आपने पहले भाग में पढ़ा, कि वृद्धा आश्रम में जो जयाजी आयी थीं ,उनको वहां रहते छः माह हो चुके ,सर्दी के मौसम में सब धूप में बैठे थे तभी अग्रवाल जी ने उनकी ज़िंदगी के विषय में बात छेड़ी ,तो आज पता नहीं कैसे अपनी 'दास्ताँ 'सुनाने लगीं? इससे पहले कभी किसी को कुछ नहीं बताया ,सबके लिए वो रहस्य बनी हुई थीं और आज वो अपने जीवन की सारी 'दास्ताँ 'सुनाने लगीं। सब बड़े ही ध्यान से सुन रहे थे। वो आगे बोलीं -कभी -कभी मेरा दिल करता कि मैं अपनी माँ के पास बैठूँ,उनसे अपने मन की बातें कर दिल हल्का कर लूँ क्योंकि मन में अनेकों प्रश्न उठते ,-क्या सही और क्या ग़लत है ?दिल करता माँ की गोद में सिर रखकर पूछूँ -मैं कहाँ ग़लत हूँ या मेरे साथ ही ऐसा क्यों हो रहा है ?किन्तु माँ को तो समय ही नहीं कि वो अपनी बेटी के डूबते मन को उबार सके ,उसके सीने पर जो बेदर्द ज़माने की रुसवाई के जख़्म थे ,उन पर मरहम लगा सके। कभी प्रयत्न भी किया, तो कहती -छोड़ो अब इन बातों को। वो अपनी बेटी का दर्द बाँटना ही नहीं चाहती थी या यूँ कहें अपनी खुशियों में विघ्न नहीं डालना चाहती थी। मैं अपनी परेशानियां और उनसे मिले दर्द को लेकर घुटती रही। ग़लती किसकी थी, या कौन कर रहा है ?कभी -कभी उनके व्यवहार से लगता, कि वो मुझसे बचना चाहती हैं। हमारे समाज की यही विडंबना है और ये सभी लोगों में है -''जिसके पास पैसा नहीं ,उसे कोई नहीं पूछता और जिसके पास पैसा होता है ,वो किसी को नहीं पूछता '' उसे लगता है ,सब तेरे पैसे के पीछे लगे हैं किन्तु वो अपने दिन भूल जाता है। मैं दो घरों के बीच पिसती ,कहाँ जाऊँ ,कौन सा मेरा घर है।
मुझे तो लगता, कि अपने परिवार या उनकी उन्नति में भी खुश होने का अधिकार नहीं ,मैं जब पूछती कि वो लोग क्या कर रहे हैं ?जिससे ससुराल में भी मेरा मान बढ़े किन्तु उत्तर मिलता- वे कुछ भी करें,वे अपने घर के हैं ,तू अपने घर का ध्यान रख ,तुझे उनसे क्या लेना -देना ? ''कितना दर्द दे जाते हैं अपनों ही द्वारा कहे गए ये शब्द। कहते हैं ,बेटी पराया धन होती है किन्तु मुझे तो बार -बार एहसास कराया गया। अपना ही घर जहां मेरा बचपन बीता ,युवावस्था ने अंगड़ाई ली आज वो घर अज़नबी नज़र आता था। अपने घर जाकर भी नहीं लगता था कि मैं इन लोगों से अपना सुख -दुःख बाँट सकूँगी। वो अपनापन -अधिकार ढूँढती थी शायद किसी कोने में हो। बच्चों की छुट्टियाँ होने पर ,बच्चों ने कहा -मम्मी ,सब लोग मामा के यहाँ जाते हैं ,हम क्यों नहीं ?एक दिन झिझकते हुए मैंने पूछा -क्या बच्चों को कुछ दिनों के लिए लेकर आ जाऊँ ?
उन्होंने बुला तो लिया किन्तु फिर एहसास भी दिला देते कि यहाँ हर चीज मोल की है ,पैसे की कमी नहीं परन्तु इसका मतलब ये नहीं कि,,,,,,,इसके आगे के शब्द मैं सुनना नहीं चाहती थी क्योंकि मैं अपने को बेबस मान रही थी कि यदि ससुराल वालों को इस तरह के व्यवहार का पता चले तो जो थोड़ा भी सम्मान या समाज का डर था ,वो भी नहीं रहेगा। अप्रत्यक्ष रूप से मुझे जतला दिया जाता कि तेरे बच्चों को किसी के यहाँ रहने की तहज़ीब नहीं ,उनके व्यवहार से बच्चों में डर समा गया। कहने लगे -चलो ,अपने घर चलते हैं ,उसके बाद किसी ने भी वहां जाने का नाम नहीं लिया। मैं सोचती,- वे कैसे नाना -मामा होते होंगे जिनके यहाँ जाने के लिए हर वर्ष बच्चे ख़ुश होते हैं। बच्चों की पढ़ाई का बहाना कर अपने आपको रोक लेती। मेरी हालत ऐसी थी मायके की बातें ससुराल में नहीं कह सकती थी और ससुराल की बातें या परेशानी मायके में कोई सुनना नहीं चाहता। मैं अक्सर सोचा करती -वे कैसे माता -पिता होंगे? जिन्हें बेटी का ग़म बताने से पहले ही उसका आभास ही जाता होगा। जयाजी ने एक ठंडी साँस ली ,बोलीं -ख़ैर जो भी था ,मैं अब वहाँ नहीं जाती ,अपने आने वाले सुख के दिन सोच मैं उस कमरे में ,अपना जीवन व्यतीत कर रही थी जो सास ने अलग होने पर दिया था। अब आप सोचिये, मैंने अपने बच्चों के साथ सोलह वर्ष उस कमरे में बिता दिये ,न कहीं आना ,ना कहीं जाना ,साथ में कोई न कोई मानसिक परेशानी अलग। क्या मेरी वो हालत किसी जेल से कम थी ?घरवाले ,पैसे वाले भी हो गए थे। अब सब दूर रहते तो बड़े प्रेम से पूछते ,कैसे हो ?मैं भी औपचारिकता वश कह देती -ठीक हूँ।कभी -कभार दिल रो उठता ,कहना भी चाहती, तो वो लोग पहले ही बोल उठते -अरे !किसी का शायद फोन आया है फिर बात करते हैं और मैं मन मसोसकर रह जाती और सोचती ,ये कैसे मतलबी और डरे हुए रिश्ते हैं ,जिनमें सिर्फ़ औपचारिकता थी। ऐसे रिश्तों के बीच मैं घुट रही थी। माता -पिता को लगता- कि हमने अपनी बेटी का साथ नहीं दिया ,ये उसके परिवार के लिए अच्छा था किन्तु जो दर्द - परेशानी मैंने झेलीं उनकी टीस आज भी है। क्या मेरे जीवन के वो सुनहरे पल वापस ला सकते हैं ?जिनमें मैं शायद ही कभी ख़ुश रही हूँ या मेरी वो उम्र दोबारा लौटाई जा सकती है जिसे मैं पुनः ख़ुशी से जी सकूँ।
ये मेरी ज़िंदगी का सफ़र है ,जिसका कोई मूल्य नहीं। कहने को तो सब मेरे अपने थे ,सब कुछ था मेरे पास। हमेशा दहेज़ ही दुःख का कारण नहीं होता ,अपनों का व्यवहार भी तिल -तिल मारता है। साथ कोई नहीं रहता ,न ही जाता है। जीवन के इस पड़ाव में मन बार -बार पूछता है कि युवावस्था ग़रीबी से जूझते गुजारी ,ससुराल में उन लोगों के व्यवहार से जूझती रही ,मैं थक चुकी थी। एक पल को कुछ बात सोचते हुए उनकी आँखें फिर से नम हो गईं ,बोलीं -मुझे तो अपनों ने ही चोर समझा। जब माता -पिता ग़रीब थे तो ससुराल वाले संदिग्ध नजरों से घूरते ,कहीं कोई सामान उठाकर मायके न दे आये। जब मायके में पैसा आया तो वो लोग छुपती निग़ाहों से नज़र रखते ,कहीं बेटी कोई सामान उठाकर न ले जाये या मांग न ले। पहले ही जतला देते, बहुत महंगी है। एक तरफ बेटी थी जो उन लोगों के मान के लिए सब सहती रही दूसरी तरफ उस घर की लक्ष्मी , उस घर को सजाया -संवारा उस परिवार की वंश -बेल आगे बढ़ाई किन्तु मान -सम्मान कहीं नहीं। ऐसा नहीं, सभी के साथ ऐसा होता है। वो मेरी किस्मत थी। मैंने सोचा -भाई का विवाह होगा तो अपनी सहेली की तरह मैं भी ऐसे ही मनपसंद साड़ी लूँगी। कभी -कभी मन में आ जाता था उसके बाद पश्चाताप और दुःख भी बहुत होता था, कि मैंने ऐसा सोचा ही क्यों ?मिश्राइन जो चुपचाप बैठी सुन थी ,बोली -क्या आपने अपनी पसंद की साड़ी चुनी ?जयाजी मुस्कुराकर बोलीं -इतनी कहानी सुनने के बाद आपको क्या लगता है ?मैं जब घर पहुंची, सब सामान समेटकर रख दिया और जैसे वो अपनी कामवाली को कहते थे उसी तरह बोलीं -तेरा वो थैला रखा है ,ले जाना। न जाने कितनी बार मैंने अपने आँसू पिये ?उस दिन भी उस अपमान को लेकर घर आ गयी। मन तो किया, कहीं रास्ते में फैंक दूँ किन्तु ससुराल में जाकर क्या दिखाउंगी, या जबाब दूँगी ?यही सोच उस वज़न को ढ़ोकर ले आयी।
एक बार घर से फोन आया कि आ जाना ,कुछ दिन रह जाना ,चार -पांच साड़ियाँ ले जाना। बाद में पता चला- कि कामवाली नहीं आ रही और उन्हें काम के लिए मेरी आवश्यकता पड़ गयी इसीलिए सोचा होगा जैसे गांवों में बेटियों को साड़ी दे देते हैं ,ऐसे ही ये भी लालच में आ जाएगी। गांव में जब वो लोग अपनी बेटियों को साड़ियाँ देते हैं ,वे हल्की भले ही हों किन्तु उनमें उसके ग़रीब माता -पिता का प्यार और अपनापन छिपा होता है ,वे लोग प्यार से बेटी लिए जोड़ते हैं कि बेटी आएगी तो ख़ाली हाथ थोड़े ही जायेगी किन्तु इस फोन में अहंकार और पैसा बोल रहा था। मुझे मन ही मन गुस्सा आया और कहा -अब तो आप लोग पैसेवाले हो ,उन पैसों से लोग और उनकी भावनायें दोनों खरीद सकते हो ,खरीद लो, मेरे पास समय नहीं। उस दिन मैंने पहली बार अपने स्वभिमान के लिए क़दम उठाया और जबाब दिया। धीरे -धीरे मैं सम्भलने लगी थी। बेटे का विवाह किया वो बाहर चला गया वो भी औपचरिकता वश मुझे पूछता किन्तु उसकी पत्नी इसके लिए तैयार नहीं थी कि किसी बूढ़ी स्त्री का काम करे उसकी ज़िम्मेदारी उठाये ,बेटा इस चक्की में पीस रहा था मैंने उसे मुक्त कर दिया ,कहा -मुझे किसी आश्रम में छोड़ आओ ,वहाँ मेरे हमउम्र लोग होंगे, वहां मेरा लग जायेगा। मैंने उसे उस दुविधा से निकाल दिया। करना भी क्या है ?जब तक जिन्दा हैं अपने कर्मों की गठरी को ढ़ो रहे हैं ,जाना तो है एक न एक दिन, क्यों न पहले ही मुक्त हो जाएँ ?किसी ने क्या व्यवहार किया ,क्या फ़र्क पड़ता है ?अब तो जैसे आदत पड़ गयी ,किसी के मोह में ये मन नही फसेंगा ,मैंने अपने हिस्से का जीवन जिया और अब इस जीवन से कोई मोह भी नहीं ,मोह नहीं तो इस देह को जीवन -मृत्यु के बीच नहीं झूलना पड़ेगा ,बाक़ी जीवन आप लोगों के बीच गुजर जायेगा। मैं जानती हूँ ,यहाँ हर व्यक्ति अपने अंदर कुछ न कुछ दफ़न किये बैठा है ,हम एक -दूसरे के दुःख के साथी हैं। जो दर्द मेरे अपने नहीं समझ सके वो आप लोगो ने सुना, महसूस किया मेरे लिए यही बहुत है। यही मेरे जीवन की' दास्ताँ' थी। अग्रवाल साहब !ज़िंदगी ने बहुत कुछ दिखाया और सिखाया भी। तभी सरोज खाना खाने के लिए कहने आ गयी और सब उठकर चल दिए।