Do laghu khaniyan

                                       ''  हर घर कुछ कहता है  ''
आज होली है ,मिश्राजी अभी बाहर ही आकर बैठे थे ,तभी बंसल जी ने घर के अंदर प्रवेश किया और आते ही बोले -चलो मिश्राजी !होली खेलने चलते हैं ,घर बैठे हुए भी क्या करोगे ?छुट्टी और त्यौहार के दिन हैं ,इस बहाने यारों -दोस्तों से भी मिलना हो जायेगा। वैसे तो बंसल जी ठीक ही कह रहे हैं ,वैसे तो आना -जाना कहीं होता नहीं ,त्यौहारों में भी अपने घर में बैठे ,बच्चों को खेलते देखते रहते हैं। हमें तो अब लगने लगा है ,जैसे ये बच्चों का ही त्यौहार रह गया है ,अब हमारी उम्र ही कहाँ रह गयी ?कि रंग गुलाल उड़ाने की ,अभी मैं ये सब सोच ही रहा था। बंसल जी ने फिर से पुकारा -क्या सोच रहे हैं ?मिश्राजी !कहीं आप बुढ़ा तो नहीं गए या रंगों से डर लगता है। तभी श्रीमति जी एक थाली में गुझिया ,दही -बड़े और फ़ल सजाकर ले आयीं। मैंने सामान की तरफ देखते हुए  कहा -बंसल जी ,आप तब तक इन पर हाथ साफ़ करिये ,मैं अभी आता हूँ। वे अपने काम में जुट गए और मैं अंदर जाकर कपड़े बदलने और अपने बदन पर तेल लगाकर होली खेलने के लिए तैयार होने लगा। वैसे बंसल जी ठीक ही तो  रहे हैं ,बाक़ी दिनों में तो अपनी रोज़ी -रोटी के चक्कर में सारा दिन दफ्तरों में पड़े रहते हैं। त्यौहारों में भी कहीं विशेष या आवश्यक कार्य के लिए ही निकलते हैं। आस -पड़ोस में भी पता नहीं रहता कि क्या चल रहा है ?यही मौका है ,आस -पास के लोगों से भी मिलना हो जायेगा। आज कुछ दोस्तों को भी चौंका देंगे। हर कोई घर में बैठा रहता है ,मन सबका उमंगें लेता है किन्तु  पहल कोई करना नहीं चाहता। मन में बस उत्साह जगाने की देर थी और मैं अपनी तैयारी कर  बाहर आ गया। 

                   मुझे देखकर बंसल जी बोले -भई ,कितना समय लगा दिया ?क्या लड़की देखने जा रहे हो ?मैं मुस्कुराकर बोला -कहीं कोई पसंद आ गयी तो उसके साथ भी होली खेल लेंगे ,वैसे वो मुझ पर ही' लट्टू' होगी। आपकी तो चाँद बता रही है ,यहां भी कभी हरियाली थी। बंसलजी भी कहाँ हार मानने वाले थे ?बोले -आजकल तो कम उम्र के बच्चों की भी चाँद नज़र आती है ,पढ़ाई का इतना जोर रहता है ,किन्तु मैं आज भी तुमसे ज्यादा जवान और सजीला लगता हूँ कहकर स्वयं ही ठहाका लगाकर हंस पड़े। हम घर से बाहर निकल चुके थे। अपने -अपने घर के बाहर कुछ बच्चे छोटी -छोटी पिचकारियां लेकर आने -जाने वालों के ऊपर रंग डालकर ही खुश हो रहे थे ,तब बंसलजी बोले -आओ ,आज सक्सेना जी के यहाँ चलते हैं।मैं तो उन्हें ज्यादा जानता नहीं ,चलिए आज इस  बहाने उनसे भी मुलाकात हो जायेगी, उन्हें जानने का मौका मिलेगा, मैंने कहा। हम उनके दरवाजे तक पहुंचे ही थे कि कुत्ते के भौंकने की आवाज़ आयी ,मैंने कहा -इन्होंने कुत्ता पाल रखा है। बंसलजी हंसकर बोले -हाँ जी ''आजकल लोग इंसानों से ही ज़्यादा डरने लगे हैं ,पहले घर में देखते थे कि कहीं घर में कोई कुत्ता न घुस जाये ,अब कोई इंसान न घुस जाये इसीलिए कुत्ते पालते हैं ,घर में माता -पिता का इतना सम्मान न हो जितनी देखभाल कुत्ते की होती है। तब तक किसी ने दरवाजा खोल दिया। हमें देखकर सक्सेना जी फ़ीकी सी मुस्कुराहट के साथ बोले -आइये ,आइये बंसल जी ,जाओ रामू यहीं बगीचे में दो कुर्सियां डाल दो। तब मुझे पता चला कि वो लड़का उनका नौकर था वो कुर्सियां डालकर अंदर चला गया। 
                          सक्सेना जी बोले -मैं होली नहीं खेलता ,पहले रंग लगाओ फिर उसे छुड़ाने के लिए ,रगड़ते रहो। बंसलजी ने जैसे उनकी बातों पर ध्यान ही नहीं दिया ,अपनी ही धुन में बोले -नहीं जी ,हम तो ग़ुलाल ही लाये हैं। हम कोई बच्चे थोड़े ही हैं कि पक्का रंग लगाएंगे और कहते हुए उन्होंने सक्सेना जी को रंग लगा दिया और अपनी बात भी कह दी ,बस जी यूँ समझो होली के बहाने मिलने आ गए ,तब तक रामू फ़ल ,मेवे और मिठाई रख कर गया। सक्सेना जी बोले -लीजिये मिठाई खाइये ,किन्तु बंसल जी ने मिठाई की जगह मेवे उठाये। सक्सेना जी खिसयानी सी हंसी हंसकर बोले -लीजिये ,खाइये। मैंने भी उनकी इच्छा न सोचकर उनके माथे पर टीका लगा दिया। बंसल जी बोले -चलिए ,दो -चार लोगों से मिल लेते हैं किन्तु सक्सेना जी ने हाथ जोड़ दिए।  मैं सोच रहा था कि सक्सेना जी के पास पैसा है ,कोठी है किन्तु ख़ुशी और उमंग नहीं। बाहर आकर बंसल जी बोले -देखा अपने त्यौहारों के लिए ही उमंग नहीं ,पूरा कंजूस है ,ये दिखावा तो इतना करेगा और देखा मैंने दो -चार मेवे क्या उठा लिए ?उसका चेहरा देखा था। मैंने -हाँ में गर्दन हिलाई। फिर हंसकर बोले -इसका स्वभाव ही ऐसा है ,मैं भी कहाँ मैंने वाला था ,मैंने वो ही उठाये कहकर हंस दिए।  कुछ आगे  जाकर  बोले -चलो ,आज तुम्हें रामवतार जी से मिलवाते हैं ,अच्छे व्यक्ति हैं। हमें देखते ही रामवतार जी घर से बाहर आ गए ,दोमंजिला उनका मकान था सारे में पत्थर लगा था। घर चमक रहा था किन्तु हमें देखते ही उन्होंने बाहर ही कुर्सियाँ डलवा दीं ,घर में हमारे बैठने के लिए जगह ही नहीं थी ,पहले मेहमानों  को देखकर लोग खुश होते थे ,आजकल तो  इन पत्थरों में रहकर मान -सम्मान ,तीज -त्यौहार ,मेहमान नवाज़ी सब भूलते जा रहे हैं।घर के गंदे होने की ज़्यादा चिंता थी।  
               श्यामलाल जी तो बाहर बग़ीचे में ही नाश्ता लगाकर बैठ गए थे हमने दरवाजा खटखटाया तो हमें वहीं बुला लिया , वे भी सबसे  मिलना -जुलना चाहते थे किन्तु घर की महिलाओं ने उन्हें ही घर से बाहर बिठा दिया। रस्तौगी के तो ठाठ ही निराले थे ,वहाँ तो होली के नाम पर शराब की बोतलें खुल रहीं थीं ,उनके लिए तो होली का मतलब दारू पीना -पिलाना था। मैंने बंसल जी से कहा - चलिये ,अब घर चलते हैं।

वे बोले -एक आख़िरी घर है ,मेरे ही साथ काम करते हैं ,उनसे मिलकर आपको ख़ुशी होगी। मैं कुछ कहता उससे  पहले ही उन्होंने अपनी दुपहिया उस ओर मोड़ दी। हमें देखते ही वो बड़े प्रसन्न हुए और ससम्मान घर के अंदर ले गए। तब तक हम पर काफ़ी रंग लग चुका था ,घर साफ -सुथरा देख हमने ही कहा -यहीं बाहर बैठ लेते हैं आपका कमरा, सोफ़ा गन्दा हो जायेगा ,वे बोले -नहीं जी ये सामान हम लोगों के लिए है ,हम सामान के लिए नहीं। किन्तु हमारा मन नहीं माना और हमने बाहर ही कुर्सी ड़लवा दी। बच्चे भी खूब उछल -कूद कर रहे थे। उनके घर में होली की रौनक लग रही थी ,तभी उनकी पत्नी अपने हाथ से बनी गुझिया ,पापड़ और दही -बड़े ले आयी। तभी मोहल्ले की और भी महिलायें आ गयीं ,उनकी पत्नी उनकी आवभगत में लग गयी। हम लोगों ने  भी वहां बैठकर न जाने कितने किस्से कह -सुन डाले ? बातों में पता ही नहीं चला कि कितना समय बीत गया ?वहां बैठ हमारी मेहनत सफ़ल हुई ,यहाँ त्यौहार के रंग ,हमारी संस्कृति और अपनापन और प्रेम  झलक रहा था। बच्चों के साथ -साथ पति -पत्नी भी होली के त्यौहार का लुत्फ़ उठा रहे थे किसी भी प्रकार की औपचारिकता नहीं थी। 
                        
                                       '' शर्मिन्दा ''
''सजना है ,मुझे सजना के लिए ''  गुनगुनाती हुई शिप्रा स्नानागार से बाहर निकली और अपने को आईने में निहारते हुए तैयार होने लगी। उसने आज लाल रंग की साड़ी पर डिज़ाइनर ब्लाउज़ पहना। शिप्रा तैयार होकर अपने -आपको आईने में निहारने लगी, तो अपने आप पर ही रीझ उठी और बोली -शिप्रा ,आज भी तू दस वर्ष पहली वाली खूबसूरत और हसीन नज़र आ रही है। वो सोचने लगी -जब उसका विवाह दस वर्ष पहले दीपक के साथ हुआ था ,शुरू में तो वो और दीपक घूमने जाते थे ,कभी -कभी चलचित्र  आते थे। धीरे -धीरे परिवार की जिम्मेदारियां और खर्चे भी बढ़े। अपने खर्चे और समय की कटौती कर परिवार की जिम्मेदारियों में लग गए। अब दोनों बच्चे अपने -अपने विद्यालय जाने लगे तो देर -सबेर शिप्रा को खाली  समय मिल ही  जाता ,तब दीपक  कहती -कितने वर्ष हो गए ?अभी तक हम कहीं बाहर घूमने भी नहीं गए, न ही कोई चलचित्र ही देखा। रह -रहकर उसकी इच्छायें अपने पंख फ़ड़फ़ड़ाती रहतीं ,एक दिन दीपक ने घूमने चलने के लिए कहा भी तो बोली -तुम अपनी उस दुपहिया पर लेकर चल दोगे ,सारे बाल और जितनी भी सजावट की होती है सब ख़राब हो जाता है। काश !तुम गाड़ी चलाते और मैं तुम्हारे साथ आगे बैठकर जाती। आज दीपक ने घूमने जाने के लिए शिप्रा को तैयार होने के लिए कहा और स्वयं तैयार होकर गाड़ी लेने चला गया। गाड़ी की आवाज से शिप्रा का ध्यान  टूटा। शिप्रा ख्यालों में खोई सी इठलाती -बलखाती गाड़ी के पास जा पहुँची ,बोली -किसकी गाड़ी है ,कहाँ से लाये ?शिप्रा को प्रसन्न देख दीपक बोला -''तुम्हें आम खाने से मतलब है या गुठली गिनने से ''आओ चलो बैठो। बच्चे उसने उनकी दादी के पास छोड़ दिए थे आज दोनों ही कहीं दूर का कार्यक्रम बनाकर चले थे।  

                   शिप्रा बड़ी शान से गाड़ी में जाकर बैठ गयी ,अभी वो थोड़ी ही दूर चले होंगे, तभी उनकी गाड़ी के सामने साईकिल पर एक गंजा सा व्यक्ति आ गया, उसे देखकर दीपक ने गाड़ी रोक दी। उसने पूछा -सब ठीक। दीपक' हाँ' में गर्दन हिलाते हुए गाड़ी से बाहर आये ,मैंने सोचा -होगा कोई , इनका जानने वाला किन्तु उस समय उसका वहां आना शिप्रा को अच्छा नहीं लगा ,उसने शिप्रा को नमस्कार भी किया किन्तु शिप्रा ने  अभिवादन का जबाब भी ठीक से नहीं दिया और दूसरी तरफ देखने लगी।वो  बड़ी ही अकड़ में उस गाड़ी में बैठी थी, जैसे उसी की ही गाड़ी हो।कुछ देर बातें करके दीपक जब गाड़ी में आये तो शिप्रा बोली -आपके जानने वाले भी न ,खुद तो कुछ काम -धाम है नहीं ,हमारा  समय भी बर्बाद किया ,आप भी न ऐसे 'लू -लू 'पाले  रहते हैं ,शिप्रा को उस व्यक्ति पर जो  गुस्सा आ रहा था वो उसने दीपक पर उड़ेल दिया। शिप्रा की बातें सुनकर दीपक बोला -ये तो बस इंसानियत  के  नाते ,ये ही पूछने आया था कि कोई परेशानी तो नहीं , तेल वगैरह सब देख लिए क्योंकि हम  पहली बार गाड़ी से जा रहे हैं। इस बात से उसका क्या मतलब ,हम कैसे भी, कभी भी ,कहीं भी जाएँ ?दीपक उसकी तरफ देखता हुआ बोला -वो इसीलिए ,क्योंकि ये गाड़ी उसी से माँगकर लाया हूँ ,उसी की गाड़ी है ये ,दीपक ने जैसे रहस्य खोला। अब शिप्रा की हालत देखने लायक थी ,आश्चर्य से बोली -क्या ये गाड़ी उसकी है ?हाँ, मेरा  बहुत पुराना दोस्त है। 
                  शिप्रा को अपने  व्यवहार को सोचकर  बड़ी ही शर्मिंदगी महसूस हुयी ,उसके ऊपर तो जैसे 'घड़ों पानी गिर गया। ''पूरे रास्ते अपने रवैये और अपनी  खोखली मानसिकता पर मन ही मन शर्मिंदगी महसूस कर रही थी। 

















 
laxmi

मेरठ ज़िले में जन्मी ,मैं 'लक्ष्मी त्यागी ' [हिंदी साहित्य ]से स्नातकोत्तर 'करने के पश्चात ,'बी.एड 'की डिग्री प्राप्त करने के पश्चात 'गैर सरकारी संस्था 'में शिक्षण प्रारम्भ किया। गायन ,नृत्य ,चित्रकारी और लेखन में प्रारम्भ से ही रूचि रही। विवाह के एक वर्ष पश्चात नौकरी त्यागकर ,परिवार की ज़िम्मेदारियाँ संभाली। घर में ही नृत्य ,चित्रकारी ,क्राफ्ट इत्यादि कोर्सों के लिए'' शिक्षण संस्थान ''खोलकर शिक्षण प्रारम्भ किया। समय -समय पर लेखन कार्य भी चलता रहा।अट्ठारह वर्ष सिखाने के पश्चात ,लेखन कार्य में जुट गयी। समाज के प्रति ,रिश्तों के प्रति जब भी मन उद्वेलित हो उठता ,तब -तब कोई कहानी ,किसी लेख अथवा कविता का जन्म हुआ इन कहानियों में जीवन के ,रिश्तों के अनेक रंग देखने को मिलेंगे। आधुनिकता की दौड़ में किस तरह का बदलाव आ रहा है ?सही /गलत सोचने पर मजबूर करता है। सरल और स्पष्ट शब्दों में कुछ कहती हैं ,ये कहानियाँ।

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