मैंने तो देखते ही मना किया ,
मेरी तो पढ़ाई थी ,
मुझे तो कभी भाये ही नहीं ,
दादी ने तो देखते ही इंकार किया।
मुझे तुम्हारी ये आदत नहीं भाती ,
कभी -कभी वो रूठ जाती ,
गुस्से से मुँह फुला लेतीं।
तुम मेरे क़ाबिल ही कहाँ थे ?
तुम्हारे फूफा ने धोखा किया ,
झूठ बोलकर रिश्ता किया।
तुम तो उम्र में बड़े थे ,मुझे अक़्ल कम थी।
वरना ज़िंदगी आज कुछ और होती।
आज भी घर -घर में' तानाकशी' चलती है।
सरकारी नौकरी से विवाह किया ,
बात -बात पर ताने सुनाती ,
जीवन के नए -नए रंग बतातीं।
ज़िंदगी की नाव में बैठी रहेंगी संग ,
हमारी हर बात से परहेज़ किया ,
फिर भी हर सुख -दुःख में साथ दिया।
संग चलती हैं ,कभी आगे बढ़ जाती हैं।
फिर पीछे मुड़ ,हाथ थाम लेती हैं।
कभी स्वाभिमान जाग्रत होता है ,
फिर न पूछती हैं ,फिर हौले से आ लिपटती हैं।
बीवियां भी समझ नहीं आती हैं।
कभी एलान -ए -जंग करती हैं ,
शांत होते ही स्वयं रोने लगती हैं।
अपने भृमजाल में खुद ही फँसती हैं।
वे क्या चाहती हैं ?समझ नहीं पाती हैं।
फिर भी जीवनभर साथ निभाती हैं।
ये बीवियाँ भी न समझ नहीं आती हैं।
न जाने कितने ताने सुनाती हैं।
कुछ पल दूर भी नहीं रह पाती हैं।
न जाने किस -किस तरह सताती हैं ?
ये बीवियाँ भी न ,समझ नहीं आती हैं।