Rajniti garmai hai

राम -राम ,चचा !केले कैसे दिए ?मेहता साहब ने पूछा। 'पचास रूपये 'दर्ज़न केले वाले ने जबाब दिया। नहीं ,चालीस लगा लो, मेहता जी बोले। नहीं साहब ,चालीस में तो पड़ता नहीं खायेगा ,महंगाई देखो जी कितनी बढ़ती जा रही है ?केले वाले ने जबाब दिया। मेहता जी मुस्कुराकर बोले -सारी आग क्या केलों पर ही पड़ेगी ?अब तो हर चीज ही महंगी हो रही है ,क्या करें ?
केले वाला -हाँ जी ,मैं भी तो यही कह रहा  हूँ ,हमें भी अपने बच्चे पालने हैं। 
 मेहता जी को केले खरीदते देखकर उनके पड़ोसी पुनीत जी भी वहीं आकर खड़े हो गए और बोले -क्या मेहता जी केले खरीद रहे हैं ?
उनकी तरफ देखते हुए मेहता जी बोले -क्या आप भी केले खरीदने आये हैं ?

पुनीत जी  बोले -जी नहीं साहब ,हमें  केले नहीं खरीदने हैं ,किन्तु अब आप ख़रीद रहे हैं तो हम भी ख़रीद लेते हैं। 
मेहता जी ठेले वाले की तरफ देखते हुए बोले -अब लगाओ ,चालीस के भाव ,तुम्हारे दो दर्ज़न केले बिक जायेंगे। 
ठेले वाला -चलो जी ,चालीस तो नहीं पैंतालीस के दाम लगा लूंगा और वो केले  गिनकर थैलों में रखने लगा। 
मेहता जी बोले -पहले समय में किसी रिश्तेदारी में ही जाते थे तो बच्चों के लिए दस रूपये की केले की फली ले लेते थे। मेहमान खाली हाथ नहीं  आते थे ,अब तो हालात ये हैं किसी के घर जाओ तो पहले अपनी जेब ठंडी करनी पड़ती है। तीन सौ -चार सौ का चूना आराम से लग जाता है ,पेट्रोल महंगा ,फ़ल भी महंगे सामने वाले को मज़ा न आये ,अब बच्चे भी ऐसे नही रहे जो केले की फली देखकर ही खुश हो जाए। पहले घर  जाकर हाल -चाल मालूम कर लेते थे ,अब तो ये काम घर बैठे ही कर लेते हैं ''हींग लगे न फ़िटकरी ,रंग चौखा। ''
पुनीत जी बोले -पहली बात तो ये कि जी अब तो लोगों के पास समय ही  नहीं है आराम से बात करने का किसके पास समय है ?पू रे सप्ताह गधे की तरह मेहनत करके एक दिन ही तो मिलता है,आराम करने का और बताइये क्या चल रहा है ?
मेहता साहब बोले -चलना क्या है ?बस ज़िंदगी कट रही है। सालों से महंगाई का रोना रो रहे हैं ,होता कुछ नहीं। सरकार कोई भी आये दूसरी सरकार की ख़ामियाँ बताकर अपने तरीक़े से महंगाई बढ़ा देते हैं ,क्या करें ?जो भी हो रहा है हम तो रोक नहीं सकते ,आये दिन दूरदर्शन पर बहस होती रहती है ,विश्लेषक बैठे रहते हैं ,परिणाम कुछ नहीं निकलता, बस समाचार वालों को एक मुद्दा मिल जाता है ,उस पर घंटों बहस होती रहती है ,एक -दूसरे की ख़ामियां गिनाई जाएँगी और अंत में परिणाम शून्य। 
पुनीत जी बोले -अजी मेहता जी ,मैं तो किसी बहस -वहस को सुनता ही  नहीं, कौन घंटो टेलीविजन केआगे बैठकर अपना समय बर्बाद करे, देखते हैं तो फिर गुस्सा आता है ,इसीलिए जो  होना होगा ,होकर ही रहेगा। मैं तो ख़ाली समय में कोई फ़िल्म देख लेता हूँ या बच्चों को लेकर घूम आता हूँ।जब पता है कि कितनी भी बहस हो ले ?परिणाम कुछ निकलना ही नहीं है। 
मेहता साहब बोले -अरे ,पुनीत जी आपने सुना !अभी एक मुद्दा और गरमाया है कि मंदिर में किसी लड़के को पानी पीने पर पीटा। 
पुनीत -अरे ,नहीं बात कुछ और होगी ,किन्तु उसको नमक -मिर्च लगाकर तोड़ -मरोड़कर उसे ऐसा दिखाएंगे कि वो हिन्दू -मुस्लिम मुद्दा बन जायेगा। अरे ,पानी के लिए कौन मना करेगा ?लोग तो प्यासों के लिए प्याऊ लगवाते हैं। लोग तो हैं ही ऐसे, फौरन अपने विचार प्रस्तुत करेंगे फिर आपस में ही ज़िरह करने लग जायेंगे। असल मुद्दा किसी को पता नहीं होता उन्हें भी उतना ही पता होता है जितना मुझे और आपको। मेहता जी -मैंने एक वीडियो देखी, उसमें एक व्यक्ति बता रहा था कि पानी की तो बात ही नहीं थी मंदिर के बाहर भी दो सरकारी नल थे, पानी तो वहां भी पीया जा सकता था। मामला तो सामान चुराने का बताया था। 
पुनीत -अरे नहीं ,भाईसाहब मैंने जो वीडियो देखी थी उसमें कोई एक लड़के को मार तो रहा था ,देखकर तो गुस्सा ही आएगा किन्तु ऐसी नकली वीडियो भी तो बना देते हैं ,असल बात तो किसी को भी नहीं मालूम। जिसने जो भी देखा उसका उसी तरह खून उबाल मारने लगा और उसी बात ने तूल पकड़ लिया ,उसी  मुद्दे को लेकर हिन्दू -मुस्लिम बना दिया। अब तो हालात ये हैं कि किसी के कांटा भी चुभा उसी पर राजनीति होने लगेगी ,बहस होने लगेंगी --'काँटा किसने लगाया ?अवश्य ही दूसरे समूह का सदस्य होगा। स्वयं लगा या किसी ने धकेला। वैसे तो लोगों के पास समय नहीं किन्तु अपना मत अवश्य प्रस्तुत करेंगे। पुनीत ने इस तरह कहा कि दोनों हँसने लगे। 
मेहता जी ठंडी साँस भरते हुए बोले -ये जो ''सामाजिक मिडिया ''पर वीडियो बनती हैं उनके कुछ लाभ भी हैं और हानि भी। लाभ ये है कि किसी न किसी तरह हकीक़त तक पहुंच ही जायेंगे और हानि ये है कि' तिल का ताड़ बनने' में देर नहीं लगती।  छोटी सी बात भी पता नहीं क्या रुख़ ले  ले  ? पुनितजी !पहले भी क्या दिन थे, लोगों में कितना अपनापन था ?अब तो बिना जाने हर तीसरा व्यक्ति संदिग्ध ही नज़र आता है। पहले अपने गांव या मौहल्ले का बच्चा कुछ ग़लत कार्य करते देख अपना बच्चा समझ डांट दिया करते थे ,समझा दिया करते थे। अब तो कोई आस -पड़ोस के सिवा किसी को कोई जानता ही नहीं ,कुछ लोगों को तो पड़ोस में कौन रह रहा है ?ये ही नहीं पता ,अपने काम से काम रखते हैं ?

पुनीत -मेहता जी की इतनी गंभीर बातें सुनकर अपने 'मूड़ 'को हल्का बनाते हुए हंसकर  बोले -फिर इन छोटे मुद्दों पर भी राजनीति गरमा जाएगी। किन्तु मेहता जी तो जैसे अपनी बात बताने पर तुले थे उन्होंने पुनीत की बात पर कोई ध्यान नहीं दिया और बोले -आजकल तो बच्चों में भी अपने से बड़ों के लिए न ही सम्मान और न ही उनका डर रहा। वो जो अपना चौराहे के पास वाला बगीचा है [कुछ सोचते हुए पुनीत ने हां में गर्दन हिलाई ]तीन -चार दिन पहले मैं वहां बैठा किसी का इंतजार कर  रहा था। मैंने देखा ,कुछ लड़के -लड़की किसी का जन्मदिन मना रहे थे किसी कॉलिज के विद्यार्थी थे। उन्हें इस बात का एहसास था कि मैं  वहीं बैठा हुआ ,उन्हें देख रहा हूँ फिर भी उन्होंने कोई ध्यान नहीं दिया। सारा केक एक -दूसरे के मुँह पर मलकर बर्बाद कर दिया और एक -दूसरे के साथ उल -जलूल हरकतें  करते रहे ,बड़ों का तो जैसे लिहाज़ रहा ही नहीं। मैं सोच रहा था, कि माता -पिता अपने खून -पसीने की कमाई से बच्चों को पढ़ाने भेजते हैं,और ये लोग इस तरह यहाँ मस्ती कर रहे हैं  और बच्चों को तो उस खाने की चीज की कीमत का ही  नहीं पता ,उससे पूछो खाने की क़ीमत जिन्हें समय पर सूखी रोटी भी मुश्किल से नसीब होती है।
पुनीत बात सुनकर बोले -भाईसाहब !डपट देते उन बच्चों को। पुनीत की बात सुनकर मेहता जी को लगा -उनकी सोच सही थी ,उनका भी मन हल्का हुआ और बोले -इस पर भी राजनीति गरमा जाती ,आजकल बच्चे अपने माता -पिता की ही नहीं सुनते ,मेरे कुछ कहने -सुनने से ,वो भी उसका जबाब दे सकते थे ,शायद मुझे ही सुनने को मिल जाता ,बच्चा समझकर आजकल किसी को कुछ कहने का धर्म ही नहीं है फिर हँसकर बोले - इस पर भी राजनीति हो सकती थी ,मैंने ही मौका नहीं दिया। 
          पुनीत जी जो इतनी देर से मेहता जी के मन की भड़ास सुने जा रहे थे बोले -हिन्दू -मुस्लिम अथवा किसी भी धर्म में होने से पहले हम इंसान हैं और इंसानों में इंसानियत तो होनी ही चाहिए बाकि बातें सब बाद में। अब तो इंसान की जान की क़ीमत भी कुछ नहीं ,कुछ तो कीड़े -मकोडों की तरह रहते और मर जाते हैं जबकि हर इंसान समाज में रहकर एक -दूसरे से जुड़ा है ,एक -दूसरे के  बिना काम सम्भव नहीं फिर भी पता नहीं, किस बात का अहंकार है ?लोगों के जुड़ने से ही ये 'सामाजिक मिडिया 'बना ,अकेला व्यक्ति क्या कर लेगा ?ये जो अभिनेता हैं ,इन्हें हम पसंद न करें उनकी कला को न सराहें तो वो कितने भी बड़े कलाकार हों ,उनके घर का चूल्हा नहीं जलेगा। चौराहे पर जो जूसवाला है वो मुस्लिम है,  हमारे  कारख़ाने से जो माल तैयार होकर निकलता है वो ज्यादातर मुस्लिम दुकानों पर ही जाता है। व्यापार में कौन, किससे  पूछता है ?कि तुम कौन  सी जाति अथवा धर्म के हो। सब दिनभर ऐसे ही मिलजुलकर काम करते हैं, तब कहीं जाकर लोगों के घर के चूल्हे जलते हैं। मेहता जी ,आप होटल में खाना खाने जाते हो तो ये थोड़े ही पूछते हो  कि खाना पकड़ाने और बनाने वाला किस धर्म अथवा जाति का है। सब एक -दूसरे से जुड़े हैं फिर भी सब भूल जाते हैं ,''मैं तो कहता हूँ -जाति और धर्म का भेदभाव भूलकर बस इंसान बनकर रहें तब भी इतने झगड़े न हों ,न ही किसी को राजनीति करने का मौका मिले। क्यों जी मेहता साहब -मैं ठिक्क केे  रिया ना ?मेहता जी हँसकर बोले -आहो जी आहो। घर भी आ गया चलो ,जी चलते हैं ''सतश्रीअकाल '',राम -राम जी राम -राम। 

























 
laxmi

मेरठ ज़िले में जन्मी ,मैं 'लक्ष्मी त्यागी ' [हिंदी साहित्य ]से स्नातकोत्तर 'करने के पश्चात ,'बी.एड 'की डिग्री प्राप्त करने के पश्चात 'गैर सरकारी संस्था 'में शिक्षण प्रारम्भ किया। गायन ,नृत्य ,चित्रकारी और लेखन में प्रारम्भ से ही रूचि रही। विवाह के एक वर्ष पश्चात नौकरी त्यागकर ,परिवार की ज़िम्मेदारियाँ संभाली। घर में ही नृत्य ,चित्रकारी ,क्राफ्ट इत्यादि कोर्सों के लिए'' शिक्षण संस्थान ''खोलकर शिक्षण प्रारम्भ किया। समय -समय पर लेखन कार्य भी चलता रहा।अट्ठारह वर्ष सिखाने के पश्चात ,लेखन कार्य में जुट गयी। समाज के प्रति ,रिश्तों के प्रति जब भी मन उद्वेलित हो उठता ,तब -तब कोई कहानी ,किसी लेख अथवा कविता का जन्म हुआ इन कहानियों में जीवन के ,रिश्तों के अनेक रंग देखने को मिलेंगे। आधुनिकता की दौड़ में किस तरह का बदलाव आ रहा है ?सही /गलत सोचने पर मजबूर करता है। सरल और स्पष्ट शब्दों में कुछ कहती हैं ,ये कहानियाँ।

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