आज' वृद्ध आश्रम ' में एक नई महिला आयी हैं ,पता नहीं लोगो को क्या होता जा रहा है ?जब माता - पिता को इस उम्र में अपने बच्चों की ज्यादा आवश्यकता होती है तो उन्हें यहां छोड़ जाते हैं, संचालिका मालिनी ने सरोज से कहा। सरोज यहाँ के सभी सदस्यों की देखभाल करती है ,उनकी जरूरतों का ध्यान रखती है। मालिनी और सरोज का आपस में दोस्ताना व्यवहार है। सरोज बोली -मैडम कौन हैं ,वो ?कोई श्रीमति जया हैं ,आप उनसे मिल लेना ,कविता तो बता रही थी कि बस चुप बैठी रहतीं हैं और शून्य में तकती रहती हैं ,कल दोपहर तक तो कुछ नहीं खाया था, शाम को चाय के साथ हल्का नाश्ता लिया था ,अभी लगता है, जैसे वो सदमे से बाहर नहीं निकली हैं।अपनों का दिया दर्द इतनी आसानी से भुलाया नहीं जा सकता ,तुम जरा उनका ध्यान रखना ,यहां के वातावरण में घुले -मिलें मालिनी ने सरोज से कहा। जी मैडम !मैं जाकर देखती हूँ ,कहकर सरोज चली गयी। सरोज उस नई वृद्धा के बारे में पूछती हुई उनके पास गयी ,वो एक पेड़ के पास बैठी थीं उनका चेहरा बेहद शांत लग रहा था ,सरोज ने पूछा -आपका यहाँ मन लग रहा है ?उन्होंने हाँ में गर्दन हिलाई और उसी तरह बैठी रहीं। सरोज बोली -माँजी ,जब नाश्ता बन जायेगा तो आपको बुला लूँगी उन्होंने फिर उसी तरह गर्दन हिलाई ,सरोज को और कुछ सुझा नहीं और चली गयी।
आज जयाजी को हमारे' उज्जवला आश्रम 'में आये ,छः माह हो चुके थे ,अब वो सबसे घुलने -मिलने भी लगीं थीं ,अब तो ऐसा व्यवहार करती थीं जैसे कुछ हुआ ही नहीं हो ,यहीं बरसो से रह रही हों। सर्दी के मौसम में सब नाश्ता करके धूप में बैठे थे ,आज अचानक अग्रवाल जी बोले -जयाजी ,आपने कभी हमें अपने बारे में नहीं बताया, कैसी रही ज़िंदगी ?क्या-क्या अनुभव करा गयी ?जयाजी उनकी बात सुनकर थोड़ी गंभीर हो गयी ,जो आस -पास बैठे थे, एकदम शांत हो गए ,पता नहीं क्या कहेंगी ?नाराज़ भी हो सकती हैं। थोड़ी देर बाद बोलीं -''जख़्म कुरेदोगे तो दर्द ही होगा ,मेरी ज़िंदगी में ऐसा क्या है? जो याद किया जा सके।'' फिर भी कुछ खट्टी -मीठी यादें अग्रवाल जी बोले। जयाजी बोलीं -यादे ही हैं ,वो खट्टी हैं या मीठी, ये तो आप तय करिये ,कहते हुए उन्होंने आँखें मूँद लीं -ऐसा लग रहा था जैसे वो अपनी ज़िंदगी में वापस लौट गई थीं ,फिर बोलीं -ऐसा नहीं कि ज़िंदगी विवाह के बाद ही आरम्भ होती है ,ज़िंदगी तो वहीं से आरम्भ होती है जहाँ हम पैदा होते हैं ,जहाँ हमारा बचपन खेलता -दौड़ता है ,जहां युवावस्था परवान चढ़ती है ,जहां सपने उड़ान भरते हैं , वो बचपन- युवावस्था कब आयी, कैसे उन्हें जीया जाता है ?कुछ पता ही नहीं चला या यूँ कहें समझ ही नहीं थी किन्तु जब होश संभाला या समझ आयी तो परेशानी मुँह बाये खड़ी थीं। पिता को कहते सुना -क्या करें ?कमाई इतनी नहीं ,खर्चे भी पूरे नहीं पड़ रहे ,बेटी ने बाहरवीं कर ही ली और बच्चे छोटे हैं ,उन्हें पढ़ाना आवश्यक है ,ये कॉलिज जाकर क्या करेगी ?तुम्हारे साथ काम में हाथ बटायेगी। इसे अगले घर जाना है। ये बातें सुनकर मुझे दुःख हुआ ,काश !मैं किसी भी तरह अपने माता -पिता की मदद कर पाती। मेरी तो आगे पढ़ने की भी इच्छा थी ,उनकी परेशानी देखूं या अपनी इच्छा। करुँगी भी क्या ,खूब सोचने के बाद अपने पिता से कहा -नहीं पिताजी ,मैं आगे पढूँगी 'व्यक्तिगत पढ़ाई 'कर लूँगी उसकी फ़ीस भी ज्यादा नहीं है। अब मेरा काम था घर में रहकर काम करना ,छोटे भाइयों को पढ़ाना उसके बाद अपनी पढ़ाई। मेरी ज़िंदगी के ये वो वर्ष थे जिनमें वो अपने सपनों की उड़ान भरता है ,उन्हें जीने का प्रयास करता है ,दोस्तों में घूमना ,चलचित्र देखना ,अपनी दुनिया में खोना ,सपने देखना ,ये सब मैंने जाना ही नहीं। मैं तो अपने माता -पिता के संघर्ष में उनका सहयोग करने का प्रयत्न ही कर रही थी और अपने परिवार के सुखी भविष्य की उम्मीद से मेहनत कर रही थी।
स्नातक के बाद मैंने नौकरी कर ली ,बस अपना खर्च निकाल पाती थी ,छः -सात वर्ष हो गए नौकरी करते किन्तु जीवन उसी तरह घिसट रहा था पर अब माता -पिता को मेरे विवाह की चिंता हो चली थी। दहेज़ देने को नहीं था तो वो लोग भी कोई छोटा -मोटा लड़का ढूंढकर अपनी जिम्मेदारियों से मुक्त हो जाना चाहते थे। अक्सर मन प्रश्न करता कि'' क्या लड़के वालों के लिए लड़की के गुण उसकी सुंदरता कोई मायने नहीं रखते। बिना पैसे तो पिता की भी हिम्मत नहीं होती कि किसी अच्छे कमाते लड़के की दहलीज़ उलाँघे ,एक जगह प्रयत्न भी किया तो उन्होंने अपनी बातों से ही हमारी औकात दिखा दी ,लड़का मिलना भी आसान नहीं था। पास बैठी बीबी बोलीं -आप तो वैसे ही बहुत खूबसूरत रही होंगी ,आपके लिए भी क्या लड़कों कमी थी ?आँखें खोलकर जयाजी बोलीं -लड़कों की तो कोई कमी नहीं थी ,दावे तो बहुत करते थे किन्तु विवाह करना और निबाहना बहुत मुश्किल होता है। उस समय पर कोई हिम्मत नहीं कर पाता था कि अपने परिवार से बग़ावत करे और न ही मैं ऐसा कुछ करना चाहती थी, कि मेरे परिवार को शर्मिंदगी का सामना करना पड़े। समय और परेशानियों ने उम्र से पहले ही बड़ा बना दिया था। अंत में मेरे माता -पिता की ख़ोज पूरी हुयी। कम दहेज़ में एक पारिवारिक लड़का मिल ही गया ,जो अपने परिवार से जुड़ा आज्ञाकारी लड़का था ,बड़ों का सम्मान भी करता था। क़ायदे से देखा जाये ,तो ऐसे व्यक्ति सम्मान के पात्र होते हैं किन्तु ऐसे व्यक्ति का व्यवहार उस लड़की पर भारी पड़ जाता है जिसमें उस लड़के की माँ एक 'तेज़ तर्रार महिला थी। ये कहावत यूँ ही नहीं चली आ रही कि ''औरत ही औरत की दुश्मन होती है। ''जिसमें कि मैं दहेज़ कम लाई ऊपर से पति ,माँ का आज्ञाकारी बेटा। मेरे हाथ में कुछ नहीं, सारा दिन काम करना और ताने सुनना। कहने को तो बहु घर की लक्ष्मी होती है किन्तु यातना देते समय ये सब कोई नहीं सोचता। मैं तो अपने मन से पहले से ही मरी हुई थी, और रही -सही कसर सास ने पूरी कर दी उन्होंने शारीरिक और मानसिक कष्ट देने में कोई कमी नहीं की। कहने को तो, मैं पढ़ी -लिखी जागरूक महिला थी किन्तु उनके अत्याचार सहने के लिए विवश थी। उन बातों को सोचते हुए, उनकी आँखों से 'अश्रु धारा' बह निकली ,इससे हम अंदाजा लगा पाए कि जख़्म बहुत गहरे थे। शायद उनका गला रुँध गया था। अग्रवाल जी ने उन्हें पानी दिया और बोले -आप ये बातें अपने माता -पिता को तो बता सकतीं थीं ,वो उन लोगों से बात करते। पानी पीकर जयाजी बोलीं -किससे कहती ,कहाँ ठिकाना था मेरा ?एक बार उन लोगों से कहा भी कि मुझे बहुत तंग किया जा रहा है, तो माँ ने कहा -कैसे -कैसे तो तेरा विवाह किया है ,दूसरी जगह जाकर संबंध निभाने पड़ते हैं। उन्हें अपनी बेटी की परेशानी या उसके दुःखी होने की चिंता नहीं थी ,उन्हें ये चिंता थी कि कहीं ये यहीं आकर न बैठ जाये। मेरे मन में प्रश्न उठते -मेरी इस स्थिति के लिए कौन उत्तरदायी है ?मेरी क़िस्मत ,मेरे पिता की ग़रीबी ,मेरी सच्चाई और सीधापन या पति का परिवार के प्रति हद से ज़्यादा लगाव ,जो भी ज़िम्मेदार हो, भुगतना तो मुझे ही पड़ रहा है। अब मेरा कहाँ ठिकाना है ?मेरे प्रश्न पर माँ का जबाब था तेरी क़िस्मत में ही ऐसा लिखा है, किन्तु जो हमारे हाथ में है वो तो हम कर सकते हैं ,मैंने माँ से कहा। माँ ने बात सुनने से पहले ही डांट दिया ,तेरे छोटे भाई हैं ,उनके आगे के जीवन पर गलत असर होगा उनके विवाह में भी परेशानी आ सकती है। जो भी है, जैसे भी है ,अब वहीं रहो और निबाहो। मेरा कोई ठिकाना नहीं था, न ही कोई हमदर्द, जो मुझे समझ सकता। मैं शारीरिक और मानसिक रूप से वहीं [ससुराल ]रहकर जूझती रही, असली में तो नहीं जलाई गयी किन्तु तिल -तिल जलती और घुटती रही ,मेरी आदत नहीं थी, बात -बात पर रोने की जबकि मालूम था कि कोई साथ देने वाला नहीं ,मैंने कहना ही छोड़ दिया ,सबको लगता मैं अब आराम से रह रही हूँ।
अब मेरा परिवार बढ़ा, उधर भाइयों ने भी काम करना आरम्भ किया ,घर की उन्नति हुयी ,मुझे लगा, जैसे मेरी ही उन्नति हुयी है ,लगता कम से कम अब तो मेरी ससुराल में मेरा मान बढ़ेगा ,अब ये लोग मुझे गरीब घर की बेटी नहीं समझेंगे, ससुराल में कोई परिवर्तन आता, उससे पहले ही मेरा मायका, जो पहले से ही मेरा नहीं था ,वो गलतफ़हमी भी धीरे -धीरे दूर होने लगी। भाई के विवाह के बाद मैं ख़ुशी -ख़ुशी बच्चों को तैयार कर ,अपने घर ले गयी। पहले तो उन्होंने अज़ीब नज़रों से घूरा, पिता से तो रुका ही नहीं गया और बोले -'आ गए गवाँर ',मैं अपने पिता का चेहरा देखती रही ,मैं सोच रही थी -मैं इन्हीं का ख़ून हूँ और ये बच्चे इनकी बेटी के हैं ,तब इतनी हिक़ारत भरी नज़रों से देख रहे हैं। क्या उनकी कमी को मैंने नहीं झेला ?अब पैसे की बोली बोल रहे हैं ,मन तो किया कि चीख़ -चीख़कर कहूँ -तुम्हारी तो इतनी भी औकात नहीं थी कि मुझे ठीक पढ़ा भी सकें ,किस बात में गवाँर लग रहे है ?ऐसे व्यवहार के बाद लगता जो अपनों के लिए तुमने त्याग किये, सब व्यर्थ रहे ,तब एक नया एहसास होता है-' कि जो अपने लिए जिये, इससे तो अच्छे वो ही लोग होते हैं, कम से कम ऐसे दर्द से तो न गुजरना पड़े जो अपने ही दे जाते हैं और उन्हें एहसास भी नहीं होता।'' ये मेरा ही नहीं अपना और अपनी परवरिश का अपमान कर रहे हैं ,इतना सब मेरे मन में चल रहा था किन्तु बस इतना ही कह पाई- किस वजह से गंवार लग रहे हैं ?आपकी बहु से कम पढ़ी -लिखी नहीं हूँ।
उसके बाद क्या जया जी अपनी ससुराल में वो सम्मान पा सकीं ?मायके वालों का क्या व्यवहार रहा और वृद्ध आश्रम में कैसे पहुंची ?उसके लिए दूसरा भाग पढ़िए