Meri kahani [part 1]

मेरी कहानी में ऐसा क्या है ?जो मैं आपको बता दूँ ,जैसे लोग जीते हैं, मैं भी तो जी रही हूँ  ,ऐसा बताने लायक कुछ भी नहीं, किन्तु एक ऐसा दर्द है, जिसे मैं रोज़ाना जीती हूँ। सभी लोग सपने देखते हैं, मैं भी और लड़कियों की तरह सपने देखती थी। सपने देखना  भी मेरे अपनों ने  सिखाये। मैं तो और बच्चियों की तरह ही साधारण जीवन जी रही थी, पढ़ रही थी। मुझे तो एहसास ही नहीं था कि ग़रीबी क्या होती है ?या पैसे का  क्या मूल्य है ?मैं लगभग छः वर्ष की रही होंगी ,मुझे पढ़ाई के साथ -साथ ''नृत्य ''सीखने के लिए भी भेजा जाने लगा। पढ़ाई से ज़्यादा नृत्य पर विशेष ध्यान दिया जाने लगा ,धीरे -धीरे मैं ''नृत्य ''में पारंगत होती गयी ,मेरी रूचि भी बढ़ती गयी, किन्तु ये सब मेरे व्यक्तित्व के लिएअथवा मेरी ख़ुशी के लिए नहीं वरन मुझे तो भविष्य के लिए तैयार किया जा रहा था। सभी के माता -पिता अपने बच्चों  को पढ़ाते -लिखाते और उनके सुनहरे भविष्य के लिए तैयार करते हैं, किन्तु वो मेरा शौक नहीं था।  प्रशंसा किसको अच्छी नहीं लगती ? मुझे भी लगती थी किन्तु जब मेरी कला का मेरे सामने ही अपमान हुआ तो मैं बर्दाश्त नहीं कर पाई। मुझे मेरी कला को एक तरफ रखकर, चमकीले वस्त्रों  में तड़कता  -भड़कता नृत्य प्रस्तुत करने को कहा गया , मैंने जो भी सीखा मेरे लिए वो मेरी कला थी , पुजनीय थी , मैं उसका अपमान नहीं कर सकती थी किन्तु उस समय मुझे पता चला कि इस शिक्षा का मूल उद्देश्य ही यही था कि मैं अपने सुख और संतुष्टि के लिए नहीं बल्कि लोगों की ख़ुशी के लिए, उनको प्रसन्न करने के लिए नृत्य प्रस्तुत करूं।

                मेरे इंकार करने पर मुझे अपने पिता का वो रूप देखने को मिला जिसकी मैंने कल्पना भी नहीं की थी ,आज मुझे पता चला कि मेरी शिक्षा पर इसीलिए पैसा लगाया जा रहा था कि मैं आगे चलकर मैं चाहे किसी भी तरह पैसा कमाऊँ। मेरे ऊपर जो खर्चा किया जा रहा था  उसका  उधार भी चुकाना था। मैं और मेरी कला तो पहले से ही गिरवी रखे  चुके थे ,हमारा तो कोई अलग वज़ूद ही नहीं था। मेरे पूछने पर -पैसा तो मैं पढ़ -लिखकर भी कमा सकती थी ,मेरी शिक्षा पर अधिक ध्यान देते।तब जबाब आया -कितना पढ़ाते ?सालों पैसा लगाते ,तब जाकर दस -पंद्रह हज़ार की नौकरी मिल पाती ,सालों की मेहनत के बाद भी इतना नहीं कमा पाती ,तुझे पैसे की क़ीमत का नहीं पता ,पैसा कैसे और किस -किस तरह से कमाया जाता है ?पैसा ही सम्मान और इज्जत दिलाता है ,इस तरह पैसा  कमाने में क्या बुराई है ?अब मुझे याद आ रहा था कि कैसे पिताजी ठीक से नृत्य न करने पर मेरी टाँगों में ही छड़ी मार दिया करते थे। मेरा भविष्य  तो इन लोगों ने पहले ही तय कर दिया था। कभी लगता ये मेरे ही माता -पिता हैं या नहीं अथवा  कहीं से उठा लाये ? मैं भी न क्या -क्या सोचती थी ?धीरे -धीरे मुझे एहसास होने लगा कि बिना पैसा कमाये तो ये जीवन   चलने वाला नहीं। घरवालों का जोर देना, उधर जिनसे मेरे लिए पैसा लिया था ,उनका पैसा भी चुकाना था फिर भी मैंने हिम्मत नहीं हारी और मैंने अपनी शिक्षा के बल पर नौकरी की ख़ोज प्रारम्भ की। न जाने कितने दफ्तरों में भटकने के बाद नौकरी मिली ,तो  उसमें भी ऐसे कपड़े पहनने को दिए गए जिनमें आधा तन ही ढकता। ये बहनजी वाला रूप नहीं चलेगा ,मुझे ये जबाब मिला। सबको औरतों की नुमाइश करके ही अपना काम बनाना होता है। कुछ इसे आज का चलन भी कह देते हैं किन्तु इतना ही काफी नहीं था। बॉस को भी खुश करना होता है ,उसके इर्द -गिर्द घूमना होता है ,कैसी दुनिया है ये ?परिश्रम का कोई महत्व नहीं इस बात का मुझे तब पता चला जब दूसरी लड़की की उन्नति हो गयी जो मेरे बाद आयी थी ,उसका काम भी मेरे ऊपर थोपा जाता। 
             घर आते ही पैसों की चिक -चिक ,इतने पैसों से घर की जरूरतें ही पूरी नहीं हो पातीं तो बाहर का पैसा कैसे उतरेगा ?आये दिन पिता का दबाब बना रहता ,इसमें कुछ नहीं रखा ,पूरी ज़िंदगी लड़ती रहना फिर भी इतना पैसा नहीं कमा पाओगी, इससे ज़्यादा तो एक ही शो में कमा जाओगी। मैं भी थक चुकी थी ,इस रोज -रोज की चिक -चिक से। यहाँ भी तो ऐसे कपड़े पहनकर अपने को सभ्य दिखाना पड़ता  है वो भी  ,दूसरों  लिए तो क्यों न मैं अपने और अपनों के लिए दिखावा करूँ। मैंने अपने  को बदलने का फैसला लिया ,मैंने अपनी शर्तों पर शो किये भी तो चले नहीं ,मैं हताश हो गयी ,तब मुझे उन लोगों की बात मानने की मंजूरी देनी पड़ी। तब मैंने उनके अनुसार तड़कता -भड़कता 'शो 'किया रातों -रात मैं लोगों के दिलों की रानी बन गयी। अब मुझे काम मिलने लगा ,नोटों की बरसात होने लगी। पिता दोनों हाथों से पैसा बटोर रहे थे। वे तो शो के अग्रिम पैसे ले लेते, मैंने भी अपनी ज़िंदगी को किस्मत के हवाले छोड़ दिया जिधर भी हवा का रुख था बही जा रही थी। चलचित्रों के लिए भी मेरी मांग बढ़ी किन्तु वहाँ मेरी ''दाल नहीं गली ''या यूँ कहें मैंने किसी की ''दाल गलने'' नहीं दी। उन्हें कुछ ज्यादा ही चाहिए था ,इतना तो अब तक मैं समझ ही चुकी थी कि'' इस दुनिया में जगह -जगह कीचड़ है और जो भी चीज जितनी भी आकर्षक दिखाई देती है

उसमें उतना ही कीचड़ है और मैं कीचड़ में पैर रखकर भी कमल की तरह बचे रहना चाहती थी।''पिता का लालच तो जैसे बढ़ता जा रहा था वो हर चीज के लिए तैयार थे किन्तु मैं इतने समझौतों के बावजूद अब कोई समझौता करने के लिए तैयार नहीं थी। कई लोगों को मेरे कारण' मुँह की खानी' पड़ी। अब मैं एक'' मुँहफट -बेशर्म ''औरत के रूप में प्रचलित होने लगी किन्तु मुझे अब किसी की परवाह नहीं थी।  
              पिता को भी मैंने सीधे -सीधे जबाब देना आरंभ कर दिया- तुम्हारा पैसा भी मैं उतार चुकी हूँ , जितने तुमने  मेरी परवरिश में लगाए हैं, उससे कई गुना कमाकर दे दिया ,अब जो भी मिल रहा है उसी में खुश रहो और रहने दीजिये। मैं जीवन के पैंतीस वर्ष पार कर चुकी थी और अब मैं ठहराव चाहती थी ,कुछ पल मैं अपने लिए  भी जीना  चाहती थी। जो सिर्फ मेरे अपने हों ,मैंने अब तक लोगों को ख़ुश रखा लेकिन कोई तो ऐसा हो जो मुझे ख़ुश रखे ,मेरी इच्छाओं का मान करे ,मुझे समझे।कौन  होगा ?वो मेरा अपना अगले हिस्से में पढ़ना। क्रमांक 




















   
laxmi

मेरठ ज़िले में जन्मी ,मैं 'लक्ष्मी त्यागी ' [हिंदी साहित्य ]से स्नातकोत्तर 'करने के पश्चात ,'बी.एड 'की डिग्री प्राप्त करने के पश्चात 'गैर सरकारी संस्था 'में शिक्षण प्रारम्भ किया। गायन ,नृत्य ,चित्रकारी और लेखन में प्रारम्भ से ही रूचि रही। विवाह के एक वर्ष पश्चात नौकरी त्यागकर ,परिवार की ज़िम्मेदारियाँ संभाली। घर में ही नृत्य ,चित्रकारी ,क्राफ्ट इत्यादि कोर्सों के लिए'' शिक्षण संस्थान ''खोलकर शिक्षण प्रारम्भ किया। समय -समय पर लेखन कार्य भी चलता रहा।अट्ठारह वर्ष सिखाने के पश्चात ,लेखन कार्य में जुट गयी। समाज के प्रति ,रिश्तों के प्रति जब भी मन उद्वेलित हो उठता ,तब -तब कोई कहानी ,किसी लेख अथवा कविता का जन्म हुआ इन कहानियों में जीवन के ,रिश्तों के अनेक रंग देखने को मिलेंगे। आधुनिकता की दौड़ में किस तरह का बदलाव आ रहा है ?सही /गलत सोचने पर मजबूर करता है। सरल और स्पष्ट शब्दों में कुछ कहती हैं ,ये कहानियाँ।

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