Netagiri

कई दिनों की मेहनत आख़िरकार रंग लाई और मैं भारी बहुमत से जीत गया ,वैसे तो मेरी इच्छा नहीं थी कि अपने ही कॉलिज में मैं चुनाव लड़ूँ। मैं तो इन चीजों से दूर ही रहना चाहता था किन्तु दोस्तों को मेरा अपनी बात बेबाक़ी से कहना ,अध्यापक के सामने अपनी बात रखना ,हर परेशानी में दोस्तों के साथ खड़े रहने के कारण दोस्तों ने मेरा नाम चुनाव के लिए सुझाया। कॉलिज में कई ख़ामियाँ थीं ,उन्हें लगता था कि मैं उन जिम्मेदारियों को पूरी तरह निभा पाऊँगा और उनकी परेशानियां भी दूर करने का प्रयत्न भी करूंगा

,इसीलिए मेरे इंकार करने पर भी उन्होंने मेरा नाम दे ही दिया। मैंने तो पहले ही कह दिया था कि मुझे कुछ नहीं आता किन्तु वे बोले -धीरे -धीरे सब आ जायेगा ,और आज उनकी मेहनत और प्रचार के दम  पर मैं ''छात्र संघ ''का नेता बन गया। आज मैं पूरे कॉलिज में पहचाना जा रहा था ,मैं हर किसी के लिए चर्चा का विषय बना हुआ था। ये सब देख मुझे अच्छा लग रहा था जितनी मुझे घबराहट थी वो सब दूर हो गयी ,मुझे लग रहा था लोगों का विश्वास होना  चाहिए ,सफलता तो  कितनी आसानी से मिल जाती है ?बस कदम 
 आगे बढ़ाने की देर है। छात्र संघ के नेता बनकर अपने पर बड़ा ही गर्व हो रहा था। यह सब सुनकर माँ तो बड़ी खुश हो गयी किन्तु पिता नहीं चाहते थे कि मैं इन चीजों में फंसूं उन्होंने कहा -क्या आवश्यकता थी ?ये सब करने की ,समय की बर्बादी  सिवा कुछ नहीं ,अपनी शिक्षा पर ध्यान दो। उनकी बातें मेरे उड़ान भरते मन को अच्छी नहीं लगी। जब भी वो मेरे सामने पड़ते मैं उनसे बचकर अथवा यूँ कहें कन्नी काटकर निकल जाता। 
                अब मैं ''छात्र संघ ''का नेता था इस कारण मेरा एक अलग कमरा था या यूँ कहें वो मेरा दफ्तर था ये सब सुविधाएं और सम्मान पाकर मुझे बड़ा ही अच्छा लग रहा था किन्तु उसी के साथ मेरी जिम्मेदारियां भी बढ़ी थीं ,इस कारण  मेरी शिक्षा नहीं हो पाई और अंत में नंबर कम ही आये।पिता के क्रोध का भाजन तो बने किन्तु तब तक हमें नेतागिरी का चस्का लग चुका था। चार लोगों में हमारी पहचान थी ,इज्जत थी ,उसी को क़ायम रखने के लिए ,हम एक राजनैतिक समूह  के सदस्य बन गए। हमारे  राजनीति के प्रति इतने समर्पण के कारण और हमारी भावनाओं को देखते हुए ,उन लोगों ने हमें अपने समूह का ''युवा मोर्चा अध्यक्ष ''बना दिया। हमे लग रहा था ,जैसे हम उन्नति के पथ पर  एक पायदान ऊपर चढ़ गए। अब तो हम

जैसे घोड़े पर सवार  थे।  ज्यादातर घर से बाहर ही रहते -कभी कैंप में जाते ,कभी  चंदा इकट्ठा करते ,कभी अपने समूह के लोगों को जागरूक करने के लिए एकत्र होने की सूचना देते। कभी हम समाज की सेवा के लिए निकल पड़ते ,जैसे -बाढ़ पीड़ितों को बचाना ,प्याऊ लगवाना इत्यादि कार्य हम अपनी भूख -प्यास त्यागकर अपने पथ पर अग्रसर रहते। हम सोच रहे थे कि इसी तरह मेहनत करते हम लोगों के दिलों में  विश्वास और प्यार से  जगह बना लेंगे। जो लोग दफ्तर में बैठे रहते वो हमें बताते कि हमें क्या करना है ,कहाँ जाना है ?वे वहीं बैठकर चाय -पकौड़ी की दावतें उड़ाते और फिर हम जैसे भक्त भी उनके लिए कुछ न कुछ बना ही देते। हम भी खा लेते ,हमने सोचा -यही हमारी उन्नति का रास्ता है। जब भी हम किसी कार्य को अंजाम देते ,हमारे समूह का नाम समाचार पत्रों में छपता और उसमें दफ़्तर के लोगों का फोटो होता और उस भीड़ में ढूंढने पर कहीं छोटा सा हमारा नाम छपा होता और उसे देखते ही, हम बहुत ही प्रफुल्लित होते।            माँ तो मोहल्ले में हमारा नाम या दूर कहीं छोटी सी तस्वीर दिखाती जिसे कभी -कभी हम स्वयं ही नहीं पहचान पाते किन्तु अंदाजा लगाते कि हम यहीं खड़े थे। बस इसी तरह दो -तीन वर्षों तक हम ख़ुश होते घूमते रहे। एक दिन पिता ने पूछ ही लिया -'आगे क्या सोचा है ?हमने जबाब दिया -सोचना क्या है ?समाज की इसी तरह सेवा करनी है, लोगों का विश्वास और प्यार जीतना है ,बस और क्या नेतागिरी करनी है ?

हमारा लापरवाही वाला जबाब पिताजी को पसंद नहीं आया।माँ से  बोले -ये कुछ नहीं करेगा ,अपनी ज़िंदगी बर्बाद करेगा ,भगवान ने इसे पेट भी दिया है उसे कैसे भरेगा ?माँ ने सुझाव दिया -इसका विवाह कर दो ,जब इसके सिर पर ज़िम्मेदारी आयेगी ,तभी कुछ करेगा। हमने सोचा -हमसे  कौन लड़की विवाह करेगी ?इसीलिए हमने कुछ नहीं कहा। माता -पिता अपना प्रयास करते रहे वैसे अप्रत्यक्ष रूप से हम मना कर चुके थे। किन्तु माता -पिता ने जिस लड़की की तस्वीर हमें दिखाई ,हम इंकार न कर सके और  माँ ने भी समझाया -जब तुम समाज -सेवा कर सकते हो ,इतने लोगों का ध्यान रख सकते हो तो एक ज़िम्मेदारी और सही। माँ की बातें तो सही थीं और उसके बाद हमारे सिर पर सेहरा सज ही गया। हमारे  ऊपर एक और खूबसूरत जिम्मेदारी थी उनका भी दिल जीतना था ,हम दिखला देना चाहते थे कि उसने किसी ऐसे -वैसे से विवाह नहीं किया है ,हमारी भी शाख है। 
              हमने सोचा -कुछ काम ही कर लेते हैं ,ख़ाली समय में समाज -सेवा हो जाया करेगी। उसके लिए हमें किसी अधिकारी के हस्ताक्षर की आवश्यकता पड़ी ,हमने अपने समूह का रौब दिखाते हुए कहा -अरे ,कोई चिंता का विषय नहीं है ,हमने चुटकी बजाते हुए कहा -इन पर तो यूँ हस्ताक्षर करा लायेंगे। हमने दफ्तर के बहुत चक्कर लगाये ,उन लोगों को हमने अपनी चार -पांच वर्षों की सेवा का वास्ता दिया ,अपने सभी हथियार चलाये किन्तु कोई लाभ नहीं मिला। अब तो मेहनत करके खाना या कोई काम करना बहुत ही मुश्किल लग रहा था ,उससे आसान तो नेतागिरी लग रही थी ,मैं सोच रहा था कि हम चंदा मांगने निकल पड़ते थे और सोचते थे कि लोग अधिक से अधिक चंदा दें ,कोई कम दे भी देता तो उसकी चार बुराई करते -इतना कम दिया है ,कहाँ ले जायेगा ?लेकिन आज समझ आ रहा था कि पैसा कितनी मुश्किलों से कमाया जाता है ?हमसे कोई अब चंदा मांगे तो एक दमड़ी भी ना  दे पायें और दुत्कारकर भगा दें क्योंकि इतने दिनों से हम जो प्रसन्न होते घूम रहे थे ,अपना दब -दबा समझ रहे थे उसकी असलियत हमारे सामने आती जा रही थी। अभी तो घरवालों ने जिम्मेदारी संभाली हुई थी किन्तु धर्मपत्नी भी हमें बराबर हमारी जिम्मेदारियों का एहसास करा रही थी। 

            एक दिन तो उन्होंने हमें ताना मारा ,समाज -सेवा करते थे ,उनकी मदद के लिए जाते थे ,अब हमें मदद की आवश्यकता है तो कहाँ जायें ?आज हमें महसूस हो रहा था कि हम तो बड़े लोगों के काम आने वाले ''छुटभैया ''थे ,जिनके हाथ में कुछ नहीं। ऐसे लोग हम जैसे लोगों को ''सब्ज़बाग ''दिखाकर ,कभी देश के नाम पर कभी सेवा  के नाम पर मुफ़्त में काम  लेते थे। हम नहीं तो कोई और सही ,हमारी ही तरह ठाली और खाली जनता बहुत है जो स्वप्न देखती है ,उनके स्वप्नों को वो काल्पनिक उड़ान देते हैं। जो धरातल से कोसों दूर है। हमारे देश की जनसंख्या इतनी अधिक है कि थोड़ा सा चढ़ाओ और हम जैसे ''छुटभैया ''बहुत मिल जायेंगे। हम तो धीरे -धीरे संभलने भी लगे और अपनी औकात भी समझ आ गयी कि यूँ ही समय व्यर्थ ही गंवा दिया ,हम तो दूसरों के तो क्या ?अपने भी छोटे -मोटे कार्य नहीं करा सके। ज़िंदगी के चार -पांच वर्ष हमने इसी झांसे में व्यर्थ गंवा दिए किन्तु जैसे -जैसे असलियत सामने आयी हमारे सिर से 'नेतागिरी' का भूत उतर गया। पिता की बातें अब हमें समझ आ रहीं थीं ,हमने उनसे क्षमा याचना की ,तब पिताजी ने कहा -देर से आये ,दुरुस्त आये ,समूह के लोग ऐसे ही ''छुटभैयों ''द्वारा अपना कार्य सिद्ध कराते हैं ,इन्हें ढूंढने की आवश्यकता भी नहीं पड़ती ,बहुत से ठलुए ऐसे ही मिल जाते हैं ,जो इन लोगों का कार्य  करने में सहायक होते हैं और अंत में उनके हाथ कुछ नहीं लगता। 





















laxmi

मेरठ ज़िले में जन्मी ,मैं 'लक्ष्मी त्यागी ' [हिंदी साहित्य ]से स्नातकोत्तर 'करने के पश्चात ,'बी.एड 'की डिग्री प्राप्त करने के पश्चात 'गैर सरकारी संस्था 'में शिक्षण प्रारम्भ किया। गायन ,नृत्य ,चित्रकारी और लेखन में प्रारम्भ से ही रूचि रही। विवाह के एक वर्ष पश्चात नौकरी त्यागकर ,परिवार की ज़िम्मेदारियाँ संभाली। घर में ही नृत्य ,चित्रकारी ,क्राफ्ट इत्यादि कोर्सों के लिए'' शिक्षण संस्थान ''खोलकर शिक्षण प्रारम्भ किया। समय -समय पर लेखन कार्य भी चलता रहा।अट्ठारह वर्ष सिखाने के पश्चात ,लेखन कार्य में जुट गयी। समाज के प्रति ,रिश्तों के प्रति जब भी मन उद्वेलित हो उठता ,तब -तब कोई कहानी ,किसी लेख अथवा कविता का जन्म हुआ इन कहानियों में जीवन के ,रिश्तों के अनेक रंग देखने को मिलेंगे। आधुनिकता की दौड़ में किस तरह का बदलाव आ रहा है ?सही /गलत सोचने पर मजबूर करता है। सरल और स्पष्ट शब्दों में कुछ कहती हैं ,ये कहानियाँ।

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