाने का प्रयत्न करती हैं किन्तु कुछ नौकरी -पेशा महिलायें इन सबसे बचना चाहती हैं उनके लिए तो बाहर घूमने जाना और बाहर ही खाना- खाना ही त्यौहार है। 'फुलैरा दोज ''क्या होती है ?वे नहीं जानतीं। कुछ 'संयुक्त परिवार ''अभी ऐसे हैं जो अपनी परम्पराओं को आज भी निभाने का प्रयत्न करते हैं किन्तु कुछ ''एकाकी परिवार ''अपनी रस्मों को भुला देते हैं। कुछ तो रंग भी ठीक से नहीं खेल पाते ,कोई लगाए भी तो संवाद सुनने को मिलेंगे -''मेरी त्वचा खराब हो जाएगी ',मेरे चेहरे पर मुँहासे आ जायेंगे ,''मेरे बाल ख़राब हो जायेंगे'बस ज़रा सा टीका लगाना ''क्योंकि आजकल प्राकृतिक रंग तो रहे नहीं और लोग अपने रंग -रूप को लेकर ज़्यादा जागरूक हो गए हैं। पहले अचानक ही किसी को घेर लेते थे ,रंग के साथ -साथ पानी में ही भिगो देते थे। उस हंसी -ठिठौली में सब एक रंग हो जाते थे और वो था 'प्रेम का रंग ''
शाम को कुछ लोग मंजीरे बजाते 'फगवा 'गाते पूरे गाँव में घूमते। आजकल तो कोई ही 'फगवा' गाना जानता होगा जो जानता भी होगा, समय के साथ भूल भी गया। अब तो तेज़ आवाज़ में चलचित्र के गाने चलते रहते हैं किन्तु घर गंदा न हो जाये इसीलिए पहल नहीं करते। मौहल्ले में भी कोई इक्का -दुक्का दुपहिया गाड़ी पर घूमता नज़र आ जाता है। अब वो मस्ती,उमंग न ही बड़ों में दिखती है न ही बच्चों में ,न ही 'महफिलें 'जमती हैं। हाँ, औपचारिक तौर पर ' गुलाल के टीके 'लगाकर पीने -पिलाने की रस्म ज़रूर अदा की जाती है। ज़ाम से ज़ाम टकराकर ,रंगीन मुँह की फोटो फ़ेसबुक पर अपना 'फेस 'डालकर होली की औपचारिकता पूरी कर देते हैं। बच्चों में भी वो उत्साह नहीं रहा। मोबाइल पर एक -दूसरे को होली से संबंधित कोई टिप्पणी और शुभकामनायें भेज होली मना लेते हैं। महिलायें अकेली घर कैसे संभालें ?काम बढ़ जाता है और अब हर कोई आराम दायक ज़िंदगी पसंन्द करता है। महिलायें 'किट्टी 'में अथवा 'सतसँग भवनों ''में चली जाती हैं जिससे घर और मौहल्ले सूने पड़े रहते हैं। पत्थरों के घर बनाकर ,उनके दिल भी पत्थर हो गए जिनमें कोई रिश्ता ,रीति -रिवाज़ टिकता ही नहीं। इनमें भी अपनी इच्छानुसार बदलाव कर देते हैं। कहते हैं -इन चीजों में कुछ नहीं रखा। चेहरे पर मुस्कुराहट भी फोटो खींचने तक रहती है वरना वो भी ग़ायब। आगे आने वाली पीढ़ी को हमारे रीति -रिवाज़ और परम्पराओं के बारे में पढ़ने या चलचित्र देखने पर ही पता चल सकता है, वो उन्हें जी नहीं पाएंगे, महसूस नहीं कर पायेंगे। गांव ही हैं ,जो आज भी उन परम्पराओं का अनुसरण करते हैं किन्तु कुछ गाँवों पर भी शहरीकरण का प्रभाव पड़ता जा रहा है। अब तो रही -सही कसर छुआछूत की बीमारी ने पूरी कर दी। बीमारी के कारण भी लोग मिलने से ड़रते हैं। इसी शुभकामना के साथ अगली आने वाली होली मंगलदायक हो ,सभी लिए शुभ हो और बीमारी पर विजय प्राप्त हो और अपनी टिप्पणी द्वारा मुझे प्रोत्साहित करते रहें। धन्यवाद !
Kahani achi lgi... Aise he likhe rhe
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